गठबंधन की राजनीति का नया रूप बना सत्ता का साझा कार्यक्रम ..!

त्रिशंकु सदन में सत्ता के जुगाड़ की बजाय बने स्थिर सरकार और सुशासन का आधार …

विडम्बना इसी बात की है कि गठबंधन बनाते समय तो जोर चेहरे पर रहता है, चाल और चरित्र पर नहीं। कई बार जनता को दिखाने के लिए साझा न्यूनतम कार्यक्रम भी बनाया जाता है, पर वास्तव में तो साझा कार्यक्रम सत्ता की बंदरबांट ही होता है।

चु नाव पूर्व गठबंधन के बजाय जब चुनाव बाद के गठबंधन होने लगें तो समझ लेना चाहिए कि यह गठबंधन सत्ता के लिए है। देश की राजनीति में राजनीतिक दलों का गठबंधन करना कोई नई बात है भी नहीं। पर आम तौर पर इसकी जरूरत तभी पड़ती है जब संसद या विधानसभा में किसी एक दल या चुनाव पूर्व के गठबंधन को स्पष्ट बहुमत नहीं मिल पाता। पिछले वर्षों में जो उदाहरण सामने आए हैं उनसे साफ लगता है कि अब जो गठबंधन बनते जा रहे हैं वे समान विचारधारा पर आधारित नहीं, बल्कि येन-केन-प्रकारेण सत्ता तक पहुंचने के लिए ही होते हैं। झारखंड में तो एक निर्दलीय विधायक को ही मुख्यमंत्री बनवा देना इस सबसे बडे़ लोकतंत्र के राजनीतिक दलों के चरित्र पर ऐसा सवालिया निशान है जिसका जवाब आज तक किसी के पास नहीं है। क्योंकि सत्ता के लिए गठबंधन का पाला बदलने में माहिर दल और नेता कम होने के बजाय बढ़ते ही जा रहे हैं।

महाराष्ट्र के ताजा राजनीतिक घटनाक्रम ने गठबंधन राजनीति की विद्रूपताओं को फिर बेनकाब कर दिया है। जिस राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) को भाजपा के शीर्ष नेता नेचुरली करप्ट पार्टी करार देते रहे, उसी के नौ बागी विधायकों को उप मुख्यमंत्री समेत मंत्री पद से महाराष्ट्र में आनन-फानन में नवाज दिया गया। जिन अजित पवार पर भाजपा नेता घोटालों के आरोप सदन से लेकर सड़क तक लगाते रहे, उन्हें ही एकनाथ शिंदे सरकार में उप मुख्यमंत्री बना दिया गया। भ्रष्टाचार के ही आरोप में दो साल जेल काट आए छगन भुजबल और जमानत पर चल रहे हसन मुशरिफ अब माननीय मंत्री बन गए हैं। जिन चाचा शरद पवार की उंगली पकड़ कर राजनीति में आये थे, अब उन्हें 83 साल की उम्र में घर बैठने की सलाह देने वाले अजित पार्टी पर ही काबिज होते दिख रहे हैं। ऐसा उन्होंने पहली बार नहीं किया। 2019 के विधानसभा चुनाव के बाद जब मुख्यमंत्री पद को ले कर भाजपा-शिव सेना की राहें अलग हो गई थीं, तब भी अजित ने एनसीपी में विभाजन का दावा करते हुए अलसुबहमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के साथ उप मुख्यमंत्री पद की शपथ ले कर सबको चौंका दिया था। तब विभाजन के लिए जरूरी आंकड़ा न जुटा पाने पर अजित के साथ ही देवेंद्र की भी सत्ता से बेआबरू विदाई हुई थी।

यह शरद पवार का बड़ा दिल ही कहा जाएगा कि इसके बावजूद शिव सेना-एनसीपी-कांग्रेस (एमवीए) सरकार में अजित पवार फिर डिप्टी सीएम बनने में कामयाब हो गए। सब जानते हैं कि इस ताजपोशी में शरद पवार की सांसद पुत्री सुप्रिया सुले की भी भूमिका रही, जिसे आगे बढ़ाने को ही अजित पार्टी से बगावत का कारण बता रहे हैं। यह बात और है कि 5 जुलाई की बैठक में शरद गुट से ज्यादा विधायक जुटा कर भी अजित फिलहाल पार्टी विभाजन के लिए जरूरी आंकड़ा हासिल नहीं कर पाए हैं। पर अब परिवारवाद का आरोप लगाते हुए अजित अपने चाचा से सवाल भी कर रहे हैं कि अगर वह उनके पुत्र नहीं हैं तो इसमें उनका क्या दोष है?

परिवारवाद का आरोप शरद पवार पर गलत नहीं है। पर क्या यह सही नहीं है कि खुद अजित भी शरद पवार का भतीजा होने की बदौलत ही महाराष्ट्र की राजनीति में यह मुकाम हासिल कर पाए हैं। पिछले साल ऐसा ही शिव सेना में हुआ था, जब अधिकांश विधायकों ने एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में बगावत कर अपने नेता उद्धव ठाकरे की एमवीए सरकार गिरा कर भाजपा के साथ गठबंधन सरकार बना ली थी। 105 सीटों वाली भाजपा के नेता का उपमुख्यमंत्री और शिव सेना तोड़कर आए 40 विधायकों के नेता का मुख्यमंत्री बनना सत्ता राजनीति की विद्रूपताओं को ही बेनकाब करता है।

अब सवाल यह है कि शिवसेना शिंदे गुट के गठबंधन से 288 सदस्यीय विधानसभा में एनडीए को स्पष्ट से भी ज्यादा 175 विधायकों का बहुमत हासिल होने के बावजूद ऐसे नाटकीय घटनाक्रम की जरूरत भला क्यों पड़ी होगी? अजित पवार उप मुख्यमंत्री बन गए, उनके आठ अन्य साथी भी मंत्री बन गए, पर एनसीपी में इस विभाजन से लोकतंत्र और महाराष्ट्र में कौन-सा हित कैसे सधा? शिंदे प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां आईना दिखाने वाली हैं। फिर भी सत्ता का खेल जारी है। सब कुछ समझें तो पहला गठबंधन समृद्ध आर्थिकी वाले महाराष्ट्र की सत्ता से विरोधियों को बेदखल कर खुद काबिज होने के लिए था, तो अब दूसरा उस सत्ता को बनाए रखने के लिए है। घटनाक्रम व इनके किरदारों से साफ-सुथरी राजनीति का वायदा करने वाली भाजपा पर भी सवाल उठना स्वाभाविक है। शिंदे समेत गुट के 16 विधायकों पर अयोग्यता की तलवार लटकी हुई है, तो विभाजन के लिए जरूरी आंकड़ा जुटाने में नाकाम अजित के गुट को भी उन्हीं परिस्थितियों से गुजरना पड़ेगा।

यह एनडीए का रजत जयंती वर्ष है तो मोदी सरकार को तीसरे कार्यकाल से वंचित करने के लिए अब विपक्ष नया गठबंधन बनाने में जुटा है। कुनबा बढ़ाने की भाजपाई कवायद बताती है कि गठबंधन राजनीति का दौर लंबा चलने वाला है। यह सही समय है कि हम जनता के बीच गठबंधन राजनीति की तेजी से गिरती साख की सुध लें और उसे त्रिशंकु सदन में सत्ता का जुगाड़ के बजाय स्थिर सरकार और सुशासन का आधार बनाएं।

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