बदल रहा है उच्च शिक्षा का माहौल !
बदल रहा है उच्च शिक्षा का माहौल, समावेशी पहल से उत्थान की उम्मीदें
एक वक्त था, जब विश्वविद्यालयों में ज्यादातर राजनीतिक नियुक्तियां होती थीं और दूसरे पदों पर नियुक्तियों में भी काफी पैसा चलता था। ऐसे में अजा/अजजा जैसे कमजोर वर्गों के लोगों का शैक्षिक पदों में समावेश बेहद मुश्किल था, क्योंकि उनके पास इतने आर्थिक संसाधन नहीं थे, कि वे नियुक्ति के सपने देख सकें। जाहिर है कि इन पदों पर कमजोर वर्गों का प्रतिनिधित्व भी तकरीबन शून्य ही हुआ करता था। अर्हता के मानक और व्यवस्था की नकारात्मक दृष्टि के कारण करोड़ों की आबादी वाले ये समुदाय एक फीसदी भी समावेश पाने से वंचित थे। किसी को पता भी नहीं चलता था, और बगैर किसी शैक्षिक मूल्यांकन के चोर दरवाजे से विश्वविद्यालय रूपी मंदिर में उच्च पदों पर नियुक्तियां होती थीं। नतीजा यह होता था कि कमजोर वर्गों के छात्र व छात्राएं काफी हतोत्साहित रहते थे और उच्च शिक्षा के प्रति काफी उदासीन भी। लेकिन अब तस्वीर बदल रही है। आज बाकायदा पदों के विज्ञापन छपते हैं। सर्च कमेटियां बैठती हैं। रिसर्च एडमिनिस्ट्रेटिव अनुभव और बौद्धिक विकास की संकल्पना को साकार करते सत्यनिष्ठ आचार्यों की उपलब्धियों से विश्वविद्यालयों के उच्चतम पदों की गरिमा में वृद्धि की संभावनाएं बढ़ रही हैं। अब राजनीतिक प्रतिबद्धता से मुक्त, अपने अकादमिक दायित्वों, विद्या-विकास के प्रति निष्ठा और सामूहिकता की भावना जैसे गुणों को नियुक्ति के वक्त तरजीह दी जाती है।
हाल ही में आरक्षित श्रेणी के फर्जी प्रमाण पत्र जारी करने और उनका इस्तेमाल पश्चिम बंगाल के चिकित्सा महाविद्यालय में किए जाने के संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने कलकत्ता उच्च न्यायालय की कार्यवाही पर रोक लगाई है। फर्जी जाति प्रमाण पत्र ऐसा भ्रष्टाचार है, जिससे अजा/अजजा के शिक्षा क्षेत्र में समावेश की संभावना को न्यूनतम किया जाता रहा है। निराशा और नाउम्मीदी को परास्त कर सभी के लिए आशाजनक खबर आई, कि केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय के ‘अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वेक्षण’ के अनुसार, देश में नामांकन बढ़कर 4.33 करोड़ हुआ है। 2014 के बाद हुई 26.5 फीसदी की वृद्धि आशातीत है। 2014-2015 से अब तक 341 विश्वविद्यालय स्थापित हुए हैं। आंकड़ों की मानें, तो 2021-22 में सकल नामांकन अनुपात 28.4 तक पहुंच गया है। समानांतर रूप से स्थापित प्राइवेट सेक्टर की शिक्षा व्यवस्था में एससी, एसटी और ओबीसी छात्रों/शिक्षकों, कुलसचिवों, कुलगुरुओं में राजकीय और निजी क्षेत्र का समावेशी अनुपात कितना संतोषजनक है, इसका कोई ब्योरा नहीं है। निजी क्षेत्र की अंग्रेजी माध्यम की गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पाना कमजोर वर्गों के लिए दुर्लभ होता जा रहा है। वहां सामान्य वर्ग की तुलना में आरक्षित वर्ग के छात्रों का अनुपात नगण्य है।
परंतु राजकीय शिक्षा में पहले से स्थिति बेहतर हुई है। मीडिया में जारी आंकड़े बताते हैं, 2014-15 में अनुसूचित जाति के विद्यार्थियों का नामांकन 46.07 लाख था, जो 2021-22 में बढ़कर 66.23 लाख हो गया है। अर्थात 44 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। अनुसूचित श्रेणी की छात्राओं की संख्या 21.02 लाख से बढ़कर 31.71 लाख बताई गई है। हम जानते हैं कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में पदोन्नतियां, भर्तियां और पीएचडी पाठ्यक्रमों में सभी श्रेणियों की सीटें बढ़ी हैं। सरकार और विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने भी कमजोर वर्गों की छात्राओं और दिव्यांगों के प्रति पूरी जिम्मेदारी दर्शाई है। 2017-18 की तुलना में 2021-22 में पंजीकृत 18.1 फीसदी एससी 2022 में 25 फीसदी हो गए हैं। शिक्षा मंत्रालय की एक रिपोर्ट कहती है, ‘अजजा के छात्रों की संख्या बढ़कर विगत पांच वर्षों में 41.6 फीसदी हुई है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में समावेशी माहौल से समाज के उत्थान की नई उम्मीदें पैदा हुई हैं।