बीजेपी को कांग्रेस से क्यों मिला दस गुना ज्यादा चंदा?
बीजेपी को कांग्रेस से क्यों मिला दस गुना ज्यादा चंदा? जानें असली वजह
चुनावी चंदा चर्चा में है. साल 2018 में केंद्र सरकार इस पॉलिसी को चुनाव में पारदर्शिता लाने के लिए संसद में लेकर आई थी. लेकिन उसके बाद जिन दानदाताओं ने पॉलिटिकल पार्टी को बॉन्ड खरीद कर चंदा दिया, उनके लिए सुप्रीम कोर्ट का आदेश बड़ा झटका है. पूरे मामले में बीजेपी पर सवाल उठ रहे हैं. बीजेपी पर यह कहकर निशाना साधा जा रहा है कि इस पॉलिसी से सबसे ज्यादा उसी को फायदा हुआ?
चुनावी बॉन्ड पर सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए इसे सूचना के अधिकार के विरुद्ध माना है. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ सिंह की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने चुनावी बॉन्ड पॉलिसी को तत्काल प्रभाव से रोक दिया है. कोर्ट ने कहा है राजनीतिक पार्टियों को दान देने वालों के नामों का खुलासा न करना सूचना के अधिकार की भावना के विरुद्ध है. लेकिन अहम सवाल ये है कि जब दानदाताओं ने ये चुनावी बॉन्ड खरीदे थे तो उन्हें उनके नाम का खुलासा नहीं किये जाने की कानूनी गारंटी दी गई थी. इसी वजह से दानदाताओं ने निश्चिंत होकर बॉन्ड खरीदे और राजनीतिक दलों को पैसे दिये.
अब सुप्रीम कोर्ट के नये फैसले से वे सभी दानदाता असमंजस में फंस गये हैं. कोर्ट का फैसला ना केवल दानदाताओं बल्कि राजनीतिक दलों के लिए बड़ा झटका है. कोर्ट ने कहा कि साल 2018 में जब से ये पॉलिसी लागू की गई है, तभी से सभी बॉन्ड खरीदारों के नामों का खुलासा करना होगा. सवाल ये है कि क्या नई कानूनी व्यवस्था नागरिक अधिकारों के तहत पूर्व के दानदाताओं की भावना के विरुद्ध नहीं हैं? दानदाताओं ने जब पॉलिटिकल बॉन्ड खरीदे थे तब पूरी तरह से आश्वस्त थे कि उनके नामों को गोपनीय रखा जाएगा. लेकिन अब एक झटके में उनके नामों पर से पर्दा हटने की बारी आ गई है.
कोर्ट के सामने था यह विकल्प
वैसे इस संबंध में कोर्ट की संवैधानिक पीठ के सामने एक विकल्प था. कोर्ट ये कह सकता था कि अभी या भविष्य में चुनावी बॉन्ड खरीदने वालों के नामों का खुलासा करना अनिवार्य होगा. इससे नये दानदाताओं को नये नियम की जानकारी होती और वे इसके आधार पर इलेक्ट्रोरल बॉन्ड खरीदते. नए दानदाता को कानूनी पहलुओं के बारे में पता होता और कानूनी विकल्पों के मुताबिक राशि तय कर पाते. लेकिन प्रारंभ से ही दानदाताओं के नामों का खुलासा करने का आदेश पूर्व में घोषित कानून के दृष्टिकोण से प्रतिकूल प्रतीत होता है.
सवाल ये भी उठ रहे हैं कि संसदीय प्रक्रिया के तहत जो कानूनी व्यवस्था बनाई गई, क्या उसकी कोई संवैधानिक पवित्रता नहीं है? क्योंकि पूर्व के दानदाता संप्रभु कानूनी गारंटी के आधार पर काम कर रहे थे. इसके पीछे सरकार का मकसद चुनाव में काला धन को रोकना था. सरकार का मकसद ये था कि चुनाव में नगदी के फ्लो को रोका जाये और चंदे को वैधता प्रदान की जाए. पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी कहा था कि बॉन्ड पॉलिसी का मकसद चुनाव में पारदर्शिता लाना है.
भाजपा को मिला सबसे ज्यादा चुनावी चंदा
पूरे मामले में बीजेपी सवालों के घेरे में है. विपक्षी दलों का आरोप है कि बीजेपी को इस बॉन्ड से सबसे ज्यादा फायदा हुआ.एडीआर यानी एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने भी अपने रिसर्च में जो आंकड़ा पेश किया है उसके मुताबिक भारतीय जनता पार्टी को सबसे ज्यादा पॉलिटिकल डोनेशन मिला है. यह आंकड़ा कांग्रेस को मिले दान से कहीं दस गुना ज्यादा है. साल 2022-23 के दौरान बीजेपी को करीब साढ़े सात सौ करोड़ का चुनावी चंदा मिला था. बीजेपी ने खुद भी बताया है कि 7,945 दानों से 719.858 करोड़ रुपये मिले.
देश के 58 फीसदी हिस्सा पर बीजेपी का कब्जा
भारतीय जनता पार्टी को सबसे ज्यादा चंदा मिलने की एक वजह ये भी है कि देश के करीब 58 फीसदी हिस्सा पर भारतीय जनता पार्टी का शासन है जबकि 41 फीसदी हिस्से में गैर-बीजेपी का शासन है. 58 फीसदी के उन हिस्सों में जहां बीजेपी सत्ता में है वहां देश की 57 फीसदी आबादी रहती है जबकि गैर-बीजेपी हिस्सों में देश की 43 फीसदी आबादी रहती है. इस आधार पर भी बीजेपी का मानना है कि अगर देश के सबसे बड़े हिस्से में उसकी सत्ता है तो उसे सबसे ज्यादा चुनावी चंदा उसे मिलना लाजिमी है.