स्त्रियों को पब्लिक-स्पेस में जगह बनाकर अपने अस्तित्व को नॉर्मलाइज़ करते रहना होगा
उसने हमारे समाज के दोहरे मानदंडों और मोरल पोलिसिंग की प्रवृत्ति का अपने पक्ष में इस्तेमाल कर लिया और थोड़ी देर के लिए सेलेब्रिटी स्टेटस हासिल कर लिया। उसने हमारे यहां मौजूद मीडियोक्रिटी की उस संस्कृति का दोहन किया, जिसमें कोई केवल कम कपड़े पहनकर भी प्रसिद्ध हो सकता है। और ये दो मिनट वाला ट्रेंड रुकने वाला नहीं है।
जब इतना भर करके ही प्रसिद्धि मिल जाती हो तो फिर प्रतिभा, मेहनत, गुण आदि को कौन पूछे? लेकिन इसके साथ ही कुछ और पहलू भी जुड़े हुए हैं। भारत में अंगप्रदर्शन करने वाले कपड़ों को यौन-हिंसा के साथ जोड़कर देखा जाता है।
इसलिए जब उस लड़की के वायरल वीडियो पर बड़ा शोर मचा तो इसके साथ ही नकली चिंताओं की आड़ में पुरानी मानसिकता भी उभरकर सामने आ गई। लेकिन इसकी कोई जरूरत नहीं थी, क्योंकि इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि आपने शॉर्ट्स पहनी हैं या सलवार, अगर आप एक लड़की हैं तो भारत में कभी न कभी आपको यौन-प्रताड़ना का शिकार होना ही पड़ता है।
ऐसे में कपड़ों से ज्यादा यौन-प्रताड़ना करने वाले की नीयत का महत्व होता है। यही कारण है कि हमारे देश में किसी भी उम्र की लड़कियां और स्त्रियां दुष्कर्म से सुरक्षित नहीं हैं। तब समाज के लिए ज्यादा चिंता की बात क्या होनी चाहिए? अपनी पसंद के कपड़े पहनने वाली कोई लड़की या उसके साथ बदनीयत से दुर्व्यवहार करने वाला कोई पुरुष?
यही कारण है कि महिलाओं को यह हिदायत देने भर से काम नहीं चलेगा कि वे शालीन समझे जाने वाले कपड़े पहनें, इसके पीछे छिपी हिंसा की जो गहरी प्रवृत्ति है, उसकी पड़ताल करने की जरूरत है। इसके लिए हमें पुरुषों को यह बताना होगा कि अगर वे किसी स्त्री को ऐसी पोशाक में देखते हैं, जिसे वे अनुचित समझते हैं, तब भी वे उसके प्रति बदनीयत का परिचय न दें।
आखिर यह वही देश है, जहां स्त्री के शरीर का ऑब्जेक्टिफिकेशन करने वाली फिल्में बनाई जाती हैं, जहां दुनिया के तीसरे सबसे अधिक पोर्न फिल्मों के दर्शक हैं और जहां रील्स में स्त्रियों के शरीर को सेलिब्रेट करने की वृत्ति गहराई तक पैठी हुई है। फिर वास्तविक जीवन में किसी लड़की को कम कपड़ों में देखकर जुगुप्सा और उपहास की भावना किन लोगों के मन में जाग जाती है?
वास्तव में इसके पीछे एक तरह का ग्लानि-बोध भी काम करता है। सलाह-मशविरा देने की आदतें केवल स्त्रियों पर आजमाई जाती हैं। हमारे यहां आज भी इस पुरातनपंथी विचार को स्वीकार किया जाता है कि ‘बॉय्ज़ विल बी बॉय्ज़’ और पुरुषों के लिए स्वयं पर नियंत्रण रख पाना सम्भव नहीं है!
इसका एक अर्थ यह भी है कि हम एक देश के रूप में स्त्रियों को सुरक्षित महसूस कराने में विफल रहे हैं। क्या हमारा समाज अपनी ही प्रणालीगत विफलताओं को प्रचारित करना चाहता है? ऐसा क्यों है कि किसी स्त्री के जिस कृत्य को किसी दूसरे देश में साधारण और रोजमर्रा का माना जाता है, उसे ही हमारे यहां दु:साहसपूर्ण करार दे दिया जाता है?
यह कहने वाले भी कम नहीं हैं कि स्त्रियां वैसा करके स्वयं ही अपने साथ दुष्कर्म को निमंत्रित करती हैं। यही कारण है कि अब ऐसी लड़कियां उभरकर सामने आ गई हैं, जो पितृसत्ता की मानसिक रूढ़ियों का अपने पक्ष में इस्तेमाल करना सीख गई हैं। लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि हमें चीजों को बदलने की क्षमता दी गई है, उन्हें जस की तस बनाए रखने की नहीं। इसलिए स्त्रियों को पब्लिक-स्पेस में अपनी जगह बनाते रहना होगी, और अगर वे वैसा बड़ी संख्या में करेंगी तो वे अपने अस्तित्व को नॉर्मलाइज़ ही कर रही होंगी।
ऐसा क्यों है कि किसी स्त्री के जिस कृत्य को दूसरे देशों में साधारण माना जाता है, उसे ही हमारे यहां दु:साहसपूर्ण करार दे दिया जाता है? क्या कारण है कि कोई कम कपड़े भर पहनकर ही प्रसिद्ध हो सकता है?
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)