गठबंधन बनते जा रहे हैं राजनीति की प्रयोगशाला
हो सकता है मैं आपके विचारों से सहमत न हो पाऊं फिर भी विचार प्रकट करने के आपके अधिकारों की रक्षा करूंगा …
सुर्य देव के उत्तरायण होते ही राजनीतिक दलों की सरगर्मियां भी नए मोड़ पर आने लगी हैं। खास तौर से अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव की तैयारियों को लेकर। बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती ने आगामी चुनावों में अकेले लड़ने का ऐलान कर पार्टी की रणनीति साफ कर दी है, तो भारतीय जनता पार्टी भी दिल्ली में अपनी भावी चुनावी रणनीति को धार देने में जुट गई है। वहीं कांग्रेस ने अपने नेता राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के समापन पर 30 जनवरी को विपक्षी दलों को आमंत्रण देकर नए सिरे से विपक्षी एकता की ताकत आंकने का पासा फेंका है। इतना ही नहीं, दूसरे छोटे-बड़े राजनीतिक दल भी अपने सियासी फायदे के लिए गठजोड़ की राजनीति के गुणा भाग में व्यस्त हो गए हैं।
चुनाव के मौकों पर नए समीकरणों के साथ गठबंधन की बातों से इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन, अब तक का अनुभव तो यही बताता है कि इन समीकरणों के पीछे विचारधारा का जोड़ कम और राजनीतिक फायदे का तोड़ अधिक नजर आता है। वर्ष 1977 के बाद से गठजोड़ की राजनीति का गवाह रहे देश ने कई समीकरण बनते-बिगड़ते देखे हैं। कभी भाजपा का चौधरी चरण सिंह से गठजोड़, तो कभी कांग्रेस को रोकने के लिए वीपी सिंह के नेतृत्व में भाजपा और वाम दलों का परोक्ष रूप से हाथ मिलाना। भाजपा ने उत्तर प्रदेश में बसपा के साथ मिलाकर सरकार बनाई और जम्मू-कश्मीर में महबूबा मुफ्ती के साथ मिलकर भी सरकार चलाई। पिछले लोकसभा चुुनाव में शिवसेना, जनता दल-यू और अकाली दल के साथ मिलकर चुनाव लड़ी भाजपा बदले समीकरणों में अगला चुनाव इनके खिलाफ लड़ सकती है। लेकिन, चिंता इस बात की है ऐसे बनते-बिगड़ते समीकरणों का सीधा मकसद विचारधारा का आधार नहीं, बल्कि सत्ता में भागीदारी करना भर रह गया है। कांग्रेस ने 30 जनवरी की श्रीनगर रैली के लिए कुछ विपक्षी दलों को आमंत्रण नहीं भेजा है। न चंद्रशेखर राव की बीआरएस को बुलाया और न वाइएसआर कांग्रेस के जगनमोहन रेड्डी को। कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी से भी किनारा किया है, तो एआइएमआइएम और असम की एआइयूडीएफ से भी दूरी बनाई है।
देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस की इस रैली में कितने दल भाग लेते हैं। क्या सपा, बसपा और वाम दल कांग्रेस से मंच साझा करेंगे? और ऐसा किया तो क्या भाजपा को रोकने के लिए वे साझा उम्मीदवार उतारेंगे? यह सवाल इसलिए, क्योंकि राजनीति की प्रयोगशाला में गठबंधन के प्रयोग विचारधारा को ताक में रखने के कारण ही विफल होते रहे हैं।