राजनीती में स्वच्छता की और कदम बड़ाने का वक्त
स्वच्छता अभियान में बढ़-चढ़ कर होने वाली इस भागीदारी को देखकर लगता है कि अपने आसपास की जगह को स्वच्छ रखने के प्रति लोग अब ज्यादा सजग रहने लगे हैं। लेकिन, चिंता की बात यह है कि स्वच्छता के पक्षधर होने के बावजूद न तो हमारे जनप्रतिनिधि और न ही हम देश में दूषित होती राजनीति में स्वच्छता अभियान शुरू करने की पहल करते। कभी-कभार ऐसे प्रयास होते भी हैं तो कानून बनाने वाले ही ऐसी गलियां छोड़ देते हैं जो ऐसे सफाई अभियान को अंजाम तक पहुंचाने में रोड़ा बन जाती हैं। पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव इसी साल के अंत में होने हैं और इसके बाद अगले वर्ष लोकसभा चुनाव का बिगुल बज उठेगा। ऐसे दौर में राजनीति में सुधार की कोरी बातें ही नहीं बल्कि संकल्पित होने का वक्त आ गया है। यह वक्त देखा जाए तो चुनाव सुधार का बिगुल बजाने का है। चुनाव में अच्छे लोग चुन कर आएं इसके लिए राजनीति में अपराधियों का प्रवेश तो रोकना ही होगा, वंशवाद, जातिवाद, और धनबल व बाहुबल जैसी राजनीति में घुस आई गंदगी को साफ करने के लिए ‘जागरूकता की झाड़ू’ को उठाना ही होगा। अभी तो आम धारणा यही बनती जा रही है कि ईमानदारी के बलबूते चुनाव जीतना आसान नहीं है। चुनाव सुधारों को लेकर उच्चतम न्यायालय से लेकर चुनाव आयोग तक की सिफारिशें न जाने किस टोकरी में पड़ी हुई हैं कि उन पर अमल करने की परवाह किसी को नहीं होती।
राजनीति में सुधार चाहने वालों के लिए यह घर बैठने का समय नहीं है। राजनीति में नैतिकता को लेकर उठ रहे सवालों के बीच चुनाव सुधारों की कोरी बातें ही नहीं बल्कि उन पर अमल लाने की भी जरूरत है। सबसे बड़ी जिम्मेदारी राजनीतिक पार्टियों की ही है कि वे ठोक-बजाकर उम्मीदवारों का चयन करें। चिंता इस बात की है कि जनता ही दागियों को वोट देकर सत्ता में लाती है। इसलिए प्रमुखत: राजनीति में स्वच्छता के लिए कदम उसे भी बढ़ाने होंगे।