समय आ गया है जब सरकारी कर्मचारियों के बने रहने का आधार भी परफॉर्मेंस ही हो

सरकारी योजनाओं का लाभ जब जरूरतमंद तक नहीं पहुंचता, या ये कहें कि समय पर नहीं पहुंचता तो हम सरकार को कोसते हैं। है जिम्मेदारी सरकार की लेकिन उन कर्मचारियों का क्या जो रिटायरमेंट का रास्ता देखते देखते गप मारते रहते हैं और फाइलों का ढेर बढ़ता, और बढ़ता जाता है। अच्छी और जनहित की योजनाएं भी समय पर लोगों तक पहुंचने की बजाय इन फाइलों में दम तोड़ देती हैं। योजना का भारी भरकम बजट या तो लैप्स हो जाता है या नौकरशाही उसे तितर-बितर कर देती है।

अच्छी और जनहित की योजनाएं भी समय पर लोगों तक पहुंचने की बजाय फाइलों में दम तोड़ देती हैं। योजना का बजट या तो लैप्स हो जाता है या नौकरशाही उसे तितर-बितर कर देती है।
अच्छी और जनहित की योजनाएं भी समय पर लोगों तक पहुंचने की बजाय फाइलों में दम तोड़ देती हैं। योजना का बजट या तो लैप्स हो जाता है या नौकरशाही उसे तितर-बितर कर देती है।

उत्तर प्रदेश सरकार ने हाल ही में एक आदेश पारित किया है जिसमें स्पष्ट है कि 50 से ज्यादा उम्र के अक्षम कर्मचारियों को अनिवार्य सेवानिवृत्ति दी जाएगी। यहां वरिष्ठ कर्मचारियों से कोई दुश्मनी नहीं है। उनका अनुभव तो चीजों को दुगनी रफ्तार से आगे बढ़ा सकता है। दिक्कत अक्षम या लापरवाह कर्मचारियों से है। अगर इन्हें विदा नहीं किया गया तो नए लोगों, युवाओं को अवसर कैसे मिलेंगे? और अगर अनिवार्य सेवानिवृत्ति के भय से इन वरिष्ठ कर्मचारियों में स्फूर्ति आ जाए तो सोने पर सुहागा। इससे अच्छा तो देश के लिए कुछ हो ही नहीं सकता।

कई बार देखा गया है कि अच्छी योजनाएं लोगों के पास पहुंचने से पहले ही बंद हो जाती हैं। लोग उसके लिए सरकार को दोषी बताते हैं और सरकार भी एक तरह से उस अच्छी-भली योजना को फेल मानकर हमेशा के लिए बंद कर देती है, लेकिन यह सिक्के का एक पहलू है। दूसरा पहलू न कोई देखना चाहता, न सरकार ऐसा कुछ मौका किसी को देती, क्योंकि सरकार के पास ऐसा कोई मैकेनिज्म ही नहीं है। दरअसल यह फाइलों का ढेर लगाए रहने की सरकारी कर्मचारियों की मानसिकता का परिणाम होता है।

सरकारी बैंक में आपके जाते ही कम से कम चार-पांच टेबलों पर घुमा दिया जाएगा। ये कागज लाइए, वो लाइए, इतने में लंच टाइम। कल आइए। आपका दिनभर इसी में खप जाएगा।
सरकारी बैंक में आपके जाते ही कम से कम चार-पांच टेबलों पर घुमा दिया जाएगा। ये कागज लाइए, वो लाइए, इतने में लंच टाइम। कल आइए। आपका दिनभर इसी में खप जाएगा।

… और यह मानसिकता आपको हर कहीं मिल जाएगी। आप एक सरकारी और एक प्राइवेट बैंक में खाता भर खुलवाने पहुंच जाइए। फर्क अपने आप पता पड़ जाएगा। सरकारी बैंक में आपके जाते ही कम से कम चार-पांच टेबलों पर घुमा दिया जाएगा। वहां चले जाइए। वहां से कहा जाएगा यहां नहीं, वहां जाइए। ये कागज लाइए। वो लाइए। इतने में लंच टाइम। कल आइए। आपका दिनभर इसी में खप जाएगा। प्राइवेट बैंक में आप जो सामने दिखे उससे काम के लिए कह दीजिए। वहीं आपके सारे काम हो जाएंगे।

यही हाल सरकारी दफ्तरों का होता है। आज फलां बाबू नहीं आए हैं। फाइल उनकी अलमारी में है। कल आइए। कल जाओ तो जिसने कल कुछ बताया था, वो गायब हो जाता है। फाइलें तो फाइलें, आदमी भी चक्कर काटता रहता है। उस पर भी धूल चढ़ने लगती है, लेकिन इस सरकारी ढर्रे को पसीना नहीं आता! इलाज एक ही है- सरकारी कर्मचारियों के बने रहने का आधार भी उनका परफॉर्मेंस ही होना चाहिए। तभी हालत सुधरेगी।

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