क्या है शहरीकरण आयोग?
क्या है शहरीकरण आयोग? हाल ही में केरल ने इसकी स्थापना की घोषणा क्यों की ….
जैसे ही 2024 शुरू हुआ, शहरी क्षेत्र में कुछ अच्छी खबरें आने लगीं, जिसमें एक खबर ये है कि लगभग 38 सालों के बाद, इस बार केरल राज्य में शहरी आयोग बनाया गया है।
शहरीकरण पर पहला राष्ट्रीय आयोग भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा 1986 में बनाया गया था,और इसको देश के बेहतरीन वास्तुकारों में से एक चार्ल्स कोरिया ने बनाया था।
हालांकि, राजीव गांधी की हत्या के बाद कुछ महत्वपूर्ण सिफारिशों पर ध्यान नहीं दिया गया, लेकिन 74वां संवैधानिक संशोधन सकारात्मक परिणामों में से एक था। तब से शहरी विकास में ज्यादा निजी पहल और निवेश के लिए नीतियों में बदलाव आया है।
शहरी आयोग की जरूरत
वर्तमान में, दुनिया की आधी से ज्यादा (56%) आबादी शहरों में रहती है। जब मार्क्स द्वारा पूंजी लिखी गई थी, तब शहरों को औद्योगिक उत्पादन और पूंजी संचय का केंद्र माना जाता था, तब शहरी केंद्रों में वैश्विक आबादी का केवल 5% से ज्यादा हिस्सा रहता था। आज शहरीकरण की प्रक्रिया ने दुनिया भर में अभूतपूर्व परिवर्तन आए हैं।
इसने न सिर्फ जलवायु परिवर्तन को प्रभावित किया है, बल्कि बड़े पैमाने पर भूमि के उपयोग, भवन का प्रकार, अलग ढंग से बसे शहर, अनौपचारिकता, प्रदूषण का संकट, आवास, जल और स्वच्छता संबंधी चुनौतियों और कुछ सबसे अलग तरह से बसे शहरों में परिवर्तन पैदा किए हैं।
पूंजी संचय (Capital Accumulation) की प्रमुख प्रक्रियाओं में से ही एक शहर विकास की प्रक्रिया है।
स्वतंत्र भारत ने शहरी क्षेत्र में विकास के दो महत्वपूर्ण दौर देखे हैं। नेहरूवादी काल लगभग तीन दशकों तक चला और 1980 के दशक के अंत में खत्म होना शुरू हुआ।
इस समय के दौरान, पूरे शहर की समझ के साथ लगभग 150 नए कस्बों का निर्माण किया गया, जिसकी एक विशेषता मास्टर प्लान और विकास योजनाओं पर जोर देने वाली केंद्रीकृत प्रक्रिया है।
हालांकि, यह प्रक्रिया भी बुरी तरह फैल रही, क्योंकि यह राज्य के मूल विचार से प्रेरित थी कि वह पूंजी संचय (कैपिटल गैन) के एक बुनियादी साधन के रूप में कार्य करे, जिससे लाखों लोगों को ग्रामीण से शहरी की ओर धकेला जा सके और मैन्युफैक्चरिंग को प्रेरणा देने वाली शक्ति बनाया जा सके।
आज मैन्युफैक्चरिंग शहरों की ओर पलायन को बढ़ाने की एकमात्र वजह नहीं रह गया, क्योंकि इसमें बुरी तरह गिरावट आई और नए सेक्टर भी खुल गए। शहरों ने अभी भी लाखों लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया है, जबकि अनौपचारिक क्षेत्र केंद्र में है और शहरी योजनाएं बुरी तरह विफल रही हैं।
1990 का दशक वह समय है, जहां शहरों का निजीकरण बड़े स्तर पर शुरू हुआ और वैश्विक शहरों की छवि वैसी थी, जिस पर विकास प्रक्रिया की बात की गई थी।
जहां, मास्टर प्लान बड़े पैरास्टैटल्स को सौंप दिए गए थे,और ऐसी योजनाएं बनाने के लिए बड़ी कंसल्टेंसी फर्मों को काम पर रखा गया था।
इन कंपनियों ने सामाजिक आवास, सार्वजनिक स्वास्थ्य, शिक्षा की सोच को छोड़ दिया और माना जाता है कि रियल एस्टेट इस सोच का मुख्य हिस्सा था।
शहरों को प्रतिस्पर्धी बनाया गया और उन्हें ज्ञान देने वाले, सपनों का भविष्य और घर देने की बजाय ‘विकास का इंजन की तरह पहचाना गया।
पूरे शहर की सोच के बजाय, एक प्रोजेक्ट से जुड़ा दृष्टिकोण जिसमें जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन और स्मार्ट सिटी मिशन चर्चा का हिस्सा बन गए थे।
इस स्थिति में 1985 में बनाए गए शहरी आयोग पर दोबारा गौर करने की जरूरत है। थोड़े-थोड़े की सोच से कोई मदद नहीं मिलेगी और न ही इससे शहर कोई सफलता हासिल कर पा रहे हैं।
इसलिए, शहरीकरण के कुछ दिलचस्प पैटर्न को समझने के लिए राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर एक शहरी आयोग की जरूरत है। इनमें माइग्रेशन का मुद्दा एक है और सेटलमेंट पैटर्न एक और बात है। सूचना प्रौद्योगिकी (IT) इसको सफल बनाने में एक है, लेकिन इसको फैल करने वालों में से भी एक हो सकती है। IT की बेहतर समझ जरूरी है और इसे विकसित किया जाना चाहिए।
शहरीकरण की इस प्रक्रिया को कुछ मिशन, जैसे स्वच्छ भारत मिशन या अटल नवीकरण और शहरी परिवर्तन मिशन (अमृत), राष्ट्रीय विरासत शहर विकास और संवर्धन योजना (हृदय), या प्रधान मंत्री आवास योजना (PMAY) तक सीमित नहीं किया जा सकता है।
वे सभी अपने लक्ष्य को पाने में विफल रहे हैं, और वास्तविकताओं से दूर होने के कारण उनका और ज्यादा फैल होना तय है।
इसी तरह, शहरों में शासन व्यवस्था सचमुच अस्त-व्यस्त है। 12वें शेड्यूल के तहत जिन अठारह विषयों को शहरों में ट्रांसफर किया जाना था,वे अभी भी दूर हैं।
राजनीतिक हलकों में इस बात पर बहस चल रही है कि शहर के मामलों को चलाने के लिए निर्वाचित अधिकारियों के बजाय मैनेजर होने चाहिए।
15वे वित्त आयोग की सिफारिशों से वित्तीय वास्तुकला में ज्यादा केंद्रीकरण स्पष्ट है, जहां शहरों को प्रॉपर्टी टैक्स इकट्ठा करना शहर के प्रदर्शन से जुड़ा हुआ है और इसमें वृद्धि राज्य में GST के अनुरूप होनी चाहिए। ये शहरी क्षेत्र में होने वाली जटिल प्रक्रियाएं हैं। केरल शहरी आयोग के गठन को इसी तरह देखा जाना चाहिए। केरल ने शहरी नीति आयोग की इस पहल को अपनाया है,जिसे इन मुश्किलों का हल ढूंढना चाहिए।
इस आयोग के कुछ सदस्यों में डबलिन के एक शहरी प्रोफेसर एम.सतीश कुमार, इतिहासकार जानकी नायर और के.टी. शामिल हैं। रवींद्रन, स्कूल ऑफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर, नई दिल्ली में शहरी डिजाइन के प्रोफेसर और प्रमुख हैं।
आयोग के एक वर्ष के समय का उद्देश्य शहरीकरण की चुनौतियों का समाधान करना है। विशेष रूप से केरल की शहरीकृत आबादी को लेकर,जिसका अनुमान नीति आयोग ने लगभग 90% लगाया है।
आयोग का काम कम से कम 25 वर्षों के लिए शहरी विकास के लिए एक रोड मैप तैयार करना है। केरल के शहरी विकास को वैश्विक और राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर शुरू की गई समग्र शहरी प्रक्रियाओं से अलग नहीं किया जा सकता है और इसलिए उनका उचित आकलन भी जरूरी है।
अन्य राज्यों के लिए प्रेरणा
राष्ट्रीय आयोग जरूरी था। हालांकि, इसके नहीं होने से केरल शहरी आयोग गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और पंजाब जैसे अन्य राज्यों के लिए प्रेरणा हो सकता है, जिनकी शहरी आबादी ज्यादा है।
यह शहरी आयोग को आगे बढ़ाने की प्रक्रिया है, जो इन अत्यधिक शहरी आबादी वाले राज्यों के लिए एक सीख होनी चाहिए।
केरल शहरी आयोग शहरीकरण को संपूर्ण प्रक्रिया के रूप में समझने में शेष भारत का नेतृत्व कर सकता है