भारत में हमें अपनी राष्ट्रीय संपत्तियों की रक्षा करने की मिलकर शपथ लेनी होगी

इस शनिवार सुबह उस ट्रेन से वो मेरी पहली यात्रा थी। एयरोडायनेमिकली डिजाइन बिना इंजिन की ट्रेन में चढ़ने से पहले मैं इसके साथ सेल्फी लेने से खुद को रोक नहीं सका। पर बाद में एक कारण से हटा दी। मैं सुबह 5.30 बजे एग्जीक्यूटिव क्लास की विंडो सीट पर बैठा, तो परिचारक ने पानी बोतल खूबसूरत बॉटल होल्डर में लाकर रखी और यात्रियों को पसंद का अखबार उठाने दिया।

विमान जैसी सीट पर बैठकर मैंने अखबार पढ़ना शुरू किया, तभी घोषणा हुई कि डोर बंद हो रहे हैं। मैंने घड़ी देखी, 6 बजने में 15 सेकंड थे और मुंबई सेंट्रल-गांधीनगर वंदे भारत ट्रेन अकल्पनीय गति से समय पर प्लेटफॉर्म से निकल गई। इस ट्रेन की खूबसूरती है कि ये चंद सेकंड में गति पकड़ सकती है और यात्रियों को बिना किसी झटके के धीमी हो सकती है। मेरे अंदर गर्व की भावना थी।

मैंने इंटीग्रल कोच फैक्ट्री चेन्नई के पूर्व महाप्रबंधक सुधांशु मणि के बारे में पढ़ा व वीडियोज देखे हैं कि कैसे उनकी टीम ने ‘ट्रेन 18’ ठीक 18 महीने में ऐसे समय बना दी, जब किसी को भरोसा नहीं था कि भारत खुद से विश्वस्तरीय ट्रेन बना सकता है, वो भी विदेशी कंपनी से टेक्नोलॉजी लिए बिना।

यात्रा जारी थी और मेरी निगाह लगातार टीवी स्क्रीन पर थी। वडोदरा तक की 4.5 घंटे की यात्रा में 3.5 घंटे से ज्यादा तक दो विज्ञापन रिपीट होते रहे। पहले विज्ञापन में चार पात्र थे। इसमें दिखाया कि एक नवयुवती मंुबई सेंट्रल स्टेशन पर उतरते ही बोतल से हाथ धोती है और आधी भरी बोतल सड़क पर फेंक देती है। दूसरा आदमी मूंगफली चबा रहा है और उसके छिलके सब जगह फेंक रहा है।

तीसरा आदमी ट्रेन के दरवाजे पर खड़े-खड़े संतरे खा रहा है और छिलके प्लेटफॉर्म पर फेंक रहा है। चौथा नवयुवक खाली बोतल को क्रिकेट बॉल की तरह गेंदबाजी करते हुए रेलवे ट्रैक पर फेंक रहा है। और बाद में कोई आकर उनका कचरा उन्हीं के चेहरे पर फेंककर या उनके लगेज पर थूककर सबक सिखाता है।

असल में उस विज्ञापन का सार यात्रियों को यह सिखाना था कि अपना व्यवहार संयमित रखें और स्टेशन साफ रखें। दूसरा विज्ञापन तो और भी अजीब था। एक पिता-पुत्री प्लेटफॉर्म पर बैठे ट्रेन का इंतजार कर रहे हैं और पिता प्लेटफॉर्म पर थूक देता है। फिर पानी की बोतल और कुछ स्नैक्स खरीदने जाता है और फिर कुल्ला करके प्लेटफॉर्म पर थूकता है।

जैसे ही वो ट्रेन में बैठते हैं, खाली हो चुके स्नैक्स का रैपर ट्रैक पर फेंक देते हैं। पिता की गंदगी फैलाती हर हरकत पर कैमरा बेटी को फोकस करता है, जो पिता की हरकत से शर्मिंदा है और फिर उन्हें सलाह देती है कि कैसे स्टेशन और ट्रेन को साफ रखें।

अब मेरा सवाल है

अपनी ही संपत्तियों की देखभाल के लिए क्या हमें इतनी लंबी सीख की जरूरत है? यह साफ दर्शाता है कि सार्वजनिक जगहों पर स्वच्छता का पाठ पढ़ाने में रेलवे को खासी जद्दोजहद करनी पड़ रही है। रेलवे को डर है कि कुछ लोग इसे नुकसान भी पहुंचा सकते हैं, इसलिए उन्हें लगातार विज्ञापन करना पड़ रहा है।

इसी वजह से मैंने वह तस्वीर डिलीट कर दी थी, इसके सामने का हिस्सा बुरी तरह क्षतिग्रस्त था और बेहूदा तरीके से उसे प्लास्टर किया गया था, जिससे इसकी खूबसूरती खत्म हो गई थी। अगर हमें पता है कि विमान का यूज कैसे करें, हम उसी तरह ट्रेन का इस्तेमाल करना क्यों नहीं सीख सकते? याद रखिए ये ट्रेन्स जमीन पर विमान ही हैं!

 …….भारत में हमें अपनी राष्ट्रीय संपत्तियों की रक्षा करने की मिलकर शपथ लेनी होगी और ये इसलिए नहीं कि ये हमारे टैक्स के पैसे से बनी हैं, बल्कि इसलिए कि ये संपत्तियां हमारी अंतरराष्ट्रीय छवि बनाती हैं। हमें अपनी बेहतर छवि बनाने और इसे बचाने की जरूरत है।

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