तीर्थस्थलों को पर्यटन का रंग न दें, क्योंकि तीर्थस्थल “आस्था’ की भावना जगाते हैं

तीर्थस्थलों को पर्यटन का रंग न दें, क्योंकि तीर्थस्थल “आस्था’ की भावना जगाते हैं

पिछले सप्ताह राहुल बत्रा, आयुष्मान बत्रा, कशिश भट्ट और एक अन्य- जो सभी 2000 के बाद जन्मे थे- मध्य प्रदेश के दो तीर्थस्थलों महाकालेश्वर और ओंकारेश्वर के दर्शन के लिए सहारनपुर से चंडीगढ़-इंदौर ट्रेन में चढ़े थे। वे खुश थे कि उनके सह-यात्री इंदौर के निवासी राजेंद्र सिंह थे।

उन्हें सोशल मीडिया से पता चला था कि इंदौर इन दोनों तीर्थस्थलों तक पहुंचने के लिए सबसे अच्छा ठिकाना है, साथ ही वे किसी भी अन्य पर्यटन केंद्र की तरह सभी सुविधाएं भी प्रदान करते हैं। उन्हें अपने सीमित बजट में रहने के लिए एक अच्छी जगह मिलने का भरोसा था, क्योंकि वेबसाइट्स ने उन्हें अच्छी तस्वीरें दिखाकर लुभाया था।

स्थानीय निवासी होने के कारण राजेंद्र सिंह ठहरने की जगहों की गुणवत्ता के बारे में कोई भी जानकारी देने में असमर्थ थे, क्योंकि वे वहां कभी नहीं रुके थे। वे प्रमुख सितारा होटलों को जरूर जानते थे, पर उनकी कीमत पर्यटकों की क्षमता से बाहर थी।

इंदौर में उतरने पर पर्यटकों को एहसास हुआ कि जिन होटलों को साइटों ने रंगीन चित्रों के साथ दर्शाया था, वे भुगतान किए टैरिफ के अनुरूप नहीं थे। सिंह ने उनसे अपना फोन नंबर साझा किया था, इसलिए उन्होंने उन्हें कॉल किया। सिंह ने उनके लिए अपने एक दोस्त के होम-स्टे पर रहने का बंदोबस्त करवा दिया, जिसमें उन्हें 24 घंटे के लिए 2,000 रुपयों में दो बेडरूम वाला वातानुकूलित आवास मिल गया।

अगले दिन सुबह 6 बजे उन्होंने हाईवे तक पहुंचने के लिए रिक्शा लिया, जहां से उन्होंने ओंकारेश्वर के लिए बस की सवारी की योजना बनाई। बस आई लेकिन उसमें कोई सीट खाली नहीं थी। कंडक्टर ने उन्हें कहा कि कुछ यात्री 15 मिनट में उतर जाएंगे और 80 किमी की दूरी केवल एक घंटे की यात्रा है।

छात्र उनकी बात का विश्वास करके बस में चढ़ गए। लेकिन सीटें खाली नहीं हुईं और उन्हें अगले 3.45 घंटों की यात्रा खड़े-खड़े करना पड़ी। मंदिर में अलग-अलग कारणों से दर्शन करने में उन्हें पांच घंटे लग गए और वे रात नौ बजे तक ही लौटकर आ पाए।

अगले दिन उज्जैन यात्रा में भी उन्हें कई असुविधाएं हुईं, जो किसी भी तीर्थस्थल में सामान्यतया होती हैं। कई घंटों की देरी के कारण उनकी वापसी की ट्रेन भी छूट गई। तीसरे दिन उनके माता-पिता ने उनके लिए फ्लाइट टिकट बुक कराया। लेकिन यह पूरी यात्रा उनके लिए बुरा अनुभव बन गई।

जब किसी तीर्थ स्थान को पर्यटन स्थल के रूप में प्रस्तुत किया जाता है तो पर्यटक की मानसिकता भी तपस्या की होने के बजाय पर्यटन उद्योग द्वारा प्रदान किए जाने वाले कम्फर्ट वाली बन जाती है। यही कारण है कि होटल, परिवहन, खानपान और अन्य सेवाओं से उनकी अपेक्षा का स्तर बढ़ जाता है। और दुर्भाग्य से, कुछ धार्मिक स्थल इस बढ़ी हुई अपेक्षा से मेल खाने के लिए तैयार नहीं किए गए हैं और इसलिए उनके आगंतुकों को वहां बुरा अनुभव होता है। और खासतौर पर अगर वे जेन ज़ी (1997 के बाद पैदा हुए युवा) हैं तो यह सोशल मीडिया पीढ़ी कई प्लेटफॉर्मों पर अपनी निराशा व्यक्त करते हुए उन तीर्थस्थलों की छवि को प्रभावित करती है।

जबकि हमारे अधिकांश तीर्थस्थल तपस्या की मानसिकता के लिए तैयार किए गए हैं। जो लोग उपवास करते हैं, नंगे पैर चलते हैं, सिर मुंडवाते हैं (तिरुपति इसका एक उदाहरण है) और विलासिता और आराम पर उनका न्यूनतम ध्यान होता है।

वे आस्था के साथ ऐसे स्थानों पर पहुंचते हैं, अपने आराध्य के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हैं और वहां से लौट आते हैं। लेकिन जब पहली बार ऐसी जगहों की यात्रा करने वालों पर पर्यटन की मानसिकता हावी हो जाती है, तो वे तपस्या की भावना को अपनाने से इनकार कर देते हैं। इसी से निराशा उभरती है, क्योंकि तपस्या और मौज-मस्ती एक-दूसरे से विपरीत हैं।

…. तीर्थस्थलों को पर्यटन का रंग न दें, क्योंकि जहां तीर्थस्थल “आस्था’ की भावना जगाते हैं, वहीं पर्यटनस्थलों का प्रयोजन आनंद की भावना पैदा करना है। भारतीय “भक्ति’ परम्परा के संदर्भ में तो तपस्या और मौज-मस्ती का मेल नहीं हो सकता।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *