संविधान के मूल ढांचे पर गंभीर बहस का समय …

सामयिक: मूल ढांचे के सिद्धांत केवल अस्पष्ट ही नहीं हैं, अपितु उनमें पारस्परिक अन्तर्विरोध भी हैं
संविधान के मूल ढांचे पर गंभीर बहस का समय  … जब संविधान में संशोधन के विधि सम्मत रास्ते बंद कर दिए जाएंगे तो आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए जनता दूसरे तरीकों का सहारा लेगी और विद्रोह जैसे विकल्पों को चुनने को भी बाध्य होगी।

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के हालिया बयान ने एक स्वस्थ बहस की शुरुआत कर दी है कि संविधान संशोधन के मामले में अंतिम निर्णय लेने का अधिकार संसद को है या उच्चतम न्यायालय को। बीते 2 दिसम्बर को एलएम सिंघवी स्मृति व्याख्यान माला में अपने उद्बोधन में उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के 2015 के उस निर्णय का हवाला दिया, जिसमें राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग से सम्बन्धित संविधान संशोधन को रद्द कर दिया था। उन्होंने कहा कि इस संविधान संशोधन अधिनियम को लोकसभा और राज्य सभा ने सर्वसम्मति से पारित किया था। वह देश की जनता की भावनाओं की एकजुट अभिव्यक्ति थी। फिर भी अदालत ने उसे खारिज कर दिया। उन्होंने मत व्यक्त किया कि संविधान संशोधनों के मामले में अदालतों को दखल से परहेज करना चाहिए।

राष्ट्रीय न्यायिक आयोग से जुड़े संविधान संशोधन को रद्द करने के लिए उच्चतम न्यायालय ने तीन कारण दिए थे। पहला यह कि न्यायिक नियुक्तियों में गैर न्यायिक सदस्यों के होने के कारण न्यायपालिका के लोग अल्पमत में आ जाएंगे, जिससे न्यायिक सर्वोच्चता बरकरार नहीं रह पाएगी। दूसरा यह कि न्यायपालिका की जरूरतों के बारे में न्यायपालिका के पास ही समुचित जानकारी और समझ होती है और अन्य लोगों के आने से उसकी गुणवत्ता पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। तीसरा तथा सबसे महत्त्वपूर्ण यह कि इससे न्यायिक स्वतंत्रता को चोट पहुंचेगी, जो संविधान के मूल ढांचे को प्रभावित करेगा। इसलिए यह असंवैधानिक है। उपराष्ट्रपति के उद्बोधन का केन्द्र बिन्दु यह है कि नीतिगत विषयों पर अंतिम निर्णय लेने का अधिकार अपनी सभी तथाकथित वास्तविक या काल्पनिक कमियों के बावजूद हमारे चुने हुए प्रतिनिघियों के हाथ में हो, जो जनता के प्रति जबाबदेह हैं या संविधान के मूल ढांचे की आड़ में हमारे न्यायाधीशों के हाथ में हो, जो अपनी अन्तरात्मा या ईश्वर के प्रति जवाबदेह हैं। संविधान के मूल ढांचे के सिद्धान्त का प्रतिपादन केशवानन्द भारती के ऐतिहासिक मुकदमे में 1973 में हुआ था।

मूल ढांचे के सिद्धांत केवल अस्पष्ट ही नहीं हैं, अपितु उनमें पारस्परिक अन्तर्विरोध भी हैं। इनकी कोई प्रामाणिक सूची नहीं बनाई जा सकती। इसलिए संविधान संशोधन की अन्तिमता पर प्रश्नचिह्न लगा रहेगा। ऐसा संभव है कि कोई संशोधन दस साल तक माना जाता रहे और बाद में वह पांच न्यायाधीशों की पीठ के सामाजिक दर्शन के विपरीत हो और उसे निरस्त कर दिया जाए। फिर दस वर्ष के बाद सात न्यायाधीशों की पीठ उसे सही करार दे। यदि मूल ढांचे के अन्तर्विरोधों को अपने स्वाभाविक मुकाम तक पहुंचने दिया जाए, तो भविष्य में संविधान के किसी अनुच्छेद में संशोधन नहीं किया जा सकता, जबकि संविधान तो जीवंत समाज को शासित करने वाले सूत्र वाक्यों का संहिताकरण मात्र है। चूंकि प्रगतिशील समाज की जरूरतें हर समय बदलती रहती हैं तथा उसकी आकांक्षाओं में सतत परिवर्तन होता रहता है। अत: संविधान में उसके मुताबिक संशोधन की भी आवश्यकता पड़ती है। यदि उसमें संशोधन की संभावना को समाप्त कर दिया जाएगा, तो उसमें जड़ता आ जाएगी। वह समाज की अपेक्षाओं के अनुरूप अपने आपको ढालने में असमर्थ रहेगा। जब संविधान में संशोधन के विधि सम्मत रास्ते बंद कर दिए जाएंगे तो आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए जनता दूसरे तरीकों का सहारा लेगी और विद्रोह जैसे विकल्पों को चुनने को बाध्य होगी।

अपनी सभी तथाकथित कमियों के बावजूद जन प्रतिनिधि ही जनता की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता है। प्रजातांत्रिक व्यवस्था में यह जिम्मेदारी उसे ही दी गई है। इसीलिए अपनी जवाबदेही और वफादारी सिद्ध करने के लिए उसे हर पांच साल बाद जनता की अदालत में आना पड़ता है। अत: शासन की नीतियों को निर्धारित करने का स्वाभाविक अधिकार उसी का है। न्यायालय द्वारा सृजित मूल ढांचे जैसे अस्पष्ट और अर्न्तिंर्वंरोधों से ग्रस्त मोहक और लुभावने सिद्धांतों से इसमें बाधा नहीं पहुुंचाई जानी चाहिए। विद्वान न्यायाधीशगण संविधान के महत्त्वपूर्ण स्तंभ हैं, लेकिन हमें इस खुशफहमी में नहीं रहना चाहिए कि किसी देश की व्यवस्था को केवल न्यायाधीश ही बचा सकते हैं।

एक बार ऐसा प्रयास 1963 में हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान में किया जा चुका है। वहां के सुप्रीम कोर्ट ने फजल उल कादिर चौधरी बनाम मुहम्मद अब्दुल हक के मुकदमे में सरकार को निर्देश दिया था कि संविधान के प्रजातांत्रिक स्वरूप को नहीं बदला जाना चाहिए। इस निर्देश का किस सीमा तक पालन हुआ यह दुनिया के सामने है। देश के संविधान और उसकी प्रजातांत्रिक परंपराएं वहां की जनता के बल पर जीवित रहती हैं। उसकी सोच और मानसिकता ही संविधान की सबसे बड़ी रक्षक होती है। जब हम संविधान के किसी संशोधन से सहमत नहीं हों, तो उसे न्यायालय में ले जाने के बजाय जनता की अदालत में ले जाना चाहिए। आज जब उपराष्ट्रपति ने एक बहस की शुरुआत की है, तो संविधान के मूल ढांचे के सिद्धांत के गुण-दोष पर भी विस्तार से चर्चा होनी चाहिए।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *