चुनाव आयोग के ताजा कदम से ‘रेवड़ी संस्कृति’ पर बहस तेज

आयोग ने अपने प्रस्ताव पर जोर दिया है कि राजनीतिक दलों के घोषणापत्र में वादों के वित्तीय प्रभावों का खुलासा करने का विषय मुफ्त उपहारों की बहस से जुड़ा नहीं है, लेकिन इसका उद्देश्य मौजूदा दिशानिर्देशों के कार्यान्वयन में सुधार करना है.

जब से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस साल जुलाई में “रेवड़ी संस्कृति” या कथित मुफ्त उपहारों को देश के विकास के लिए खतरनाक बताया, तब से मीडिया, राजनीतिक दल, सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग ने इस मुद्दे को राष्ट्रीय बहस का विषय बना दिया है.

मुफ्त उपहारों की परिभाषा स्पष्ट नहीं

ऐसे में जब “रेवड़ी” पर बहस छिड़ गई है, अभी भी इस बात पर कोई स्पष्टता नहीं है कि मुफ्त उपहार की श्रेणी में किन्हें शामिल किया जाए. और किस तरह से राजनीतिक दलों को अपने चुनावी घोषणापत्र में उन्हें शामिल करने से मना किया जा सकता है.हालांकि, दो घटनाक्रम बताते हैं कि प्रधानमंत्री की इच्छा को पूरी करने के लिए चुनाव आयोग और मोदी सरकार, कानूनी रूप से इस दिशा में आगे बढ़ रही है.

चुनाव आयोग ने मंगलवार को मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय और राज्य पार्टियों के प्रमुखों को पत्र लिखकर इस प्रस्ताव पर उनकी राय मांगी कि पार्टियां चुनाव के दौरान किए गए वादों की कीमत और उनके प्रभाव का ब्यौरा प्रदान करें.

आरपीए में संशोधन विचाराधीन

इसके एक दिन बाद केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू ने टाइम्स ऑफ इंडिया को बताया कि सरकार इस संबंध में पोल वॉचडॉग (चुनाव आयोग) के साथ चर्चा कर रही है और जनप्रतिनिधित्व अधिनियम (आरपीए) में संशोधन के माध्यम से “प्रमुख चुनावी सुधारों” को विधायी रूप देने पर विचार कर रही है.हालांकि, रिजिजू ने यह नहीं बताया कि क्या आरपीए में प्रस्तावित संशोधन भारत के चुनाव आयोग को इतनी शक्ति प्रदान करेगा कि वह राजनीतिक दलों के मुफ्त उपहारों के वादों पर अंकुश लगा पाए? लेकिन उनका यह कहना कि “बदलती स्थिति” में कुछ चुनावी कानूनों में बदलाव समय की मांग है, यह दर्शाता है कि “रेवड़ी संस्कृति” से निपटना सरकार के चुनाव सुधार के एजेंडे में शामिल है.

केन्द्रीय मंत्री की बातों से यह उभर कर सामने आता है कि सरकार और चुनाव आयोग चुनावी प्रक्रिया में व्यापक बदलाव लाने और इन परिवर्तनों को आवश्यक विधायी स्वरूप देने के लिए आरपीए में संशोधन का काम कर रहे हैं.

अव्यावहारिक अपेक्षा

चुनाव आयोग का मंगलवार का फैसला इसी दिशा में एक कदम है. आयोग एक परामर्श पत्र जारी करने की योजना बना रहा है, जिसमें प्रस्ताव दिया गया है कि राजनीतिक दल विधानसभा या लोकसभा चुनावों से पहले किए गए वादों की लागत का विवरण दें और अपनी आर्थिक स्थिति को भी देखें, जिससे मतदाताओं को यह पता चल सके कि मुफ्त उपहारों की घोषणा की कैसे फंडिंग की जाएगी.

लेकिन बुनियादी सवाल यह है कि मुफ्त उपहार क्या होंगे और वैध चुनावी वादे क्या होंगे? कई विपक्षी दलों ने पहले ही मुफ्त उपहारों पर बहस के मूल आधार पर सवाल उठाया है. उनका कहना है कि राजनीतिक दलों का यह वैध अधिकार है कि वे विभिन्न वादों के जरिए मतदाताओं से अपील करें. और कोई भी संवैधानिक संस्था ऐसा नहीं करने से उन्हें नहीं रोक सकती, इस पर फैसले करने का अधिकार केवल मतदाताओं को ही है. राजनीतिक दलों से अपने वित्तीय वादों का अनुमान तैयार करने के लिए कहने से सार्थक जानकारी मिलने की संभावना नहीं है. वैसे भी, प्रचार मोड में पार्टियों के पास यथार्थवादी जानकारी नहीं होती. इसलिए, राजनीतिक दलों से चुनावी वादों के बारे में अधिक जानकारी का खुलासा करने के लिए कहना एक सार्थक अभ्यास होने की संभावना नहीं है.

मतदाता को है जानकारी हासिल करने का अधिकार

आयोग का विचार है कि जहां राजनीतिक दलों को वादे करने से नहीं रोका जा सकता है, वहीं मतदाता को भी जानकारी हासिल करने का अधिकार है ताकि वह सही विकल्प चुन सकें. आयोग को यह भी पता है कि कोई भी विधायी संस्था मुफ्त या कल्याणकारी योजनाओं को परिभाषित नहीं कर सकती.

आयोग ने अप्रैल में सुप्रीम कोर्ट को दिए एक हलफनामे में कहा था कि वह राजनीतिक दलों के नीतिगत फैसलों पर नियंत्रण नहीं कर सकता और ऐसा करना उसकी शक्तियों का अतिक्रमण होगा.

प्रस्ताव रेवड़ी कल्चर की बहस से जुड़ा नहीं है

आयोग ने अपने प्रस्ताव पर जोर दिया है कि राजनीतिक दलों के घोषणापत्र में वादों के वित्तीय प्रभावों का खुलासा करने का विषय मुफ्त उपहारों की बहस से जुड़ा नहीं है, लेकिन इसका उद्देश्य मौजूदा दिशानिर्देशों के कार्यान्वयन में सुधार करना है.हालांकि, चुनावी वादों को नियंत्रित करने वाला कोई मौजूदा कानून नहीं है, लेकिन सुब्रमण्यम बालाजी मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्देश दिए जाने पर 2015 में चुनाव आयोग ने घोषणापत्र पर दिशानिर्देशों को आदर्श आचार संहिता में शामिल किया था. इन दिशानिर्देशों के तहत, पार्टियां को अपने वादों के औचित्य बताने और वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करने के तरीकों और साधनों का ब्यौरा देने की आवश्यकता होती है.

चुनाव आयोग के प्रोफार्मा में राज्य या केंद्र सरकार की आय और व्यय का विवरण भी शामिल होगा जिसे मुख्य सचिव या केंद्रीय वित्त सचिव द्वारा भरा जाएगा.पार्टियों को पत्र लिखने का निर्णय आयोग की पिछले सप्ताह एक बैठक में लिया गया था. इस बैठक में मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार और चुनाव आयुक्त अनूप चंद्र पांडे शामिल थे. चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों द्वारा अपना जवाब देने के लिए 19 अक्टूबर की समय सीमा निर्धारित की है. हालांकि कई पार्टियों ने इस पर अपनी नाराजगी जाहिर की है.

स्वैच्छिक प्रकृति

पार्टियों के साथ विचार-विमर्श खत्म होने के बाद चुनाव आयोग नए दिशानिर्देश जारी करेगा. इसमें कुछ समय लग सकता है क्योंकि पार्टियां अक्सर अपनी राय देने के लिए चुनाव आयोग से और समय मांगती हैं.

इन प्रारूपों को आदर्श आचार संहिता में शामिल किया जाएगा, जो स्वैच्छिक प्रकृति का है. हालांकि, चुनावी वादों के लिए राजनीतिक दलों को वित्तीय रूप से जवाबदेह बनाने के लिए चुनाव आयोग के इस कदम से वांछित परिणाम नहीं मिल सकते और चुनावी वादों का मुद्दा बहस का विषय बना रहेगा,लेकिन चुनाव आयोग या अदालतें रेवड़ी कल्चर पर लगाम लगाने के लिए सही संस्थाएं नहीं हैं. हालांकि, राजनीतिक दल चाहें तो यह काम कर सकते हैं.

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