समान नागरिक संहिता पर सच को जानना जरूरी है
दूसरी ओर, आम मुसलमान की नजर में यह उसके मजहब के खिलाफ साजिश है। उन्हें लगता है यह लागू हो गया तो उन्हें भी अग्नि के फेरे लेकर निकाह करना होगा, लाशों को दफनाने की जगह जलाना होगा! इतना ही नहीं, हो सकता है दाढ़ी रखने और कुर्ता-पायजामा पहनने पर भी पाबंदी हो जाए!
गलतफहमियों के इस दौर में सच को समझना हमारा हक भी है और जिम्मेदारी भी। यूसीसी का यह मतलब नहीं है कि सब धर्मों की रस्में, रीति-रिवाज और पहनावे एक जैसे हो जाएंगे। इसका मतलब सिर्फ यह है कि जिस तरह आपराधिक मामलों (जैसे चोरी, डकैती, दुष्कर्म, हत्या) में सभी पर एक कानून लागू होता है, वैसे ही सिविल मामलों (जैसे विवाह, तलाक, गुजारा भत्ता, गोद लेना, संपत्ति का बंटवारा आदि) में भी सभी के लिए समान कानून होंगे।
मुगल काल तक हिंदुओं, मुसलमानों तथा शेष समुदायों के लिए अलग-अलग कानून थे। अंग्रेजों ने 1861 में भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) और 1882 में अपराध प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) बनाकर आपराधिक कानूनों के मामले में सभी को बराबर बना दिया था। विधवा पुनर्विवाह और बाल-विवाह निषेध के लिए भी कानून बनाए, लेकिन इन मुद्दों की नजाकत को देखते हुए ज्यादा हस्तक्षेप नहीं किया।
आजादी की लड़ाई के दौरान हाशिए पर खड़े वर्गों ने बराबरी की मांग बुलंद करनी शुरू की। डॉ. आम्बेडकर ने यूसीसी का पुरजोर समर्थन किया ताकि स्त्रियों और दलितों को बराबरी का हक मिले। संविधान सभा में इस मुद्दे पर हंगामेदार बहस हुई।
अंततः सहमति बनी कि इसे संविधान के भाग-4 अर्थात राज्य नीति के निदेशक तत्त्वों (डीपीएसपी) में रखा जाए। गौरतलब है कि भाग-4 में अनुच्छेद 36 से 51 तक का हिस्सा शामिल है। संविधान की भाषा में कहें तो यह भाग शासन के लिए आधारभूत महत्त्व का है किंतु इसमें लिखी बातों को अदालत से लागू नहीं कराया जा सकता।
इसी भाग में अनुच्छेद-44 है, जो कहता है कि राज्य समान नागरिक संहिता के लिए प्रयास करेगा। यूसीसी का उद्देश्य है कि कोई भी नागरिक अपने धर्म या समुदाय के कानूनों की आड़ में शोषण या गैर-बराबरी का शिकार न हो। इस उद्देश्य को हासिल करने के दो तरीके थे। पहला यह कि एक झटके में सारे धर्मों के निजी कानूनों (पर्सनल लॉज़) को खारिज करते हुए सभी के लिए समान कानून बना दिया जाए।
यह रास्ता उस समय के माहौल में खासा मुश्किल था। दूसरा रास्ता यह था कि शुरुआत में सभी धर्मों के निजी कानूनों में ही ऐसे संशोधन कर दिए जाएं कि वे प्रगतिशील व समतामूलक हो जाएं। उदाहरण के लिए, हिंदू समाज के कानूनों में संशोधन के लिए ‘हिंदू कोड बिल’ बनाया गया था।
आजादी के एकदम बाद बनी अंतरिम सरकार के सर्वदलीय मंत्रिमंडल में डॉ. आम्बेडकर कानून मंत्री थे। उन्होंने पूरी ताकत लगाई कि हिंदू कोड बिल पारित हो जाए, पर नेहरू जी का तर्क था कि इतना बड़ा कदम जनता द्वारा चुनी सरकार को ही उठाना चाहिए।
उन्होंने 1951 के पहले आम चुनावों में यह मुद्दा जनता के सामने रखा और चुनाव जीतने के बाद 1955-56 में हिंदू कोड बिल को 4 कानूनों के रूप में पारित कराया। हिंदू मैरिज एक्ट (1955), हिंदू सक्सेशन एक्ट (1956) भी उन्हीं में शामिल थे। उस समय हिंदू समाज के कुछ रूढ़िवादी नेताओं ने इनका विरोध किया पर नेहरू जी अडिग रहे।
किंतु नेहरू जी की सरकार ने जिस शिद्दत से हिंदू समाज के लिए प्रगतिशील कानून पारित किए, वैसी ताकत मुस्लिम समाज के मामले में नहीं दिखाई। शरीयत एप्लिकेशन एक्ट बरकरार रहा, जो चार निकाह, तीन तलाक, हलाला जैसी प्रथाओं को वैध बनाता था।
शाह बानो (1985) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक प्रगतिशील निर्णय दिया किंतु राजीव गांधी की सरकार ने ‘मुस्लिम वीमेन (प्रोटेक्शन) एक्ट’ (1986) पारित करके उसे शून्य कर दिया। ऐसा नहीं है कि यूसीसी के विषय में अभी तक कुछ नहीं हुआ है।
सिविल मामलों पर कई ऐसे कानून बने हैं, जो सभी धर्मों के लिए समान हैं, जैसे 1954 का विशेष विवाह अधिनियम, 1961 का दहेज प्रतिषेध अधिनियम और 2005 का घरेलू हिंसा अधिनियम इत्यादि। सुप्रीम कोर्ट के कुछ ऐतिहासिक निर्णयों ने भी काफी हद तक समान कानून लागू किए हैं।
समय आ गया है कि हम दुनिया के बाकी सभ्य व विकसित समाजों की तरह अपने देश में भी यूसीसी लाएं। सुप्रीम कोर्ट कई बार इसके पक्ष में सलाह दे चुका है। सरकार दृढ़ इच्छाशक्ति दिखा रही है, लगता है अब यह हकीकत बन जाएगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)