चुनावी धांधलियां लोकतंत्र के लिए अशुभ संकेत हैं
चुनावी धांधलियां लोकतंत्र के लिए अशुभ संकेत है
चंडीगढ़ में महापौर पद के लिए हुए एक अपेक्षाकृत महत्वहीन चुनाव ने हमारे लोकतंत्र की कमजोरियों को उजागर कर दिया। वहां एक पीठासीन अधिकारी को कथित तौर पर मतपत्रों के साथ ‘छेड़खानी’ करते हुए कैमरे में कैद किया गया है। इससे नाराज सुप्रीम कोर्ट ने उस पर मुकदमा चलाने और उसके कृत्य को लोकतंत्र का मजाक और उसकी हत्या तक करार दे दिया।
ये कठोर टिप्पणियां फिलहाल भले ही न्यायिक दृष्टिकोण हों, पर अदालत कड़ी कार्रवाई के मूड में है। लेकिन यहां परेशान करने वाला सवाल यह है कि अगर महापौर पद चुनाव में प्रथम दृष्टया अनियमितताएं हो सकती हैं, तो जब दांव पर बहुत अधिक हो तो क्या नहीं हो सकता?
चंडीगढ़ की घटना हमारे गिरते नैतिक मानकों, उन्मादी प्रतिस्पर्धा और ‘येन-केन-प्रकारेण’ की प्रवृत्ति के कारण राजनीति में आई गिरावट का आईना है। इसकी क्रोनोलॉजी को समझें। 18 जनवरी को होने वाला चुनाव अंतिम समय में स्थगित कर दिया गया, क्योंकि पीठासीन अधिकारी अचानक बीमार पड़ गए और अस्पताल में भर्ती हो गए।
जब अदालत के हस्तक्षेप के कारण शीघ्र मतदान कराना पड़ा तो चुनाव संदिग्ध शैली में आयोजित किया गया। आठ वोट रहस्यमय तरीके से अमान्य कर दिए गए। विपक्षी आम आदमी पार्टी-कांग्रेस गठबंधन के पोलिंग एजेंटों को अमान्य मतपत्रों को देखने की अनुमति तक नहीं दी गई।
इसके बाद आनन-फानन में भाजपा उम्मीदवार को एकतरफा तौर पर नया महापौर घोषित कर दिया गया। पीठासीन अधिकारी अनिल मसीह भाजपा अल्पसंख्यक मोर्चे के सदस्य रहे हैं, इससे उनकी भूमिका और संदिग्ध हो जाती है।
इसे स्थानीय मामला मानकर नहीं टाला जा सकता। यह चुनाव ‘इंडिया’ गठबंधन के हिस्से के रूप में आप और कांग्रेस के साथ आने की पृष्ठभूमि में हुआ था। इन अर्थों में यह इस गठबंधन के लिए इस बात का परीक्षण करने वाला पहला चुनाव था कि क्या वह एक प्रमुख राजनीतिक ताकत पर बढ़त हासिल कर सकता है?
भाजपा के लिए भी यह आम चुनाव से पहले विपक्ष के गिरते मनोबल को और कमजोर करने का अवसर था। इसी कारण से चंडीगढ़ से मिले संकेत चिंताजनक हैं। यदि अधिक संख्या जुटाने में सक्षम होने (वहां आप-कांग्रेस गठजोड़ को भाजपा के 16 के मुकाबले 20 पार्षदों का समर्थन प्राप्त था) के बावजूद जीत छीन ली जाए तो क्या गारंटी है भविष्य में ऐसा नहीं होगा?
ऐसा संशय करने का कारण यह भी है कि उक्त मामले में पीठासीन अधिकारी का व्यवहार एक ऐसे पैटर्न में फिट बैठता है, जिसमें संवैधानिक पदाधिकारी और लोकतांत्रिक संस्थाएं आज खुद को सवालों के घेरे में पाती हैं। राज्यपालों की भूमिका (झारखंड नवीनतम उदाहरण है) को उनकी पक्षधरता के चश्मे से परखा जा रहा है। ईडी और सीबीआई पर सत्तारूढ़ प्रतिष्ठान का उपकरण बन जाने के आरोप लग रहे हैं। अब तो चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर भी सवाल उठने लगे हैं।
इस मामले में यह जाना-पहचाना तर्क दिया जाता है कि सत्ता के दुरुपयोग की प्रवृत्ति 2014 में शुरू नहीं हुई थी। सदियों से राजनीति में यह अंतर्निहित रही है। क्या इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा नहीं की थी और अपने प्रतिद्वंद्वियों को गिरफ्तार नहीं करवा दिया था? क्या उन्होंने 50 बार राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल नहीं किया था?
क्या राजीव गांधी प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिए मानहानि विधेयक नहीं लाए थे? क्या नरसिंह राव ने अपने विरोधियों को घेरने के लिए ‘हवाला’ जांच का सहारा नहीं लिया था? क्या बंगाल में विपक्ष शासित सरकारें- चाहे वे वामपंथी हों या तृणमूल कांग्रेस- पंचायत चुनावों में धांधली की दोषी नहीं रही हैं? और क्या खुद जवाहरलाल नेहरू ने पहले संशोधन के माध्यम से बोलने की स्वतंत्रता को बाधित नहीं किया था और केरल में लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई वामपंथी सरकार को बर्खास्त नहीं कर दिया था?
पर किंतु-परंतु का औचित्य नहीं, क्योंकि यह सरकार ‘अच्छे दिन’ लाने का वादा करके ही सत्ता में आई थी। इस बात पर भी जोर दिया गया था कि भाजपा सबसे अलग पार्टी है। भाजपा नेताओं के लिए बहुमत की सरकार यह प्रदर्शित करने का एक मौका था कि वह वास्तव में राजनीतिक व्यवस्था में सुधार ला सकती है।
पुनश्च : पाकिस्तान में चुनाव हो रहे हैं, जिसे अधिकांश पर्यवेक्षक ‘इलेक्शन’ नहीं ‘सिलेक्शन’ कह रहे हैं। पाकिस्तान के विपरीत भारत में लोकतंत्र अभी मजबूत है। लेकिन जैसा कि चंडीगढ़ ने दिखाया है, ‘मैच फिक्सिंग’ हमारे उपमहाद्वीप की चिर-परिचित बीमारी है, इसे कभी हल्के में नहीं ले सकते।
संवैधानिक पदाधिकारी और लोकतांत्रिक संस्थाएं आज सवालों के घेरे में हैं। राज्यपालों की भूमिका पर सवाल हैं। ईडी, सीबीआई पर सत्ता का उपकरण बनने के आरोप लग रहे हैं। चुनाव आयोग की निष्पक्षता भी अब निर्विवाद नहीं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)