राजस्थान में कुल वोटर्स का 10 प्रतिशत हैं जाट वोटर्स …
राजस्थान विधानसभा चुनाव में जाट वोटरों को लेकर इस बार कितनी तगड़ी है लड़ाई?
राजस्थान में जाट वोटर्स को लुभाने के लिए बीजेपी और कांग्रेस एड़ी चोटी का जोर लगा रही हैं. दोनों ही पार्टियों ने जाट कैंडिडेट को चुनावी जंग के लिए तैयार कर दिया है.
जहां इस बार के विधानसभा चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस के बीच कड़ी टक्कर है. वहीं कांग्रेस के साथ बीजेपी भी जाट वोटर्स को खुश करने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रही है.
राज्य के 47.6 मिलियन मतदाताओं में से लगभग 10 प्रतिशत जाट हैं और शेखावाटी और मारवाड़ में प्रभावशाली हैं. वो राजनीतिक प्रभाव के लिए राजपूतों, जो 5-6 प्रतिशत हैं, और गुर्जरों, जो 5-6 प्रतिशत हैं को कड़ी टक्कर देते हैं.
क्या रहा है जाट वोटर्स का इतिहास?
टीकाराम पालीवाल के नेतृत्व में राजस्थान में सत्ता में पहली बार आई कांग्रेस सरकार ने 1950 के दशक में जागीरदारी व्यवस्था को समाप्त कर दिया था और किसानों को जमीन पर अधिकार देते हुए कई सुधार पेश किए थे.
ये कृषक समुदाय के लिए बड़ी जीत साबित हुई. इसके बाद नाथू राम मिर्धा, कुंभा राम आर्य और राम निवास मिर्धा जैसे कई पार्टी नेता विधायक, फिर मंत्री और यहां तक कि केंद्रीय मंत्री भी बने. उनके परिवार अभी भी राजनीति में हैं.
1977 में हिंदी पट्टी में एकाध सीट ही ऐसी थी, जिस पर कांग्रेस के सांसद चुनाव जीते थे. इसमें नागौर सीट भी शामिल था, जिस पर नाथूराम मिर्धा चुनाव जीते थे.
हालांकि 1998 के विधानसभा चुनावों के बाद कांग्रेस में गहलोत के प्रभुत्व के बाद परसराम मदेरणा जैसे वरिष्ठ जाट नेताओं को कथित तौर पर दरकिनार किया गया. जिससे समुदाय के भीतर कांग्रेस के प्रति नाराजगी बढ़ गई.
वहीं 2003 के विधानसभा चुनावों में एक वर्ग का बीजेपी की ओर झुकाव नजर आया, खासकर सीकर में एक रैली में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की घोषणा के बाद कि जाटों को ओबीसी श्रेणी में शामिल किया जाएगा और वो आरक्षण के लिए पात्र होंगे.
2003 में जब वसुंधरा राजे को बीजेपी की ओर से सीएम चेहरा बनाया गया तो उन्होंने खुद को जाटों की बहू बताया और समुदाय से वोट देने की अपील की, जिसके बाद अब जाट वोटों को कांग्रेस और भाजपा के बीच समान रूप से विभाजित देखा जाता है, क्योंकि दोनों ही पार्टियों में जाट समुदाय से आने वाले कई विधायक हैं.
हाल ही में बीजेपी ने जाटों को लुभाने के लिए एक ओर कदम आगे बढ़ाया और नाथूराम मिर्धा की पोती नागौर से पूर्व सांसद ज्योति मिर्धा को पार्टी में शामिल किया. बीजेपी ज्योति से ज्यादा से ज्यादा जाट वोटर्स को लुभाने की उम्मीद कर रही है.
राजस्थान में कितना है जाट वोटर्स का दबदबा?
राजस्थान में कुल 200 विधानसभा सीटें हैं. इन सभी सीटों में से 30 से 40 विधानसभा सीटों पर जाट जाति का कैंडिडेट चुनाव जीतता है. राजस्थान के शेखावाटी में जाट समुदाय का बोलबाला है. यहां पर हर चुनाव में शेखावाटी ही किसी भी पार्टी के भाग्य का फैसला करती है.
इसी तरह जोधपुर और बीकानेर, बाड़मेर में जाटों का ही बोलबाला है. बांसवाड़ा और मेवाड़ को छोड़कर सभी डिविजन में (कुल 7 में से 5 ) जाटों का बोलबाला है.
वरिष्ठ पत्रकार ओम सैनी बताते हैं कि बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष पहले सतीश पूनिया थे. हाल ही में बीजेपी ने सीपी जोशी को अपना प्रदेश अध्यक्ष बनाया जो ब्राह्मण हैं. ऐसा करके बीजेपी ने सोशल इंजीनियरिंग का दांव खेल रही है.
यूपी में भी दस सीटों पर जाट वोटर्स का दबदबा
यूपी की 18 लोकसभा सीटों पर जाट वोटरों का सीधा असर है. टॉप 10 सीटें जाट सीटें मानी जाती हैं. इनमें बागपत में 30 प्रतिशत जाट वोटरों का दबदबा है. मेरठ में 26 प्रतिशत जाट वोटरों का दबदबा है. ये बीजेपी की परंपरागत सीट भी है.
सहारनपुर में 20 प्रतिशत जाट वोटर हैं. मथुरा में 18 प्रतिशत जाट वोटर हैं. अलीगढ़, मुजफ्फरनगर, बिजनौर, मुरादाबाद, आगरा, कैराना सीटों को भी जाट वोटरों का दबदबा माना जाता है.
लोकसभा चुनाव में भी जाट वोटर्स का दबदबा
बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जाट दिल्ली की राजनीति में महत्वपूर्ण फैक्टर बनकर उभरे. राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और पंजाब की करीब 40 लोकसभा सीटों का समीकरण जाट वोटर तय करते हैं.
सामाजिक तौर पर जाटों को इन इलाकों में सर छोटूराम ने एकजुट करने का काम किया. चौधरी चरण सिंह और देवीलाल ने जाटों का राजनीतिक रसूख बढ़ाने का काम किया. वक्त के साथ-साथ जाट भी राजनीति में अपना ठिकाना बदलते रहे.
यूपी में 2013 के मुजफ्फरनगर दंगे के बाद जाटों का एकजुट वोट बीजेपी को मिलने लगा. दंगे की वजह से सपा और आरएलडी जैसी पार्टियां 2014 और 2019 के चुनाव में जाटलैंड में जीरो पर सिमट गई.
राजपूत वोटर्स से होगी सीधी टक्कर
राजस्थान चुनाव में जाट के अलावा राजपूत वोटर्स भी सीधी पकड़ रखते हैं. ऐसे में दिल्ली में जो पहलवानों के साथ हुआ है उससे जाट वोटर्स में कहीं न कहीं बीजेपी के खिलाफ गुस्सा पनपा है.
ऐसे में जाट और राजपूत की सियासी लड़ाई ठनी तो इसका पहला परिणाम राजस्थान चुनाव में देखने को मिलेगा, जहां जाट और राजपूत दोनों शक्तिशाली हैं. गहलोत की सत्ता पलटने के लिए राजस्थान में जाट और राजपूत दोनों को बीजेपी साध रही है.
राजस्थान में जाट समुदाय की आबादी करीब 17 प्रतिशत है, जो अन्य समुदायों की तुलना में सबसे अधिक है. शेखावटी इलाका जाट बहुल माना जाता है. राज्य के 14 जिले में जाट वोटर्स असरदार हैं.
इनमें हनुमानगढ़, गंगानगर, बीकानेर, चुरू, झुंझनूं, नागौर, जयपुर, चित्तौड़गढ़, अजमेर, बाड़मेर, टोंक, सीकर, जोधपुर और भरतपुर का नाम शामिल हैं.
राज्य में 50-60 सीटें जाट बहुल है और 2018 में इस समुदाय के 38 विधायक जीतकर विधानसभा में पहुंचे. 2018 में कांग्रेस सिंबल पर 18 और बीजेपी सिंबल पर 12 जाट उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की.
राजस्थान के वरिष्ठ पत्रकार ओम सैनी के मुताबिक अगर ये पहलवानों का मुद्दा चुनाव तक गर्म रहता है तो इसका असर जाट वोटरों पर पड़ेगा. बीजेपी के जाट वोटर इन इलाकों में दूसरे पक्ष में वोट डाल सकते हैं.
जाट की तरह ही राजपूतों का भी राजस्थान की पॉलिटिक्स में काफी दबदबा है. राज्य में राजपूत आबादी 6 फीसदी के आसपास है, जो 13 जिलों में फैला हुआ है. पूर्वी राजस्थान में गुर्जर के साथ मिलकर राजपूत खेल खराब करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.
क्या कहती है राजस्थान की राजनीति?
राजस्थान की राजनीति में 1998 के बाद से सत्ता अलग-अलग पार्टियों के बास बारी-बारी से जाती आती रही है. जिसमें एक-एक बार मौका कांग्रेस और बीजेपी को मिलता रहा है. इसका मतलब है राज्य की जनता एक बार कांग्रेस तो अगली बार बीजेपी को सत्ता सौंपती रही है.
इससे साफ होता है कि राजस्थान के अधिकांश मतदाता हर बार किसी एक पार्टी के साथ ही बने रहने में यकीन नहीं करते. राज्य की कोई भी पार्टी जातियों या समुदायों का ऐसा गठजोड़ नहीं बना पाई है, जो लगातार हर चुनाव में उसके साथ बना रहे और चुनावों तक उनका भरोसा कायम रख सके.
यही वजह है कि 1998 के बाद से हुए हर चुनाव में कांग्रेस और भाजपा बारी-बारी से राज्य की सत्ता में काबिज होती आई है. कोई भी पार्टी लगातार दूसरे कार्यकाल में जीत हासिल नहीं कर पाई है. ऐसे में कांग्रेस के लिए ये कर दिखाना आसान नहीं होगा.
कौन हो सकता है सीएम पद का उम्मीदवार?
ये अभी साफ नहीं है कि राजस्थान में प्रमुख राजनीतिक दलों के लिए सीएम उम्मीदवार कौन हो सकता है. कांग्रेस की तरफ से मौजूदा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत (Chief Minister Ashok Gehlot) को एक बार फिर से मौका दिए जाने की अटकलें सामने आ रही हैं.
लेकिन सचिन पायलट भी सीएम के दावेदार के रूप में सामने आ सकते हैं. भाजपा ने भी अभी तक अपने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के नाम की घोषणा नहीं की है.
हालांकि माना ये भी जा रहा है कि वसुंधरा राजे इस पद की दौड़ में सबसे आगे हैं. अगर सीएम के उम्मीदवार के लिए पार्टी में कोई सहमति नहीं बनती है, तो बीजेपी सीएम चेहरे की घोषणा किए बिना भी चुनाव में उतरने का विकल्प चुन सकती है.