आधा मकान, आधा खेत, आधी संपत्ति, आधा देश और आधी संसद !
हमें सबकुछ आधा चाहिए:आधा मकान, आधा खेत, आधी संपत्ति, आधा देश और आधी संसद
यह बात है साल 2008 की। ग्राम पंचायतों की 33 फीसदी सीटों पर महिला आरक्षण लागू हुए 15 साल बीत चुके थे। मर्दों के हुकुम से चलने वाली इस दुनिया में घूंघट के नीचे और पर्दे के पीछे रहने वाली महिलाओं को अचानक अपने गांव की सबसे महत्वपूर्ण प्रशासनिक संस्था का प्रमुख बना दिया गया था। हालांकि दबे मुंह इसकी आलोचना करने वालों की भी कमी नहीं थी, लेकिन सीधे आरक्षण की लानत-मलामत करने की बजाय लोग कहते पाए जाते, ‘आरक्षण से फायदा क्या हुआ। फोटो महिला की लगती है, लेकिन काम तो सारे आदमी ही करता है।’
साल 2008 की जुलाई में उस दिन मध्य प्रदेश की राजधानी ढेर सारी औरतों से गुलजार थी। भोपाल में ग्राम प्रधानों की एक बैठक हो रही थी। राज्य भर से आईं पंचायत सदस्य और ग्राम प्रधान महिलाएं पहली बार राजधानी की सड़कें देख रही थीं। उनमें से बहुतेरी तो ऐसी थीं, जो पहली बार रेलगाड़ी में बैठी थीं। पहली बार अपने गांव से बाहर निकली थीं। पहली बार इतनी बड़ी झील, चौड़ी सड़कों और उन सड़कों पर दनदनाती गाड़ियों को अपनी आंखों से देख अचंभित थीं।
उस दिन वहां उस कार्यक्रम में मौजूद एक पत्रकार ने एक महिला ग्राम प्रधान से पूछा, ‘महिलाओं को आरक्षण मिलने के बाद क्या बदला है?’ उस महिला ने शब्दों में जवाब देने की बजाय पहले सीने तक लंबा घूंघट काढ़ा और फिर एक झटके से घूंघट उठाकर बोली, ‘ये बदला है।’
बैंगनी रंग की सूती साड़ी पहने, माथे तक नारंगी सिंदूर लगाए उस औरत का यूं घूंघट उठाना किसी सिनेमा के दृश्य सरीखा था। उस दृश्य के जादू में बंधी पत्रकार ने दूसरा सवाल पूछा, ‘आप गांव से इतनी दूर अकेली आई हैं। आपको डर नहीं लगता।’
महिला ने अपने झोले में से एक चाकू निकाला और बोली, ‘नहीं मैडम जी, ये है न मेरे पास।’ वो रसोई में सब्जी काटने वाला चाकू था, जो इस वक्त महिला की आत्मरक्षा में तलवार बन गया था। कभी पति की ऊंची आवाज पर भी उसकी जबान लरजती थी। आज उसमें इतना आत्मविश्वास आ गया था कि वह झोले में चाकू रखकर दूर शहर जा सकती थी।
तो 15 सालों में आरक्षण से ये बदला था।
19 सितंबर, 2023 की तारीख भारतीय संसदीय राजनीति के इतिहास में एक ऐतिहासिक दिन था। लोकतंत्र का अगुवा और विश्वगुरु होने का दावा करने वाले इस देश की संसद के इतिहास में इतने लंबे समय तक कोई और बिल नहीं अटका रहा, जितना लंबा इंतजार महिला आरक्षण बिल को करना पड़ा। साल दर साल आता यूएन वुमन का डेटा बताता कि संसदीय राजनीति में महिलाओं की भागीदारी के मामले में पड़ोसी देश पाकिस्तान और बांग्लादेश भी हमसे आगे निकल गए हैं।
हम हरेक क्षेत्र में इन देशों से आगे और बेहतर होने का खम ठोंकते, बस इस सवाल पर कन्नी काट जाते कि हमारे देश की संसद में महिलाएं इतनी कम क्यों हैं। बढ़-बढ़कर भी मामला 13-14 फीसदी से आगे नहीं बढ़ पा रहा था।
भाषणों में तो सबने माना कि यह संख्या बढ़नी चाहिए, लेकिन जैसे ही इस भावना को हकीकत की जमीन पर उतारने के लिए संसद में महिलाओं को रिजर्वेशन देने का सवाल उठता तो सब बगले झांकने लगते।
टर्म्स एंड कंडीशंस अप्लाय की इतनी बड़ी लिस्ट सामने आ जाती कि म्यूचुअल फंड के टर्म्स एंड कंडीशंस अप्लाय के डॉक्यूमेंट छोटे पड़ जाएं।
राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने का यह सवाल संसद में तो पहली बार 45 साल पहले 1974 में उठा था, लेकिन रिजर्वेशन बिल पहली बार 1996 में देवगौड़ा के नेतृत्व वाली यूनाइटेड फ्रंट सरकार लेकर आई।
उसके बाद कम से कम 10 बार यह बिल संसद में पेश किया गया और हर बार चीख-चिल्लाहट, विरोध और हंगामे के बीच लटक गया। कभी किसी ने गुस्से में बिल फाड़ दिया, कभी कोई स्पीकर के पोडियम पर चढ़कर चिल्लाने लगा तो कभी ऐसा भी हुआ कि संसद में जूतमपैजार की नौबत आ गई। शरद यादव ने कहा, ‘इस बिल से सिर्फ परकटी महिलाओं को फायदा होगा।’
19 सितंबर का दिन ऐतिहासिक इस मायने में है कि 27 साल के लंबे इंतजार के बाद आखिरकार यह उम्मीद हकीकत में बदल ही गई।
हालांकि इस बिल के कानून बनने की राह अभी बहुत दूर है। सरकार जिस भाषा में बात कर रही है उससे तो ऐसा लग रहा है कि मानो प्रकाशक ने किताब छापने का वायदा तो कर दिया है, लेकिन जिस कागज पर किताब छापी जाएगी, उस कागज को बनाने के लिए पेड़ काटने से पहले उस जंगल की शिनाख्त हो रही है, जिस जंगल में वो पेड़ है।
इस दिन के लिए हमने 45 साल इंतजार किया है तो थोड़ा इंतजार और सही। इस बिल के आने के साथ ही एक बार फिर वो सारे सवाल सिर उठाने लगे हैं, जो पिछले 20 सालों से मौके-ब-मौके न्यूज चैनलों की प्राइम टाइम बहसों का सबसे फेवरेट टॉपिक रहे हैं।
क्या रिजर्वेशन से महिलाओं को सचमुच फायदा होगा?
2010 में जब राज्यसभा में यह बिल पास हुआ तो करन थापर एक प्राइम टाइम बहस में मनीष तिवारी, सुभाषिनी अली और जोया हसन के साथ बातचीत कर रहे थे। उस बातचीत का केंद्रीय मुद्दा यही था कि महिलाओं को सशक्त बनाना तो ठीक है, लेकिन इसके लिए रिजर्वेशन देने की क्या जरूरत है।
आज यही सवाल न्यूजरूम में बैठे हमारे सहकर्मी भी पूछ रहे हैं, वॉट्सऐप मैसेज में मामाजी भी पूछ रहे हैं और मुहल्ले की चाय की दुकान पर मजमा जमाए मर्द भी। एक तरफ तो औरतें दावा करती हैं कि वो मर्दों से कम नहीं और दूसरी तरफ उन्हें मर्दों के बराबर होने के लिए रिजर्वेशन भी चाहिए।
विरोध और सफाई में पेश तर्कों के तरकश से निकला सबसे मारक तीर ये है कि रिजर्वेशन के बाद भी मौजूदा नेताओं की बीवियां, बहनें, माएं और रिश्तेदार ही संसद में आएंगी। आम महिलाओं को मौका नहीं मिलेगा, जैसाकि पंचायत के संदर्भ में कहा जाता रहा और विडंबना ये है कि यह बात पूरी तरह झूठ भी नहीं है।
सच सिर्फ उतना और वैसा नहीं, जितना और जैसा पेश किया जाता है। सच का एक दूसरा पहलू भी है। सच तो ये है कि एक ब्रिटेन को छोड़कर दुनिया के हर देश ने संसद में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए किसी न किसी रूप में रिजर्वेशन दिया।
1997 में ब्रिटेन में टोनी ब्लेयर की लेबर पार्टी की सरकार में बिना आरक्षण के उस देश के इतिहास में सबसे बड़ी संख्या में महिलाएं चुनकर आईं थीं। उसकी वजह टोनी ब्लेयर का नजरिया, महिलाओं को बड़ी संख्या में मौके देना, पार्टी में शामिल करना, चुनाव मैदान में उतारना वगैरह था। साथ ही उस देश में हमारे देश की तरह अनिगनत पार्टियों वाला नहीं, बल्कि सिर्फ दो प्रमुख पार्टियों वाला पॉलिटिकल सिस्टम था।
इसके अलावा सारे नॉर्डिक देशों (स्वीडन, फिनलैंड, नॉर्वे, डेनमार्क, आइसलैंड), नीदरलैंड, फ्रांस, जर्मनी, स्पेन, रवांडा, क्यूबा की संसद में महिलाओं के लिए पहले एक निश्चत संख्या में सीटें आरक्षित की गईं। राजनीति में औरतों की हस्सेदारी ने जमीन पर उनकी जिंदगी के हालात बदलने में बड़ी भूमिका निभाई।
भारत जैसे देश में, जहां सामाजिक, जातिगत और जेंडर भेदभाव की जड़ें इतनी गहरी हैं, वहां महिला आरक्षण के लिए भी सामाजिक न्याय का ठीक वही तर्क मौजूं है, जो जातिगत आरक्षण के लिए दिया जाता रहा है। बराबरी करेंगे, लेकिन रेस की स्टार्टिंग लाइन बराबर होनी चाहिए। जिस स्त्री को सदियों से ज्ञान, शिक्षा, नौकरी और संपत्ति के अधिकार से वंचित रखा गया, उसे विशेष मौका तो देना पड़ेगा।
दूसरा तर्क यह है कि जाति की तरह देश की सारी महिलाएं अपने आप में एक समूह नहीं हैं। महिलाएं विभिन्न जातियों, धर्मों, समुदायों में बंटी हुई हैं। यह सच है, लेकिन उतनी ही सच ये बात भी है कि सभी जातियों, धर्मों, समुदायों में महिलाओं की सामाजिक स्थिति दोयम दर्जे की ही है। इसी तथ्य के मद्देनजर महिला आरक्षण के भीतर जातिगत आरक्षण का प्रावधान किया गया है।
मुमकिन है कि इन सबके बावजूद आरक्षण से शुरू-शुरू में सिर्फ प्रिविलेज्ड राजनीतिक परिवारों से आने वाली महिलाओं को ही मौका मिले, लेकिन एक लंबे समय में यह आरक्षण उनकी सामाजिक, राजनीतिक स्थिति में परिवर्तनकारी साबित होगा।
इस देश की संसद के भीतर 181 महिलाओं की मौजूदगी से संसद की राजनीति, उसका चरित्र सबकुछ बदलेगा। गैर राजनीतिक परिवारों से आने वाली महिलाओं के लिए भी संसद के दरवाजे खुलेंगे और उसका असर रिसकर जमीन तक पहुंचेगा।
गांव की पंचायत में तो ग्राम प्रधान महिला का पति भी जाकर बैठ जाता है, लेकिन संसद में ऐसा नहीं होगा। जो महिला सांसद चुनी जाएगी, वही सदन में जाएगी। वही बहसों में हिस्सा लेगी, वही सवाल करेगी, उसी की शिरकत होगी।
ये ऐसे ठोस बदलाव हैं, जिसके असर को जमीन तक पहुंचने से रोक पाना बड़े से बड़े ठस सामंत के भी बूते की भी बात नहीं। जैसे भोपाल में उस ग्राम प्रधान औरत ने 2008 में अपना घूंघट उठाकर कहा था- ‘ये बदला है।’ वैसे ही संसद में औरतों का जाना भी एक लंबे समय में बड़े सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव का बायस बनेगा।
फिर औरतें ये सवाल पूछेंगी कि जब हम आबादी का पचास फीसद हैं तो संसद में सिर्फ 33 फीसद क्यों? हमें पूरा आधा चाहिए। आधा मकान, आधा खेत, आधी संपत्ति, आधा देश और आधी संसद।