अगर बच्चों को सोशलाइज करके अच्छा कर रहे हैं तो ज्यादा परेशान न हो
शुुक्रवार को मैं कोविड के बाद राजस्थान में अपने पहले पब्लिक इवेंट में गया। इसे दैनिक भास्कर ने आयोजित किया था। पिंक सिटी जयपुर का महाराणा प्रताप ऑडिटोरियम खचाखच भरा था। ढाई घंटे चले कार्यक्रम में मैंने पाया कि श्रोताओं में कुछ महिलाएं परेशान थीं और मेरी बातों पर ध्यान नहीं दे पा रही थीं। उन सभी में एक बात समान थी कि उनके साथ पांच से दस साल की उम्र के बच्चे थे।
वे अपने आईपैड या मोबाइल पर खेल रहे थे और मेरी बातों पर ध्यान नहीं दे रहे थे। इससे उनकी मांएं थोड़ा बुरा महसूस कर रही थीं कि अगर मैंने उन्हें गैजेट्स पर खेलते देख लिया तो क्या सोचूंगा। मैंने ब्लाइंड गेम खेलने का निर्णय लिया और उनकी तरफ देखना बंद कर दिया। धीरे-धीरे वे बच्चों को गेम्स खेलने देने लगीं और इवेंट का आनंद लेने लगीं।
महामारी खत्म होने के बाद हम वयस्कों तो रूटीन में लौट आए, वहीं बच्चों के लिए ये मुश्किल रहा। कोविड के समय उन्होंने टीवी-गैजेट्स पर बहुत समय बिताया था। इससे अब वे भावनात्मक या व्यवहारगत समस्याओं से जूझ रहे हैं। इसमें शक नहीं कि कोविड के कारण बनी सामाजिक-अलगाव की स्थिति में बच्चों के बढ़े हुए स्क्रीन-टाइम का उनके विकास पर असर पड़ा है।
पांच-छह साल के बच्चों को यही लगता है कि दुनिया लोगों के बजाय गैजेट्स के इर्द-गिर्द घूमती है। आइसोलेशन में उनका सामान्य सामाजिक जीवन समाप्त हो गया था। दोस्ती की उनकी क्षमता कमजोर पड़ गई है। वे अपनी दुनिया में रहना पसंद करते हैं और चाहते हैं कि उन्हें छेड़ा न जाए।
उन्हें लगता है कि पैरेंट्स को डिस्टर्ब नहीं करना और मोबाइल में लगे रहना अच्छा व्यवहार है और वे इसके लिए सराहना भी चाहते हैं। वास्तव में ऑडिटोरियम में जो बच्चे गैजेट्स में व्यस्त थे, वे मांओं को अपरोक्ष रूप से कह रहे थे कि इस तरह हम आपको परेशान नहीं कर रहे।
यह हमारे एकल परिवारों की सबसे बड़ी समस्या बन गई है। चूंकि परिवार में दो ही वयस्क थे और वे बच्चे की सामाजिक क्षमताओं से ज्यादा महत्व उसके परीक्षा में अंकों को देते थे, इसलिए बच्चे गैजेट्स पर समय बिताने लगे। ऐसे में हमें समझना होगा कि बच्चों में आया बदलाव बीमारी नहीं है, जिसके लिए इलाज कराना पड़े।
यह सामाजिकीकरण की समस्या है और परिजनों से निरंतर बात करके इससे उबरा जा सकता है। मैंने अप्रत्यक्ष रूप से ये कहते हुए उन मांओं को संकेत दिया कि आप बच्चों को विभिन्न स्थानों पर ले जाकर जो अनुभव कराएंगे, वह उन्हें दशकों बाद भी याद रहेगा, लेकिन दिए गिफ्ट्स कम ही याद रहेंगे।
कल इसी कॉलम में मैंने यूकेजी की बच्ची के बारे में बताया था, जो फेल हो गई थी। ऐसा शायद इसलिए हो सकता है कि क्योंकि जब महामारी शुरू हुई, तब वह दो साल की थी। चार साल की उम्र में वह स्कूल गई, लेकिन वहां तालमेल बैठाने के लिए उसके पास जरूरी सामाजिक कौशल नहीं था। इस कारण एक नॉन-मूविंग ऑब्जेक्ट (शायद उसकी टीचर, जो स्क्रीन के दृश्यों की तरह मूविंग नहीं थीं) पर ध्यान केंद्रित करने की उसकी क्षमता कम थी।
उसके जैसे बच्चे शायद वर्चुअल दुनिया को ही वास्तविकता समझते हैं। ऐसे में बेहतर होगा कि उन्हें ऐसे लोगों के साथ समय बिताने का मौका दें, जो गैजेट्स यूज नहीं कर रहे हैं और धीरे-धीरे स्क्रीन-टाइम कम करें। वे यकीनन खुद को इस नई सच्चाई के साथ समायोजित कर सकेंगे।
फंडा यह है कि अगर बच्चों को सोशलाइज करके अच्छा कर रहे हैं, लेकिन उनका सामाजिक व्यवहार अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं तो ज्यादा परेशान न हों। इससे सिर्फ आपका तनाव बढ़ेगा और उनका व्यवहार खराब होगा। अगर आप धैर्यवान हैं तो बच्चे और तेजी से सीखते हैं।