अपनी भाषा के मान से ही राष्ट्र का उत्थान
अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस: आत्मनिर्भर भारत के लिए आत्मविश्वास के साथ अपनानी होंगी अपनी भाषाएं-बोलियां
राष्ट्रों के विकास की गाथा इस बात की गवाही देती है कि जहां अपनी भाषा में पढ़ाई, प्रशासन या रोजाना के कामकाज होते हैं वे समाज बहुत तेजी से आगे बढ़ते गए हैं और उन देशों और समाजों ने विज्ञान, कला, साहित्य व संगीत सभी क्षेत्रों में आसानी से ऊंचाइयों को छुआ
यूनेस्को द्वारा घोषित अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर मुद्दत के बाद देश में इस बारे में अच्छी खबरें सुनाई दे रही हैं। सबसे अच्छी खबर यही कि पूरे देश के प्रशासन के लिए अधिकारियों का चुनाव करने वाले संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) में इस बार अपेक्षाकृत ज्यादा नौजवानों ने साक्षात्कार आदि में मातृभाषा यानी हिंदी को चुना है। यहां प्रश्न हार और जीत का नहीं है, लेकिन एक स्वतंत्र राष्ट्र का प्रशासन उस स्वतंत्र राष्ट्र की भारतीय भाषाओं में चलाना उस आजादी को बचाने और बेहतर करने के लिए भी जरूरी है। ऐसे कई मोर्चों पर हम कुछ कदम आगे बढ़े हैं, जैसे इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए छह भारतीय भाषाएं। अलग-अलग राज्यों के कई कॉलेज इसके लिए आगे आए हैं। मेडिकल की पढ़ाई का पाठ्यक्रम अपनी भाषाओं में उपलब्ध कराने का काम भी चल रहा है।
केंद्रीय विश्वविद्यालय के लिए प्रवेश परीक्षा भी 13 भाषाओं में शुरू हो चुकी है और इसी तरह मेडिकल की नीट परीक्षा भी। सुप्रीम कोर्ट के लगभग 1000 महत्त्वपूर्ण निर्णय भारतीय भाषाओं में अनूदित हो चुके हैं और नई शिक्षा नीति में प्रारंभिक शिक्षा, संभव हो तो स्कूली शिक्षा भी, मातृभाषा में आगे बढ़ाने की कोशिश की जा रही है। ये सभी कोशिशें तभी सिरे चढ़ेंगी जब पूरा समाज अपनी भाषा में पढ़ने-पढ़ाने और प्रशासन के महत्त्व को समझे। वैसे भी, क्या लोक की भाषा की भागीदारी के बिना लोकतंत्र संभव है?
दुनियाभर के जीवों के बीच मनुष्य ही वह प्राणी है, जिसके पास अपनी भाषा होती है। लाखों वर्षों में सैकड़ों देशों और उनके समाजों में हजारों भाषाओं के विविध रूप हैं। हर भाषा के एक-एक शब्द को बनने-संवरने में हजारों साल लगते हैं और तभी वह उस राष्ट्र की चेतना का हिस्सा बनता है। इसे बाहरी दबावों से खत्म नहीं किया जा सकता और यदि ऐसी कोशिश होती है तो राष्ट्र और समाज बिखर जाते हैं। पाकिस्तान और बांग्लादेश के उदाहरण सामने हैं। पाकिस्तान ने बांग्लादेश पर उर्दू भाषा थोपने की कोशिश की और अंजाम सामने है। आजादी के तुरंत बाद 1952 में बांग्लादेश के ढाका विश्वविद्यालय में पराई भाषा थोपने के खिलाफ विद्रोह हुआ। सैकड़ों नौजवान शहीद हुए पर यह जंग जारी रही। 1971 में भाषा के मुद्दे पर ही बांग्लादेश का जन्म हुआ। अंतत: वर्ष 1999 में यूनेस्को ने दुनिया भर में अपनी-अपनी भाषाओं के प्रति लगाव पैदा करने और उनके महत्त्व को बताने के लिए मातृभाषा दिवस शुरू किया।
राष्ट्रों के विकास की गाथा इस बात की गवाही देती है कि जहां अपनी भाषा में पढ़ाई, प्रशासन या रोजाना के कामकाज होते हैं वे समाज बहुत तेजी से आगे बढ़ते गए, वे समाज विज्ञान, कला, साहित्य व संगीत सभी क्षेत्रों में आसानी से ऊंचाइयों तक पहुंचे। पर जिन समाजों या देशों को दूसरे देशों ने गुलाम बनाया और अपनी भाषा थोपी, वे विकास की दौड़ में बहुत पीछे छूट गए। भारत समेत तीसरी दुनिया के सभी देश इस गुलामी के शिकार हुए और उनमें अंग्रेजी का वर्चस्व अब भी बना हुआ है। अंग्रेजी के दबाव में भारतीय बच्चों की रचनात्मकता गायब होती जा रही है। शिक्षा में आज जो बुराइयां हैं, उनमें 90 प्रतिशत अंग्रेजी थोपने के कारण हैं। क्या जबरन विदेशी भाषा में पढ़ाना मानवाधिकारों का उल्लंघन नहीं है?
महात्मा गांधी, प्रेमचंद, रवींद्र नाथ टैगोर आदि को आजादी के संघर्ष के दिनों में ही एहसास हो गया था कि अंग्रेजी आजाद भारत की भाषा नहीं हो सकती। आजाद भारत की भाषा ऐसी हिंदुस्तानी होगी, जिसमें हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी, मराठी, राजस्थानी यानी सभी भाषाओं व बोलियों के शब्द होंगे – ‘भाषा बहता नीर’ की तर्ज पर। महात्मा गांधी तो ‘अपनी भाषा’ के इतने प्रबल पक्षधर थे कि पूरी पाश्चात्य संस्कृति को नकारने में उन्हें कोई गुरेज नहीं था। उन्होंने बार-बार कहा कि मेरी पढ़ाई के 10 वर्ष अंग्रेजी सीखने में चले गए और ऐसा ही देश की सारी पीढ़ियों के साथ हो रहा है।
नई शिक्षा नीति में मातृभाषा के महत्त्व को रेखांकित तो जरूर किया गया है पर पूर्ण निष्ठा और ईमानदारी के साथ अमल करना अभी बाकी है। देश का एक संभ्रांत वर्ग अपने स्वार्थ के लिए लगातार अंग्रेजी को कायम रखने में लगा हुआ है और नासमझ राजनेता भी वोट बैंक के दबाव में चुप्पी साधे हुए हैं। हम अपनी भाषा में जिस सहजता से सोच सकते हैं, रचनात्मकता को समृद्ध कर सकते हैं, वह पराई भाषा में संभव नहीं। अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर हमें यही सीखने की जरूरत है कि आत्मनिर्भर भारत के लक्ष्य के लिए अपनी भाषा-बोलियों में आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ने की जरूरत है। आइए, हम सब मिलकर बिना दूसरों की भाषा से नफरत किए अपनी भाषाओं का सम्मान करें और इन्हें शिक्षा व रोजमर्रा के कामकाज के लिए अपनाएं। अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस का उद्देश्य भी भाषा के माध्यम से लोगों को जोड़ना है, तोड़ना नहीं।