सम्पूर्ण अयोध्या कांड !
अयोध्या के रामकोट मुहल्ले में एक टीले पर लगभग पाँच सौ साल पहले वर्ष 1528 से 1530 में बनी मस्जिद पर लगे शिलालेख और सरकारी दस्तावेज़ों के मुताबिक़ यह मस्जिद हमलावर मुग़ल बादशाह बाबर के आदेश पर उसके गवर्नर मीर बाक़ी ने बनवाई.
लेकिन इसका कोई रिकार्ड नहीं है कि बाबर अथवा मीर बाक़ी ने यह ज़मीन कैसे हासिल की और मस्जिद से पहले वहाँ क्या था? मस्जिद के रख-रखाव के लिए मुग़ल काल, नवाबी और फिर ब्रिटिश शासन में वक़्फ़ के ज़रिए एक निश्चित रक़म मिलती थी.
ऐसा कहा-सुना जाता है कि इस मस्जिद को लेकर स्थानीय हिंदुओं और मुसलमानों में कई बार संघर्ष हुए.
अनेक ब्रिटिश इतिहासकारों ने लिखा है कि 1855 में नवाबी शासन के दौरान मुसलमानों ने बाबरी मस्जिद पर जमा होकर कुछ सौ मीटर दूर अयोध्या के सबसे प्रतिष्ठित हनुमानगढ़ी मंदिर पर क़ब्ज़े के लिए धावा बोला. उनका दावा था कि यह मंदिर एक मस्जिद तोड़कर बनायी गई थी.
इस ख़ूनी संघर्ष में हिंदू वैरागियों ने हमलावरों को हनुमान गढ़ी से खदेड़ दिया जो भागकर बाबरी मस्जिद परिसर में छिपे मगर वहाँ भी तमाम मुस्लिम हमलावर क़त्ल कर दिए गए, जो वहीं कब्रिस्तान में दफ़न हुए.
कई गजेटियर्स, विदेशी यात्रियों के संस्मरणों और पुस्तकों में उल्लेख है कि हिंदू समुदाय पहले से इस मस्जिद के आसपास की जगह को राम जन्म्स्थान मानते हुए पूजा और परिक्रमा करता था.
1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद नवाबी शासन समाप्त होने पर ब्रिटिश क़ानून, शासन और न्याय व्यवस्था लागू हुई. माना जाता है कि इसी दरम्यान हिंदुओं ने मस्जिद के बाहरी हिस्से पर क़ब्ज़ा करके चबूतरा बना लिया और भजन-पूजा शुरू कर दी, जिसको लेकर वहाँ झगड़े होते रहते थे.
बाबरी मस्जिद के एक कर्मचारी मौलवी मोहम्मद असग़र ने 30 नवंबर 1858 को लिखित शिकायत की कि हिंदू वैरागियों ने मस्जिद से सटाकर एक चबूतरा बना लिया है और मस्जिद की दीवारों पर राम-राम लिख दिया है.
शांति व्यवस्था क़ायम करने के लिए प्रशासन ने चबूतरे और मस्जिद के बीच दीवार बना दी लेकिन मुख्य दरवाज़ा एक ही रहा. इसके बाद भी मुसलमानों की तरफ़ से लगातार लिखित शिकायतें होती रहीं कि हिंदू वहाँ नमाज़ में बाधा डाल रहे हैं.
अप्रैल 1883 में निर्मोही अखाड़ा ने डिप्टी कमिश्नर फ़ैज़ाबाद को अर्ज़ी देकर मंदिर बनाने की अनुमति माँगी, मगर मुस्लिम समुदाय की आपत्ति पर अर्ज़ी नामंज़ूर हो गई.
इसी बीच मई 1883 में मुंशी राम लाल और राममुरारी राय बहादुर का लाहौर निवासी कारिंदा गुरमुख सिंह पंजाबी वहाँ पत्थर वग़ैरह सामग्री लेकर आ गया और प्रशासन से मंदिर बनाने की अनुमति माँगी, मगर डिप्टी कमिश्नर ने वहाँ से पत्थर हटवा दिए.
निर्मोही अखाड़े के महंत रघबर दास ने चबूतरे को राम जन्म स्थान बताते हुए भारत सरकार और मोहम्मद असग़र के ख़िलाफ़ सिविल कोर्ट में पहला मुक़दमा 29 जनवरी 1885 को दायर किया. मुक़दमे में 17X21 फ़ीट लम्बे-चौड़े चबूतरे को जन्मस्थान बताया गया और वहीं पर मंदिर बनाने की अनुमति माँगी गई, ताकि पुजारी और भगवान दोनों धूप, सर्दी और बारिश से निजात पाएँ.
इसमें दावा किया गया कि वह इस ज़मीन के मालिक हैं और उनका मौक़े पर क़ब्ज़ा है. सरकारी वक़ील ने जवाब में कहा कि वादी को चबूतरे से हटाया नहीं गया है, इसलिए मुक़दमे का कोई कारण नहीं बनता. मोहम्मद असग़र ने अपनी आपत्ति में कहा कि प्रशासन बार-बार मंदिर बनाने से रोक चुका है.
जज पंडित हरिकिशन ने मौक़ा मुआयना किया और पाया कि चबूतरे पर भगवान राम के चरण बने हैं और मूर्ति थी, जिनकी पूजा होती थी. इसके पहले हिंदू और मुस्लिम दोनों यहाँ पूजा और नमाज़ पढ़ते थे, यह दीवार झगड़ा रोकने के लिए खड़ी की गई. जज ने मस्जिद की दीवार के बाहर चबूतरे और ज़मीन पर हिंदू पक्ष का क़ब्ज़ा भी सही पाया.
इतना सब रिकॉर्ड करने के बाद जज पंडित हारि किशन ने यह भी लिखा कि चबूतरा और मस्जिद बिलकुल अग़ल-बग़ल हैं, दोनों के रास्ते एक हैं और मंदिर बनेगा तो शंख, घंटे वग़ैरह बजेंगे, जिससे दोनों समुदायों के बीच झगड़े होंगे लोग मारे जाएँगे इसीलिए प्रशासन ने मंदिर बनाने की अनुमति नहीं दी.
जज ने यह कहते हुए निर्मोही अखाड़ा के महंत को चबूतरे पर मंदिर बनाने की अनुमति देने से इनकार कर दिया कि ऐसा करना भविष्य में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दंगों की बुनियाद डालना होगा.
इस तरह मस्जिद के बाहरी परिसर में मंदिर बनाने का पहला मुक़दमा निर्मोही अखाड़ा साल भर में हार गया.
डिस्ट्रिक्ट जज चैमियर की कोर्ट में अपील दाख़िल हुई. मौक़ा मुआयना के बाद उन्होंने तीन महीने के अंदर फ़ैसला सुना दिया. फ़ैसले में डिस्ट्रिक्ट जज ने कहा, “हिंदू जिस जगह को पवित्र मानते हैं वहां मस्जिद बनाना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन चूँकि यह घटना 356 साल पहले की है इसलिए अब इस शिकायत का समाधान करने के लिए बहुत देर हो गई है.”
जज के मुताबिक़, “इसी चबूतरे को राम चंद्र का जन्मस्थान कहा जाता है.”
जज ने यह भी कहा कि मौजूदा हालत में बदलाव से कोई लाभ होने के बजाय नुक़सान ही होगा. चैमियर ने सब जज हरि किशन के जजमेंट का यह अंश अनावश्यक कहते हुए ख़ारिज कर दिया कि चबूतरे पर पुराने समय से हिंदुओं का क़ब्ज़ा है और उसके स्वामित्व पर कोई सवाल नहीं उठ सकता.
निर्मोही अखाड़ा ने इसके बाद अवध के जुडिशियल कमिश्नर डब्लू यंग की अदालत में दूसरी अपील की. जुडिशियल कमिश्नर यंग ने 1 नवंबर 1886 को अपने जजमेंट में लिखा कि “अत्याचारी बाबर ने साढ़े तीन सौ साल पहले जान-बूझकर ऐसे पवित्र स्थान पर मस्जिद बनाई जिसे हिंदू रामचंद्र का जन्मस्थान मानते हैं. इस समय हिंदुओं को वहाँ जाने का सीमित अधिकार मिला है और वे सीता-रसोई और रामचंद्र की जन्मभूमि पर मंदिर बनाकर अपना दायरा बढ़ाना चाहते हैं”.
जजमेंट में यह भी कह दिया गया कि रिकार्ड में ऐसा कुछ नहीं है जिससे हिंदू पक्ष का किसी तरह का स्वामित्व दिखे.
इन तीनों अदालतों ने अपने फ़ैसले में विवादित स्थल के बारे में हिंदुओं की आस्था, मान्यता और जनश्रुति का उल्लेख तो किया लेकिन अपने फ़ैसले का आधार रिकार्ड पर उपलब्ध सबूतों को बनाया और शांति व्यवस्था की तत्कालीन ज़रूरत पर ज़्यादा ध्यान दिया.
1934 में बक़रीद के दिन पास के एक गाँव में गोहत्या को लेकर दंगा हुआ जिसमें बाबरी मस्जिद को नुकसान पहुंचा लेकिन ब्रिटिश सरकार ने इसकी मरम्मत करवा दी.
1936 में मुसलमानों के दो समुदायों शिया और सुन्नी के बीच इस बात पर क़ानूनी विवाद उठ गया कि मस्जिद किसकी है. वक़्फ़ कमिश्नर ने इस पर जाँच बैठाई. मस्जिद के मुतवल्ली यानी मैनेजर मोहम्मद ज़की का दावा था कि मीर बाक़ी शिया था, इसलिए यह शिया मस्जिद हुई.
लेकिन ज़िला वक़्फ़ कमिश्नर मजीद ने 8 फ़रवरी 1941 को अपनी रिपोर्ट में कहा कि मस्जिद की स्थापना करने वाला बादशाह सुन्नी था और उसके इमाम तथा नमाज़ पढ़ने वाले सुन्नी हैं, इसलिए यह सुन्नी मस्जिद हुई.
इसके बाद शिया वक़्फ़ बोर्ड ने सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड के ख़िलाफ़ फ़ैज़ाबाद के सिविल जज की कोर्ट में मुक़दमा कर दिया.
सिविल जज एसए अहसान ने 30 मार्च 1946 को शिया समुदाय का दावा ख़ारिज कर दिया. यह मुक़दमा इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि आज भी शिया समुदाय के कुछ नेता इसे अपनी मस्जिद बताते हुए मंदिर निर्माण के लिए ज़मीन देने की बात करते हैं.
जब अंग्रेज़ी राज ख़त्म होने को आया तो हिंदुओं की तरफ़ से फिर चबूतरे पर मंदिर निर्माण की हलचल हुई लेकिन सिटी मजिस्ट्रेट शफ़ी ने दोनों समुदायों के परामार्श से लिखित आदेश पारित किया कि न तो चबूतरा पक्का बनाया जाएगा, न मूर्ति रखी जाएगी और दोनों पक्ष यथास्थिति बहाल रखेंगे.
इसके बाद भी मुसलमानों की ओर से लिखित शिकायतें आती रहीं कि हिंदू वैरागी नमाज़ियों को परेशान करते हैं.
देश विभाजन के बाद बड़ी तादाद में अवध के मुसलमान, ख़ास तौर पर रसूख वाले लोग, पाकिस्तान चले गए. विभाजन के दंगों को रोकने और सांप्रदायिक सौहार्द क़ायम करने की कोशिश में लगे महात्मा गांधी की हत्या कर दी गई.
राम मंदिर बना चुनावी मुद्दा
इसी बीच समाजवादियों ने कांग्रेस से अलग होकर अपनी पार्टी बनाई और आचार्य नरेंद्र देव समेत सभी विधायकों ने विधानसभा से त्यागपत्र दे दिया. मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत ने अयोध्या उपचुनाव में आचार्य नरेंद्र देव के ख़िलाफ़ एक बड़े हिंदू संत बाबा राघव दास को उम्मीदवार बनाया.
अयोध्या में मंदिर निर्माण इस चुनाव में अहम मुद्दा बन गया और बाबा राघव दास को समर्थन मिलने लगा. मुख्यमंत्री पंत ने अपने भाषणों में बार-बार कहा कि आचार्य नरेंद्र देव राम को नहीं मानते. समाजवाद के पुरोधा आचार्य नरेंद्र देव चुनाव हार गए.
वक़्फ़ इंस्पेक्टर मोहम्मद इब्राहिम 10 दिसंबर 1948 को अपनी रिपोर्ट में मस्जिद पर ख़तरे के बारे में प्रशासन को विस्तार से सतर्क करते हैं. उन्होंने लिखा कि हिंदू वैरागी वहाँ मस्जिद के सामने तमाम कब्रों-मज़ारों को साफ़ करके रामायण पाठ कर रहे हैं और वे जबरन मस्जिद पर क़ब्ज़ा कर रहे हैं.
इंस्पेक्टर ने लिखा कि अब मस्जिद में केवल शुक्रवार की नमाज़ हो पाती है. हिंदुओं की भीड़ लाठी-फरसा वग़ैरह लेकर इकट्ठा हो रही है.
बाबा राघव दास की जीत से मंदिर समर्थकों के हौसले बुलंद हुए और उन्होंने जुलाई 1949 में उत्तर प्रदेश सरकार को पत्र लिखकर फिर से मंदिर निर्माण की अनुमति माँगी. उत्तर प्रदेश सरकार के उप-सचिव केहर सिंह ने 20 जुलाई 1949 को फ़ैज़ाबाद डिप्टी कमिश्नर केके नायर से जल्दी से अनुकूल रिपोर्ट माँगते हुए पूछा कि वह ज़मीन नजूल की है या नगरपालिका की.
सिटी मजिस्ट्रेट गुरुदत्त सिंह ने 10 अक्टूबर को कलेक्टर को अपनी रिपोर्ट दी जिसमें उन्होंने कहा कि वहाँ मौक़े पर मस्जिद के बग़ल में एक छोटा-सा मंदिर है. इसे राम जन्मस्थान मानते हुए हिंदू समुदाय एक सुंदर और विशाल मंदिर बनाना चाहता है. सिटी मजिस्ट्रेट ने सिफ़ारिश की कि यह नजूल की ज़मीन है और मंदिर निर्माण की अनुमति देने में कोई रुकावट नहीं है.
वह संक्रांति काल था और कुछ ही दिनों में देश में नया संविधान लागू होने वाला था.
मस्जिद के अंदर मूर्तियाँ
हिंदू वैरागियों ने अगले महीने 24 नवंबर से मस्जिद के सामने क़ब्रिस्तान को साफ़ करके वहाँ यज्ञ और रामायण पाठ शुरू कर दिया जिसमें काफ़ी भीड़ जुटी. झगड़ा बढ़ता देखकर वहाँ एक पुलिस चौकी बनाकर सुरक्षा में अर्धसैनिक बल पीएसी लगा दी गई.
पीएसी तैनात होने के बावजूद 22-23 दिसंबर 1949 की रात अभय रामदास और उनके साथियों ने दीवार फाँदकर राम-जानकी और लक्ष्मण की मूर्तियाँ मस्जिद के अंदर रख दीं और यह प्रचार किया कि भगवान राम ने वहाँ प्रकट होकर अपने जन्मस्थान पर वापस क़ब्ज़ा प्राप्त कर लिया है.
मुस्लिम समुदाय के लोग शुक्रवार सुबह की नमाज़ के लिए आए मगर प्रशासन ने उनसे कुछ दिन की मोहलत माँगकर उन्हें वापस कर दिया. कहा जाता है कि अभय राम की इस योजना को गुप्त रूप से कलेक्टर नायर का आशीर्वाद प्राप्त था. वह सुबह मौक़े पर आए तो भी अतिक्रमण हटवाने की कोशिश नहीं की, बल्कि क़ब्ज़े को रिकॉर्ड पर लाकर पुख़्ता कर दिया.
सिपाही माता प्रसाद की सूचना पर अयोध्या कोतवाली के इंचार्ज रामदेव दुबे ने एक मुक़दमा क़ायम किया, जिसमें कहा गया कि पचास-साठ लोगों ने दीवार फाँदकर मस्जिद का ताला तोड़ा, मूर्तियाँ रखीं और जगह-जगह देवी-देवताओं के चित्र बना दिए. रपट में यह भी कहा गया कि इस तरह बलवा करके मस्जिद को अपवित्र कर दिया गया.
इसी पुलिस रिपोर्ट के आधार पर अतिरिक्त सिटी मजिस्ट्रेट ने उसी दिन दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 145 के तहत कुर्की का नोटिस जारी कर दिया.
उधर दिल्ली में नाराज़ प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 26 दिसंबर को मुख्यमंत्री पंत को तार भेजकर कहा, “अयोध्या की घटना से मैं बहुत विचलित हूँ. मुझे पूरा विश्वास है कि आप इस मामले में व्यक्तिगत रुचि लेंगे. ख़तरनाक मिसाल कायम की जा रही है, जिसके परिणाम बुरे होंगे.”
उत्तर प्रदेश सरकार के मुख्य सचिव ने कमिश्नर फ़ैज़ाबाद को लखनऊ बुलाकर डाँट लगाई और पूछा कि प्रशासन ने इस घटना को क्यों नहीं रोका और फिर सुबह मूर्तियाँ क्यों नहीं हटवाईं?
ज़िला मजिस्ट्रेट नायर ने इसका उल्लेख करते हुए चीफ़ सेक्रेटरी भवान सहाय को लंबा पत्र लिखा जिसमें कहा कि इस मुद्दे को व्यापक जन समर्थन है और प्रशासन के थोड़े से लोग उन्हें रोक नहीं सकते. अगर हिंदू नेताओं को गिरफ़्तार किया जाता तो हालात और ख़राब हो जाते.
बाग़ी तेवर में नायर ने लिखा कि वह और ज़िला पुलिस कप्तान मूर्ति हटाने से बिल्कुल सहमत नहीं हैं और अगर सरकार किसी क़ीमत पर ऐसा करना ही चाहती है तो पहले उन्हें वहाँ से हटाकर दूसरा अफ़सर तैनात कर दे.
आरएसएस और हिंदू सभा के लोग सक्रिय रूप से क़ब्ज़े की कार्यवाही में सहयोग कर रहे थे. बाद में ये बात सामने आई कि ज़िला कलेक्टर नायर और सिटी मजिस्ट्रेट गुरुदत्त सिंह दोनों आरएसएस से जुड़े थे. नायर तो बाद में जनसंघ के टिकट पर लोकसभा का चुनाव भी जीते.
केंद्र और राज्य सरकार हस्तक्षेप करती उससे पहले ही क़ब्ज़े को पुख़्ता शक्ल देने के लिए अतिरिक्त सिटी मजिस्ट्रेट मार्कण्डेय सिंह ने यह कहते हुए विवादित बाबरी मस्जिद राम जन्मभूमि इमारत को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 145 के तहत कुर्क कर लिया, उनका कहना था कि उस पर स्वामित्व और क़ब्ज़े को लेकर हिंदू-मुसलमानों में हो रहे झगड़े से शांति भंग हो सकती है.
नगरपालिका चेयरमैन प्रियदत्त राम को रिसीवर नियुक्त कर उन्हें मूर्तियों की पूजा और भोग वग़ैरह की ज़िम्मेदारी दी गई.
इस सबसे दुखी प्रधानमंत्री नेहरू ने गृह मंत्री सरदार पटेल को लखनऊ भेजा और मुख्यमंत्री पंत को कई पत्र लिखे. ज़रूरत पड़ने पर उन्होंने खुद भी अयोध्या जाने की बात कही. उस समय देश विभाजन के बाद के दंगों, मारकाट और आबादी की अदला-बदली से उबर ही रहा था और पाकिस्तान के हमले से कश्मीर के हालात भी नाज़ुक थे.
पंत को लिखे पत्र में नेहरू ने चिंता प्रकट की कि अयोध्या में मस्जिद पर क़ब्ज़े की घटना का पूरे देश, विशेषकर कश्मीर पर बुरा असर पड़ेगा, जहाँ की बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी ने भारत के साथ रहने का फ़ैसला किया था.
क़रीब-क़रीब लाचार नेहरू ने कहा कि गृह राज्य होने के बावजूद उत्तर प्रदेश में उनकी बात नहीं सुनी जा रही और स्थानीय कांग्रेस नेता सांप्रदायिक होते जा रहे हैं.
फ़ैज़ाबाद में कांग्रेस के महामंत्री अक्षय ब्रह्मचारी इस घटना के विरोध में लंबे समय तक अनशन पर रहे और उत्तर प्रदेश के तत्कालीन गृह मंत्री लालबहादुर शास्त्री को ज्ञापन दिया.
विधानसभा में भी मुद्दा उठा लेकिन सरकार ने एक लाइन का संक्षिप्त जवाब दिया कि मामला न्यायालय में है इसलिए ज़्यादा कुछ कहना उचित नहीं.
सिविल मुक़दमे
16 जनवरी 1950 को गोपाल सिंह विशारद ने सिविल जज की अदालत में, सरकार, ज़हूर अहमद और अन्य मुसलमानों के खिलाफ़ मुक़दमा दायर कर कहा कि जन्मभूमि पर स्थापित श्री भगवान राम और अन्य मूर्तियों को हटाया न जाए और उन्हें दर्शन और पूजा के लिए जाने से रोका न जाए.
सिविल जज ने उसी दिन यह स्थागनादेश जारी कर दिया, जिसे बाद में मामूली संशोधनों के साथ ज़िला जज और हाईकोर्ट ने भी अनुमोदित कर दिया.
स्थगनादेश को इलाहाबाद हाइकोर्ट में चुनौती दी गई जिससे फ़ाइल पाँच साल वहाँ पड़ी रही. नए जिला मजिस्ट्रेट जेएन उग्रा ने सिविल कोर्ट में अपने पहले जवाबी हलफ़नामे में कहा, “विवादित संपत्ति बाबरी मस्जिद के नाम से जानी जाती है और मुसलमान इसे लंबे समय से नमाज़ के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं. इसे राम चन्द्र जी के मंदिर के रूप में नहीं इस्तेमाल किया जाता था. 22 दिसंबर की रात वहाँ चोरी-छिपे और ग़लत तरीक़े से श्री रामचंद्र जी की मूर्तियाँ रख दी गई थीं.”
कुछ दिनों बाद दिगंबर अखाड़ा के महंत रामचंद्र परमहंस ने भी विशारद जैसा एक और सिविल केस दायर किया. परमहंस मूर्तियाँ रखने वालों में से एक थे और बाद में विश्व हिंदू परिषद के आंदोलन में उनकी बड़ी भूमिका थी. इस मुक़दमे में भी मूर्तियाँ न हटाने और पूजा जारी रखने का आदेश हुआ.
कई साल बाद 1989 में जब रिटायर्ड जज देवकी नंदन अग्रवाल ने स्वयं भगवान राम की मूर्ति को न्यायिक व्यक्ति क़रार देते हुए नया मुक़दमा दायर किया तब परमहंस ने अपना केस वापस कर लिया.
मूर्तियाँ रखने के क़रीब दस साल बाद 1951 में निर्मोही अखाड़े ने जन्मस्थान मंदिर के प्रबंधक के नाते तीसरा मुक़दमा दायर किया. इसमें राम मंदिर में पूजा और प्रबंध के अधिकार का दावा किया गया.
दो साल बाद 1961 में सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड और नौ स्थानीय मुसलमानों की ओर से चौथा मुक़दमा दायर हुआ इसमें न केवल मस्जिद बल्कि अगल-बगल क़ब्रिस्तान की ज़मीनों पर भी स्वामित्व का दावा किया गया.
ज़िला कोर्ट इन चारों मुक़दमों को एक साथ जोड़कर सुनवाई करने लगी. दो दशक से ज़्यादा समय तक यह एक सामान्य मुक़दमे की तरह चलता रहा और इसकी वजह से अयोध्या के स्थानीय हिंदू-मुसलमान अच्छे पड़ोसी की तरह रहते रहे. इतना ही नहीं, मुक़दमे के दोनों मुख्य पक्षकारों परमहंस और हाशिम अंसारी ने मुझे बताया था कि वे एक ही गाड़ी में हँसते-बतियाते कोर्ट जाते थे. बिना हिचक रात-बिरात एक दूसरे के घर आते-जाते थे.
मैंने दिगंबर अखाड़े में एक साथ दोनों का इंटरव्यू लिया था. अब वे दोनों इस दुनिया में नहीं हैं.
मंदिर-मस्जिद की राजनीति
इमरजेंसी के बाद 1977 में जनसंघ और अन्य विपक्षी दलों के विलय से बनी जनता पार्टी ने इंदिरा गांधी को सत्ता से बेदखल कर दिया, लेकिन इनकी आपसी फूट से सरकार तीन साल भी नहीं पूरे नहीं कर पाई. इंदिरा गांधी 1980 में सत्ता में वापस आ गईं.
संघ परिवार ने मंथन शुरू किया कि अगले चुनाव से पहले हिंदुओं को कैसे राजनीतिक रूप से एकजुट करें? हिंदुओं के तीन सबसे प्रमुख आराध्य– राम, कृष्ण और शिव से जुड़े स्थानों अयोध्या, मथुरा और काशी की मस्जिदों को केंद्र बनाकर आंदोलन छेड़ने की रणनीति बनी.
7-8 अप्रैल को दिल्ली के विज्ञान भवन में धर्म संसद का आयोजन कर तीनों धर्म स्थानों की मुक्ति का प्रस्ताव पास किया गया. चूँकि काशी और मथुरा में स्थानीय समझौते से मस्जिद से सटकर मंदिर बन चुके हैं इसलिए पहले अयोध्या पर फ़ोकस करने का निर्णय किया गया.
27 जुलाई 1984 को राम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति का गठन हुआ. एक मोटर का रथ बनाया गया जिसमें राम-जानकी की मूर्तियों को अंदर क़ैद दिखाया गया. 25 सितंबर को यह रथ बिहार के सीतामढ़ी से रवाना हुआ, आठ अक्टूबर को अयोध्या पहुँचते-पहुँचते हिंदू जन समुदाय में अपने आराध्य को इस लाचार हालत में देखकर आक्रोश और सहानुभूति पैदा हुई.
मुख्य माँग यह थी कि मस्जिद का ताला खोलकर ज़मीन मंदिर निर्माण के लिए हिन्दुओं को दे दी जाए. इसके लिए साधु-संतों का राम जन्मभूमि न्यास बनया गया.
प्रबल जन समर्थन जुटाती हुई यह यात्रा लखनऊ होते हुए 31 अक्टूबर को दिल्ली पहुँची. उसी दिन इंदिरा गांधी की हत्या के कारण उत्पन्न अशांति के कारण दो नवंबर को प्रस्तावित विशाल हिंदू सम्मेलन और आगे के कार्यक्रम स्थगित करना पड़ा.
आम चुनाव में राजीव गांधी को प्रचंड बहुमत मिला पर वह राजनीतिक और प्रशासनिक दृष्टि से अनुभवी नहीं थे.
इसके बाद विश्व हिंदू परिषद ने मस्जिद का ताला खोलने के लिए फिर आंदोलन तेज़ किया और शिवरात्रि छह मार्च 1986 तक ताला न खुला तो ज़बरन ताला तोड़ने की धमकी दी.
आंदोलन को धार देने के लिए आक्रामक बजरंग दल का गठन किया गया, जन भावनाओं को संतुष्ट करने के लिए उत्तर प्रदेश की वीर बहादुर सरकार ने विवादित स्थल के समीप क़रीब 42 एकड़ ज़मीन लेकर विशाल राम कथा पार्क के निर्माण का ऐलान किया और सरयू नदी से अयोध्या के पुराने घाटों तक नहर बनाकर राम की पैड़ी बनाने का काम शुरू किया लेकिन इससे हिन्दुत्ववादी संगठन संतुष्ट नहीं हुए.
ताला खुलना
माना जाता है कि इसी दबाव में आकर राजीव गांधी और उनके साथियों ने फ़ैज़ाबाद ज़िला अदालत में एक ऐसे वक़ील उमेश चंद्र पांडेय से ताला खुलवाने की अर्ज़ी डलवाई, जिसका वहाँ लंबित मुक़दमों से संबंध नहीं था. ज़िला मजिस्ट्रेट और पुलिस कप्तान ने ज़िला जज की अदालत में उपस्थित होकर कहा कि ताला खुलने से शांति व्यवस्था क़ायम रखने में कई परेशानी नहीं होगी. इस बयान को आधार बनाकर ज़िला जज केएम पांडेय ने ताला खोलने का आदेश कर दिया.
घंटे भर के भीतर इस पर अमल करके दूरदर्शन पर समाचार भी प्रसारित कर दिया गया, जिससे यह धारणा बनी कि यह सब प्रायोजित था. इसके बाद ही पूरे हिंदुस्तान और दुनिया को अयोध्या के मंदिर-मस्जिद विवाद का पता चला. प्रतिक्रिया में मुस्लिम समुदाय ने मस्जिद की रक्षा के लिए बाबरी मोहम्मद आज़म खान और ज़फ़रयाब जिलानी की अगुआई में बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति का गठन कर जवाबी आंदोलन चालू किया.
इस बीच मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के नेताओं ने राजीव गांधी पर दबाव डाला कि एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला शाहबानो को गुज़ारा भत्ता देने का सुप्रीम कोर्ट का आदेश संसद में क़ानून बनाकर पलट दिया जाए. राजीव गांधी सरकार ने इस फ़ैसले को उलटने के लिए सांसद में क़ानून पारित करा दिया. इस निर्णय की तीखी आलोचना हुई.
दोनों ओर से सुलह समझौते की भी बातें होती हैं कि हिंदू मस्जिद पीछे छोड़कर राम चबूतरे से आगे ख़ाली ज़मीन पर मंदिर बना लें. मगर संघ परिवार इन सबको नकार देता है.
हिंदू और मुस्लिम दोनों के तरफ़ से देश भर में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति चलती है. भाजपा खुलकर मंदिर आंदोलन के साथ आ जाती है.
भारतीय जनता पार्टी ने 11 जून 1989 को पालमपुर कार्यसमिति में प्रस्ताव पास किया कि अदालत इस मामले का फ़ैसला नहीं कर सकती और सरकार समझौते या संसद में क़ानून बनाकर राम जन्मस्थान हिंदुओं को सौंप दे.
लोगों ने महसूस किया कि अब यह राष्ट्रीय राजनीतिक मुद्दा बन गया गया है जिसका असर अगले लोकसभा चुनाव पर पड़ सकता है.
उत्तर प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने हाईकोर्ट में एक याचिका दायर करके अनुरोध किया कि चारों मुक़दमे फ़ैज़ाबाद से अपने पास मँगाकर जल्दी फ़ैसला कर दिया जाए. 10 जुलाई 1989 को हाईकोर्ट ने मामले अपने पास मंगाने का आदेश दे दिया. हाईकोर्ट ने 14 अगस्त को स्थगनादेश जारी किया कि मामले का फ़ैसला आने तक मस्जिद और सभी विवादित भूखंडों की वर्तमान स्थिति में कोई फ़ेरबदल न किया जाए.
शिलान्यास
विश्व हिंदू परिषद ने 9 नवंबर को राम मंदिर के शिलान्यास और देश भर में शिलापूजन यात्राएँ निकालने की घोषणा की. राजीव गांधी के कहने पर गृह मंत्री बूटा सिंह ने 27 सितंबर को लखनऊ में तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के बंगले पर विश्व हिंदू परिषद से इन यात्राओं के शांतिपूर्ण ढंग से निकालने का वादा लिया.
अशोक सिंघल, महंत अवैद्य नाथ और उनके साथियों ने शांति-सौहार्द और हाईकोर्ट के आदेश के मुताबिक़ यथास्थिति बनाए रखने का लिखित वादा किया.
राजीव गांधी ने रामराज्य की स्थापना के नारे के साथ अपना चुनाव अभियान फ़ैज़ाबाद से शुरू किया. उधर विश्व हिंदू परिषद ने मस्जिद से कुछ दूरी पर शिलान्यास के लिए झंडा गाड़ दिया.
सरकार इस बात को साफ़ करने के लिए हाईकोर्ट में गई कि क्या प्रस्तावित शिलान्यास का भूखंड विवादित क्षेत्र में आता है या नहीं. 7 नवंबर को हाईकोर्ट ने फिर स्पष्ट किया कि यथास्थिति के आदेश में वह भूखंड भी शामिल है.
फिर भी उत्तर प्रदेश सरकार ने यह कहकर 9 नवंबर को शिलान्यास की अनुमति दे दी कि मौक़े पर पैमाइश में वह भूखंड विवादित क्षेत्र से बाहर है.
माना जाता है कि संत देवराहा बाबा की सहमति से किसी फ़ार्मूले के तहत मस्जिद से क़रीब 200 फुट दूर शिलान्यास कराया गया.
शिलान्यास तो हो गया लेकिन मुसलमान समुदाय में तीखी प्रतिक्रिया देखकर सरकार ने आगे का निर्माण रोक दिया.
इस बीच कांग्रेस से बाग़ी वीपी सिंह के नेतृत्व में जनता दल नाम की एक तीसरी राजनीतिक शक्ति का उदय हो चुका था. कांग्रेस चुनाव हार गई और वीपी सिंह बीजेपी और वामपंथी दलों के समर्थन से प्रधानमंत्री बने.
वीपी सिंह और जनता दल का रुझान स्पष्ट रूप से मुसलमानों की तरफ़ दिख रहा था. उत्तर प्रदेश में जनता दल ने पुराने समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव को मुख्यमंत्री चुना, जो पहले विश्व हिंदू परिषद के अयोध्या आंदोलन का विरोध कर चुके थे.
अब बीजेपी ने राम मंदिर आंदोलन को खुलकर अपने हाथ में ले लिया जिसका नेतृत्व लालकृष्ण आडवाणी ने किया.
आडवाणी देश भर में माहौल बनाने के लिए 25 सितंबर 1990 को सोमनाथ मंदिर से 30 अक्टूबर तक अयोध्या की रथयात्रा पर निकले. देश में कई जगह दंगे-फ़साद हुए. लालू प्रसाद यादव ने आडवाणी को बिहार में ही गिरफ़्तार करके रथयात्रा रोक दी.
मुलायम सरकार की तमाम पाबंदियों के बावजूद 30 अक्टूबर को लाखों कार सेवक अयोध्या पहुँचे. लाठी गोली के बावजूद कुछ कारसेवक मस्जिद के गुंबद पर चढ़ गए. मगर अंत में पुलिस भारी पड़ी. प्रशासन ने कारसेवकों पर गोली चलवा दी जिसमें सोलह करसेवक मारे गए, हालाँकि हिंदी अख़बार विशेषांक निकालकर सैकड़ों कारसेवकों के मरने और सरयू के लाल होने की सुर्ख़ियाँ लगाते रहे.
मुलायम सिंह को मुल्ला मुलायम कहा जाने लगा, वे हिंदुओं में बेहद अलोकप्रिय हो गए और अगले विधानसभा चुनाव में उनकी बुरी पराजय हुई. नाराज़ बीजेपी ने केंद्र सरकार से समर्थन वापस ले लिया, जनता दल के अंदर भी देवीलाल ने बग़ावत कर दी.
इसी हंगामे के बीच वीपी सिंह ने पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने के लिए पुरानी मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू कर दी. अब देश में अगड़ों-पिछड़ों या मंडल-कमंडल का खुला संघर्ष छिड़ गया.
1991 के लोकसभा चुनाव के दौरान राजीव गांधी की हत्या हो गई और कांग्रेस के बुज़ुर्ग नेता नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने. उत्तर प्रदेश में मध्यावधि चुनाव में भाजपा के कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने, सरकार बनते ही कल्याण सिंह सरकार ने मस्जिद के सामने की 2.77 एकड़ ज़मीन पर्यटन विकास के लिए अधिग्रहीत कर ली. राम कथा पार्क के लिए अधिग्रहीत 42 एकड़ ज़मीन लीज़ पर विश्व हिंदू परिषद को दे दी गई.
सरकार के निर्देश पर अधिकारी पुराने सिविल मुक़दमों में तथ्य बदलकर नए हलफ़नामे दाख़िल करने लगे. संघ परिवार की मंशा थी कि मस्जिद के सामने पर्यटन के लिए अधिग्रहीत ज़मीन पर मंदिर निर्माण शुरू कर दिया जाए जिसके लिए पत्थर तराशे गए.
मगर हाईकोर्ट ने आदेश दिया कि इस ज़मीन पर स्थायी निर्माण नहीं होगा. फिर भी जब जुलाई में निर्माण शुरू हो गया तो सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया. नरसिम्हा राव सरकार बड़ी मुश्किल से संतों को समझा-बुझाकर यह निर्माण रुकवा पाई.
दिसंबर 1992 में फिर कारसेवा का ऐलान हुआ. कल्याण सरकार और विश्व हिंदू परिषद नेताओं ने सुप्रीम कोर्ट में वादा किया कि सांकेतिक कारसेवा में मस्जिद को क्षति नहीं होगी.
कल्याण सिंह ने पुलिस को बल प्रयोग न करने की हिदायत दी. कल्याण सिंह ने स्थानीय प्रशासन को केंद्रीय बलों की सहायता भी नहीं लेने दी. उसके बाद छह दिसंबर को जो हुआ वह इतिहास में दर्ज हो चुका है. आडवाणी, जोशी और सिंघल जैसे शीर्ष नेताओं, सुप्रीम कोर्ट के ऑब्ज़र्वर ज़िला जज तेजशंकर और पुलिस प्रशासन की मौजूदगी में लाखों कारसेवकों ने छह दिसंबर को मस्जिद की एक-एक ईंट उखाड़कर मलवे के ऊपर एक अस्थायी मंदिर बना दिया.
वहाँ पहले की तरह रिसीवर की देखरेख में दूर से दर्शन-पूजन शुरू हो गया. मुसलमानों ने केंद्र सरकार पर मिलीभगत और निष्क्रियता का आरोप लगाया पर प्रधानमंत्री ने सफ़ाई दी कि संविधान के अनुसार शांति व्यवस्था राज्य सरकार की ज़िम्मेदारी थी और उन्होंने क़ानून के दायरे में रहकर जो हो सकता है किया. उन्होंने मस्जिद के पुनर्निर्माण का भरोसा भी दिया.
मस्जिद ध्वस्त होने के कुछ दिनों बाद हाईकोर्ट ने कल्याण सरकार की ज़मीन अधिग्रहण की कार्रवाई को ग़ैरक़ानूनी क़रार दे दिया. जनवरी 1993 में केंद्र सरकार ने मसले के स्थायी समाधान के लिए संसद से क़ानून बनाकर विवादित परिसर और आसपास की लगभग 67 एकड़ ज़मीन को अधिग्रहीत कर लिया.
हाईकोर्ट में चल रहे मुक़दमे समाप्त करके सुप्रीम कोर्ट से राय माँगी गई कि क्या बाबरी मस्जिद का निर्माण कोई पुराना हिंदू मंदिर तोड़कर किया गया था यानी विवाद को इसी भूमि तक सीमित कर दिया गया.
इस क़ानून की मंशा थी कि कोर्ट जिसके पक्ष में फ़ैसला देगी उसे अपना धर्म स्थान बनाने के लिए मुख्य परिसर दिया जाएगा और थोड़ा हटकर दूसरे पक्ष को ज़मीन दी जाएगी. दोनों धर्म स्थलों के लिए अलग ट्रस्ट बनेंगे. यात्री सुविधाओं का भी निर्माण होगा. फ़ैज़ाबाद के कमिश्नर को केंद्र सरकार की ओर से रिसीवर नियुक्त किया गया.
लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस सवाल का जवाब देने से इनकार कर दिया कि क्या वहाँ मस्जिद से पहले कोई हिंदू मंदिर था. जजमेंट में कहा गया कि अदालत इस तथ्य का पता लगाने में सक्षम नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट में चल रहे मुक़दमों को भी बहाल कर दिया, जिससे दोनों पक्ष न्यायिक प्रक्रिया से विवाद निबटा सकें.
हाईकोर्ट ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग से बाबरी मस्जिद और राम चबूतरे के नीचे खुदाई करवाई जिसमें काफ़ी समय लगा. रिपोर्ट में कहा गया कि नीचे कुछ ऐसे निर्माण मिले हैं जो उत्तर भारत के मंदिरों जैसे हैं. इसके आधार पर हिंदू पक्ष ने नीचे पुराना राम मंदिर होने का दावा किया, जबकि अन्य इतिहासकारों ने इस निष्कर्ष को ग़लत बताया.
लंबी सुनवाई, गवाही और दस्तावेज़ी सबूतों के बाद 30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जजमेंट दिया. तमाम परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर तीनों जजों ने यह माना कि भगवान रामचंद्र जी का जन्म मस्जिद के बीच वाले गुंबद वाली ज़मीन पर हुआ होगा. लेकिन ज़मीन पर मालिकाना हक़ के बारे में किसी के पास पुख़्ता सबूत नहीं थे.
दीर्घकालीन क़ब्ज़े के आधार पर भगवान राम, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड के बीच तीन हिस्सों में बाँट दिया. इसे एक पंचायती फ़ैसला भी कहा गया, जिसे सभी पक्षकारों ने नकार दिया.
अब क़रीब एक दशक बाद सुप्रीम कोर्ट को अंतिम निर्णय देना है.
अदालती विवाद अब महज़ आधा बिस्वा या लगभग 1500 वर्ग-गज ज़मीन का है जिस पर विवादित बाबरी मस्जिद ज़मीन खड़ी थी. लेकिन धर्म, इतिहास, आस्था और राजनीति के घालमेल ने इसे इतना जटिल और संवेदनशील बना दिया है कि सुप्रीम कोर्ट का आने वाला फ़ैसला न केवल भारत बल्कि दक्षिण एशिया और उससे बाहर भी असर डालेगा.
यह भी देखना होगा कि क्या अदालत इतिहास में हुई ग़लतियों या ज़्यादती को सुधार सकती है या वह वर्तमान क़ानूनों की परिधि में ही रहकर निर्णय दे सकती है.