पहली बार चुनाव जीतने वाले विधायकों की कहानी !

टिमरनी के कांग्रेस विधायक ने संघ स्टाइल में लड़ा चुनाव; अनुभा ने कैसे बनाई रणनीति

…….ने पहली बार चुनाव जीते विधायकों से बात की। इनमें 30 से 50 साल की उम्र वाले 6 और 60 साल से ज्यादा उम्र वाले 4 विधायक शामिल हैं। इनसे बात कर जाना कि आखिरकार उन्होंने कैसे चुनाव लड़ा? चुनाव जीतने के लिए किसने किस रणनीति का इस्तेमाल किया।

कांग्रेसी हूं, लेकिन चुनाव लड़ने का पैटर्न संघ से सीखा
अभिजीत शाह ने 2018 में भी चुनाव लड़ा था, लेकिन कामयाबी मिली 2023 के चुनाव में। शाह ने कहा- कांग्रेस से विधायक बना हूं, लेकिन राजनीति की शुरुआत संघ से हुई थी। 2008 में मैं संघ के कई वर्गों का हिस्सा बना। इसके बाद मेरे पिता कांग्रेस के टिकट पर 2014 का लोकसभा चुनाव लड़े, तब मेरी कांग्रेस में एंट्री हुई। हालांकि, वो चुनाव हार गए थे, लेकिन हमारा परिवार कांग्रेस के साथ जुड़ा रहा। इसके बाद 2018 में कांग्रेस के टिकट पर मैंने टिमरनी से चुनाव लड़ा। अपने चाचा से 2213 वोटों से हार गया था।

2018 का चुनाव हारने के अगले ही दिन से मैं अपने विधानसभा क्षेत्र में एक्टिव हो गया था। मैंने पूरा चुनाव संघ के पैटर्न पर लड़ा। अपने संगठन को मजबूत किया। मैंने हर 30 व्यक्ति पर एक पन्ना प्रभारी तक बना रखा था। उसका मुझे फायदा मिला। मैं आदिवासी क्षेत्र का विधायक हूं। सड़क, बिजली, पानी और मोबाइल नेटवर्क समेत तमाम सुविधाओं पर ध्यान दूंगा। सरकार आती तो क्षेत्र में छिंदवाड़ा मॉडल की तर्ज पर फैक्ट्रियां लगवाने का भी प्लान था। अब विपक्ष में रहकर क्षेत्र के हक के लिए लड़ूंगा।

पिता आरिफ अकील ने चुनाव लड़ने के गुर सिखाए
आतिफ ने कहा- 2013 में पिता ने चुनाव प्रबंधन की जिम्मेदारी सौंपी थी। तब उनके चुनाव में चार वार्डों में जनसंपर्क किया था। इन सभी वार्डों से पिता आरिफ अकील जीते थे। 2018 के चुनाव में पिता ने पूरी विधानसभा में जनसंपर्क की जिम्मेदारी सौंपी। आरिफ अकील 6वीं बार चुनाव जीते।

पिता के बीमार होने के बाद मैंने पूरी विधानसभा की जिम्मेदारी संभाली। लोगों की समस्याओं को दूर किया। मेरी जीत में पिता का बहुत बड़ा हाथ है। वे ही मेरे राजनीतिक गुरु हैं। आतिफ ने कहा- मेरा विजन है कि पुराने शहर में ट्रैफिक की समस्या का समाधान करूं। सरकारी स्कूलों को प्राइवेट स्कूलों की टक्कर का बनाऊं।

प्रतिमा बागरी, भाजपा विधायक रैगांव, उम्र: 37 साल

क्षेत्र में लोकप्रियता के चलते दोबारा टिकट मिला: रैगांव सीट से प्रतिमा 36,060 वोटों से चुनाव जीती हैं। प्रतिमा ने कांग्रेस की कल्पना वर्मा को हराया है। इस सीट पर बागरी समाज के वोटर निर्णायक माने जाते हैं। पूर्व मंत्री जुगल किशोर बागरी यहां से पांच बार विधायक रहे। साल 2021 में कोविड में जुगल किशोर का निधन हो गया। इसके बाद उपचुनाव में पार्टी ने प्रतिमा बागरी को उतारा था। वो 12 हजार वोटों से कांग्रेस की कल्पना वर्मा से चुनाव हार गई थीं।

राजनीतिक बैकग्राउंड की बात करें तो प्रतिमा के पिता जय प्रताप बागरी और मां कमलेश बागरी दोनों ही जिला पंचायत सदस्य भी रह चुके हैं। रैगांव विधानसभा में उनकी खासी लोकप्रियता के चलते पार्टी ने उन्हें दोबारा मौका दिया।

पिता के साथ क्षेत्र में सक्रियता काम आई
महाराजपुर सीट से विधायक बने कामाख्या प्रताप सिंह को राजनीति विरासत में मिली है। उनके दादा यादवेंद्र सिंह लल्लू राजा और पिता मानवेंद्र सिंह भी विधायक रहे। पिता के साथ लगातार क्षेत्र में सक्रिय रहना और युवाओं के बीच लोकप्रियता उनकी जीत की सबसे बड़ी वजह रही।

जिला पंचायत चुनाव हारने के बाद ही तैयारी शुरू कर दी थी
प्रियंका मीणा राजस्थान की बेटी हैं और एमपी की बहू। उनके पति IRS अफसर प्रद्युम्न मीणा दिल्ली में पदस्थ हैं। प्रियंका मीणा उस समय चर्चा में आईं जब उन्होंने जिला पंचायत सदस्य का चुनाव लड़ा। महज 235 वोटों से चुनाव हारने के बाद उन्होंने क्षेत्र में सक्रियता बढ़ाई। बेहद कम समय में उन्होंने क्षेत्र में अपनी पहचान बनाई। फरवरी 2023 में उन्होंने भाजपा जॉइन की थी।

रामसिया भारती, कांग्रेस विधायक, बड़ा मलहरा, उम्र: 37 साल

एक दशक तक जनता के बीच सक्रियता रंग लाई: कांग्रेस प्रत्याशी राम सिया भारती ने मलहरा विधानसभा सीट से बीजेपी प्रत्याशी प्रद्युम्न सिंह लोधी को 21532 वोटों से अंतर से हरा दिया। 2003 में मलहरा सीट से चुनाव जीतने के बाद ही उमा भारती मुख्यमंत्री बनी थीं।

राम सिया भारती पिछले एक दशक से अधिक समय से समाजसेवा का काम कर रही हैं। लोधी समाज से आने वाली साध्वी की सभी वर्गों में अच्छी पकड़ है। वे मूलतः टीकमगढ़ की रहने वाली हैं। उन्होंने बचपन से ही संन्यास धारण कर लिया था। उनका पहनावा भी पूरी तरह से साध्वियों वाला ही रहता है।

राजनीति में परिवारवाद नहीं चलता, यहां सड़क पर उतरना ही पड़ता है
विक्रांत भूरिया को राजनीति विरासत में मिली है। पेशे से सर्जन विक्रांत भूरिया ने राजनीति की शुरुआत जूडा अध्यक्ष के रूप में की। डॉक्टर बनने के बाद वे झाबुआ में सक्रिय हो गए। विक्रांत ने कहा- राजनीति को मैंने करीब से देखा है क्योंकि पिता कांतिलाल भूरिया सांसद और केंद्रीय मंत्री रहे। जनता के लिए सड़क पर लाठी खाने और जेल जाने का एक्सपीरियंस भी है।

विक्रांत का कहना है कि राजनीति में परिवारवाद की कोई जगह नहीं होती। जो नेता परिवारवाद के नाम पर वोट मांगते हैं उन्हें फायदा नहीं, नुकसान होता है। जब तक आप जमीन पर सक्रिय नहीं रहेंगे तब तक लोग वोट नहीं देंगे। चुनाव जीतने में पिता की अहम भूमिका रही। उनके चुनावों को नजदीक से देखा है तो उसी रणनीति से चुनाव लड़ा।

जनता के बीच 15 साल की सक्रियता काम आई
प्रीतम लोधी विधायक बनने के लिए 15 साल से संघर्ष कर रहे थे। इससे पहले लगातार तीन चुनाव हारे। प्रीतम ने कहा- हमारा परिवार तीन पीढ़ियों से भाजपा में है। पहले मेरे पिता जी सरपंच रहे। फिर मैं खुद 25 साल तक लगातार सरपंच रहा।

चुनाव से पहले प्रीतम लोधी ने बागेश्वर धाम के पंडित धीरेंद्र शास्त्री को लेकर टिप्पणी की थी। इस वजह से उन्हें पार्टी ने निष्कासित कर दिया था। चुनाव से पहले उनकी भाजपा में वापसी हुई। प्रीतम ने कहा- बागेश्वर वाले मामले में राजीनामा हो गया है। अब मैं विधायक बना हूं, मेरा हर दिन लोगों के लिए रहेगा। विधानसभा को जिला बनाना, पलायन रोकने के लिए रोजगार का इंतजाम करना प्राथमिकता रहेगी।

विश्वनाथ सिंह, भाजपा विधायक, तेंदुखेड़ा। उम्र: 70 साल

चुनाव हारता रहा, लेकिन जनता से जुड़ा रहा: तेंदूखेड़ा सीट से विश्वनाथ 12,347 वोटों से चुनाव जीते हैं। 2 बार के कांग्रेस विधायक संजय शर्मा को मात दी। विश्वनाथ ने बताया कि उन्होंने साल 1980 से भाजपा के साथ जुड़कर काम किया, यहीं से राजनीतिक करियर की शुरुआत हुई। साल 2004 में कांग्रेस जॉइन कर ली। 2018 में फिर भाजपा में वापसी की। इस बार पार्टी ने टिकट दिया, लेकिन चुनाव हार गया। हारने के बाद भी मैं क्षेत्र में सक्रिय रहा। लोगों से जुड़ा रहा इसीलिए मुझे जीत मिली और इस उम्र में विधानसभा पहुंच रहा हूं।

सात बार चुनाव लड़ चुकी हूं, इसका मुझे फायदा मिला
अनुभा मुंजारे ने ससुराल में राजनीति की एबीसीडी सीखी है। उनके पति कंकर मुंजारे सांसद रहे हैं। अनुभा ने कहा- मेरी सरकारी टीचर की नौकरी लग गई थी, लेकिन पति के कहने पर राजनीति में आई। 1993 में निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर पहला विधानसभा चुनाव लड़ा। उस वक्त कोई अनुभव नहीं था। इसके बाद भी मैं दूसरे नंबर पर आई थी। इसके बाद दो बार नगर पालिका अध्यक्ष रहीं। इससे राजनीति को लेकर समझ गहरी हुई।

अनुभा ने कहा- हर चुनाव अलग-अलग रणनीति के साथ लड़ा। इस बार कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने की रणनीति कारगर साबित हुई। उन्होंने कहा क्षेत्र का विकास प्राथमिकता है और नगर पालिका अध्यक्ष के अनुभव का फायदा मिलेगा।

मोहन सिंह राठौर, भाजपा विधायक, भितरवार। उम्र: 65 साल

विधायक के मेंटर रहे, लेकिन अब खुद चुनाव जीते: भितरवार सीट से मोहन 22,354 वोटों से चुनाव जीते। मोहन ने लगातार तीन बार के कांग्रेस विधायक लाखन सिंह यादव को चुनाव हराया। मोहन सिंधिया समर्थक हैं। कमलनाथ सरकार में मंत्री रहीं इमरती देवी के पॉलिटिकल मेंटर माने जाते हैं। 1991 में युवक कांग्रेस जिला अध्यक्ष बनने के साथ राजनीति शुरू की। इसके बाद तीन बार जिला कांग्रेस ग्रामीण के अध्यक्ष बने। साल 1991 से 2020 तक कांग्रेस संगठन के विभिन्न पदों पर रहे। साल 2020 में सिंधिया के साथ भाजपा जॉइन कर ली। 65 साल की उम्र में पहली बार विधानसभा पहुंचेंगे।

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