चुनाव के ढंग बदल रहे हैं, अब अंतिम दौर की कवायद पर टिका सब कुछ !

नजरिया: चुनाव के ढंग बदल रहे हैं, अब अंतिम दौर की कवायद पर टिका सब कुछ
चुनाव अब केवल दोनों पक्षों के भाषणों, नीतियों या घोषणा-पत्रों की लड़ाई नहीं रह गए हैं। अंतिम समय के अभियानों, बूथ प्रबंधन और उदासीन मतदाताओं को मतदान केंद्रों तक लाने की क्षमता से ही आज चुनाव जीते या हारे जा रहे हैं।
चुनाव चाहे कोई भी हो, लेकिन खासकर राज्य विधानसभा चुनावों के बाद शोर-शराबा होता ही है। जिन्हें जीत मिली, वे जश्न मनाते हैं और हारने वाले राजनीतिक दलों के समर्थक आरोप-प्रत्यारोप का खेल खेलते हैं। लेकिन चार राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे सामने आने के बाद जो शांति दिख रही है, वह सामान्य नहीं है। अगर यह प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दलों के परिपक्व व्यवहार का प्रमाण है तो हम इसका स्वागत कर सकते हैं। लेकिन अगर इसकी वजह कांग्रेस की उदासीनता है तो यह चिंता का विषय है। चलिए, शुरुआत करते हैं मेरे एक गलत अनुमान से। मैंने लिखा था कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस आ रही है, लेकिन मैं गलत था। कांग्रेस की 35 की तुलना में 54 सीटों के साथ भाजपा को वहां प्रभावी अंतर के साथ जीत मिली। कांग्रेस शुरुआत से ही राज्य पर दावा कर रही थी, जिसे सभी सर्वेक्षणों में माना भी जा रहा था। कई लोगों से बातचीत के आधार पर मैं भी इससे सहमत था। लेकिन नतीजों ने भाजपा को छोड़ सभी को हैरत में डाल दिया। यह पता चला कि सामान्य, एससी और एसटी सीटों पर कांग्रेस के वोट शेयर में भारी कमी आई। 2018 में जीतीं एसटी की सभी सीटें गंवाने के साथ ही कांग्रेस ने अपनी हार की कहानी लिख दी।
अप्रत्याशित नहीं
हालांकि आपको याद होगा कि राजस्थान और मध्य प्रदेश के संबंध में कांग्रेस के दावों को मैंने स्वीकार नहीं किया था। राजस्थान में गहलोत सरकार ने अच्छा काम किया था, लेकिन सत्ता विरोधी लहर उनके गले की फांस बन गई। नतीजा यह रहा कि गहलोत सरकार के 17 मंत्री और कांग्रेस के 63 विधायकों को चुनावों में मुंह की खानी पड़ी। इससे मंत्रियों और विधायकों को लेकर जनता की भारी नाराजगी का संकेत मिलता है। जाहिर है कि चुनावी सर्वे जनता की नाराजगी के स्तर को भांप नहीं सके। आखिरकार, 1998 के बाद से राजस्थान के मतदाताओं की कांग्रेस और भाजपा में अदला-बदली करने की आदत जारी रही। दूसरी ओर, मध्य प्रदेश में उल्लेखनीय विफलताओं और भ्रष्टाचार के आरोपों के बीच शिवराज सिंह चौहान ने खासकर महिलाओं को लाभान्वित करने वाली लाडली बहन जैसी कई योजनाएं लागू कीं, जिनका फायदा उन्हें मिला। यह राज्य हिंदुत्व की प्रयोगशाला भी था। आरएसएस और इसके सहयोगी संगठनों ने पूरी सक्रियता के साथ जनता में गहरी जड़ें जमाई थीं।

भाजपा सरकार को मध्य प्रदेश से उखाड़ने के लिए संगठन की तरफ से सशक्त प्रयासों की जरूरत थी, लेकिन कांग्रेस ने स्पष्ट तौर पर वैसा कुछ नहीं किया। जबकि भाजपा ने राज्य में केंद्रीय मंत्रियों, मौजूदा सांसदों सहित कद्दावर नेताओं का जमावड़ा एकत्र किया। समय व संसाधनों के भारी निवेश ने स्वाभाविक ही नतीजों को भाजपा के पक्ष में झुका दिया। तेलंगाना में जरूर मैंने बीआरएस सरकार के खिलाफ एक ग्रामीण लहर को महसूस किया था और किसी चमत्कार के होने की संभावना भी जाहिर की थी। के चंद्रशेखर राव को पृथक तेलंगाना राज्य हासिल करने और वहां रायथु बंधु जैसी लाभकारी योजनाएं शुरू करने का श्रेय जाता है, जिनमें किसानों को धन हस्तांतरित किया गया। लेकिन सत्ता का एक ही परिवार में सिमटना, भ्रष्टाचार के आरोप, हैदराबाद केंद्रित विकास, मुख्यमंत्री की खुद को अलग-थलग रखने वाली शख्सियत और चरम बेरोजगारी ने सरकार के खिलाफ एक लहर पैदा की, जिस पर सवार रेवंत रेड्डी ने एक आक्रामक अभियान चलाया और कांग्रेस को जीत दिलाई।

अंतर कम रहा
तीन हिंदी भाषी राज्यों में हार मिलने के बावजूद कांग्रेस का वोट शेयर बरकरार रहा। आंकड़े खुद ही बोलते हैं।

अच्छी बात यह है कि द्विध्रुवीय प्रतिस्पर्द्धी राजनीति अभी जिंदा है। कांग्रेस का वोट शेयर चारों राज्यों में 40 फीसदी यानी करीब 2018 जितना ही रहा, जो चुनावी लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत है। दूसरी ओर, भाजपा को चारों राज्यों में वोट शेयर में बढ़त मिली और उसने चारों राजधानियों और शहरी क्षेत्रों की ज्यादातर सीटें जीत लीं। मध्य प्रदेश को छोड़ कर बाकी जगहों पर वोट शेयर में अंतर काफी कम है। छत्तीसगढ़ में 4.04 फीसदी का अंतर आदिवासी वोटों के शिफ्ट होने की वजह से हुआ। यहां अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित 29 सीटों में से 17 भाजपा और 11 कांग्रेस ने जीतीं। राजस्थान में 2.16 फीसदी का अंतर तो और भी कम था।

चुनाव बदल गए हैं
वोट शेयर में जो अंतर रहे, उन्हें समझने के लिए चुनावों की बदलती प्रकृति को समझना जरूरी है। चुनाव अब केवल दोनों पक्षों के भाषणों, रैलियों, नीतियों या घोषणा-पत्रों की लड़ाई नहीं रह गए हैं। इन सभी का महत्व है, लेकिन ये पर्याप्त नहीं हैं। अंतिम समय के अभियानों, बूथ प्रबंधन और उदासीन मतदाताओं को मतदान केंद्रों तक लाने की क्षमता से ही आज चुनाव जीते या हारे जा रहे हैं। इसके लिए हर निर्वाचन क्षेत्र में समय, ऊर्जा और पैसे के भारी निवेश की जरूरत होती है, जो इस बार भाजपा ने कामयाबी के साथ किया। 2024 के लोकसभा चुनाव की ओर बढ़ने के साथ हवा का रुख भाजपा के साथ दिखता है। कम से कम हिंदी भाषी राज्यों में भाजपा मतदाताओं का ज्यादा से ज्यादा ध्रुवीकरण करते हुए हिंदुत्व के एजेंडे को आगे ले जाने की कोशिश करेगी। इससे संघवाद, धर्मनिरपेक्षता, संस्थागत स्वतंत्रता, व्यक्ति व मीडिया की स्वतंत्रता, मानवाधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता, निजता और डर से स्वतंत्रता जैसी धारणाओं को नुकसान पहुंच सकता है। यह जरूरी है कि भारतीय लोग अपनी सरकार खुद चुनें, लेकिन लोकतंत्र के बाकी स्तंभों को बचाना भी उतना ही जरूरी है।

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