150 एनकाउंटर करने वाले IPS आशुतोष पांडेय

150 एनकाउंटर करने वाले IPS आशुतोष पांडेय
8 हजार लोगों के बीच माफिया रवींद्र चीता को मारा, बिना गवाह ज्योति मर्डर केस का खुलासा किया

“मैं जब मुजफ्फरनगर में तैनात था, तब वहां रवींद्र चीता नाम का एक खूंखार अपराधी बहुत चर्चित था। हत्या, लूट, अपहरण और रेप जैसी कई वारदात को अंजाम दे चुका था। घरों में घुसकर पूरे घर को बंधक बनाकर बेटियों से रेप करता था।

पुलिस भी उससे तंग आ चुकी थी। हमने उसे सार्वजनिक रूप से मारने का प्लान बनाया, ताकि लोगों में उसका और उस जैसे बदमाशों का खौफ कम हो। एक से दो महीने की रेकी के बाद एक कस्बे में ट्यूबवेल के पास हमने उसे घेर लिया।

दोनों तरफ से फायरिंग शुरू हो गई। देखते ही देखते वहां आठ से दस हजार लोग इकट्‌ठा हो गए। उसी बीच हमने रवींद्र चीता को ढेर कर दिया। इसके बाद तो क्राइम कैपिटल मुजफ्फरनगर, मेरठ समेत पश्चिम यूपी के कई जिलों में एनकाउंटर का दौर चला।

समाज में अपराध की जड़ें खत्म करने के लिए कठोर कदम उठाने पड़े।” पूर्वांचल, सेंट्रल यूपी से लेकर पश्चिम उत्तर प्रदेश तक में 150 से ज्यादा एनकाउंटर करने वाले ये हैं IPS आशुतोष पांडेय।

खाकी वर्दी में बात आज IPS आशुतोष पांडेय की, जिन्हें एक टेक्नोफ्रेंडली और एनकाउंटर स्पेशलिस्ट माना जाता है। उत्तर प्रदेश पुलिस को UPCOP ऐप देने वाले आशुतोष पांडेय की ये कहानी आप 5 चैप्टर में उन्हीं की जुबानी पढ़ेंगे।

बिहार के जिला भोजपुर के रहने वाले शिवानंद पांडेय के दो बेटे हुए। उनमें छोटे बेटे आशुतोष पांडेय का जन्म 1967 में हुआ। आशुतोष बताते हैं, पिता जी पटना में इंजीनियर थे इसलिए शुरू से ही घर में पढ़ाई-लिखाई का बड़ा मजबूत माहौल था। मेरा भी बचपन से इंजीनियर बनने का ही मन था और पिता भी यही चाहते थे।

इसलिए पढ़ाई के लिए पटना पहुंच गए। यहां सेंट जेवियर स्कूल में एडमिशन ले लिया, 1981 में यहां से दसवीं की परीक्षा पास करने के बाद पटना साइंस कॉलेज पहुंचे। उन दिनों 12वीं साइंस कॉलेज में शुरू हो गई थी। यहां 1983 में साइंस स्ट्रीम में 12वीं कंप्लीट की। यहीं से शुरू हुआ कॅरियर की तरफ सोचने का सिलसिला। सबसे पहले एक दिशा मजबूत करने के लिए पटना NIT से BE पूरी की।

इंजीनियरिंग करने के दौरान मेरा गांव आना जाना खूब था। गांव में रिश्तेदारों की बातचीत सुनकर ऐसा लगता था जैसे बिहार में अगर आईएएस या आईपीएस नहीं बने तो जीवन में कुछ नहीं किया। इसके अलावा मेरे दिमाग में एक बात और चलती रहती थी कि इंजीनियर या कोई भी सरकारी नौकरी पाकर आप समाज को तत्काल कोई मदद नहीं कर सकते हैं। IAS और IPS ही एक ऐसा प्रोफाइल था जिसमें आप समाज का स्तर सुधारने या किसी जरूरतमंद की तुरंत मदद कर सकते हैं।

इसलिए BE कंप्लीट करने के बाद मैंने सिविल सर्विस में जाने की ठान ली। 1990 में मेरा BE कंपलीट हुआ था, इसके बाद लग गया सिविल सर्विस की तैयारी में। दो साल की कठिन तपस्या के बाद 1992 में मेरा सलेक्शन IPS के लिए हो गया। मुझे कैडर मिला उत्तर प्रदेश। इसके बाद अंडर ट्रेनी आईपीएस इलाहाबाद भेजा गया, यहां मैंने यूपी पुलिस के पूरे सिस्टम को समझा।

आशुतोष बताते हैं, “ मेरी पहली इंडेपेंडेंट जॉइनिंग एएसपी वाराणसी के पद पर हुई। यहां जब मैंने जॉइन किया उन दिनों चंदौली बनारस का ही हिस्सा हुआ करता था। चंदौली में नक्सलियों ने हमला कर दिया था, झीना थाना क्षेत्र में तीन पुलिस वालों की हत्या कर नक्सली राइफल लूट ले गए थे।

मेरी जॉइनिंग के साथ ही यह चुनौती मुझे दी गई। यह ब्लाइंड मर्डर केस था, इसमें न तो आरोपियों का पता था और न कोई सबूत ही हमारे पास था। हमने कई दिनों तक इस पर वर्किंग की। बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ तक चक्कर काटे।

अपना सूत्रों का एक नेटवर्क खड़ा किया। मिर्जापुर और सोनभद्र के इलाके में भी वे नक्सली आया-जाया करते थे। वहीं से एक क्लू मिला और नक्सलियों को गिरफ्तार कर राइफल बरामद की गईं और पूरा केस वर्कआउट हुआ।

बात 1996-97 की है जब मेरी पोस्टिंग लखनऊ एसपी सिटी के रूप में हुई। लखनऊ के आउटर में बावरिया गैंग की दहशत थी। गुडंबा, गोमती नगर आउटर, चिनहट, सुल्तानपुर रोड, सीतापुर रोड आदि क्षेत्र में ये बावरिया गैंग वारदात करता था।

लूटपाट के साथ साथ ये पूरा परिवार खत्म कर देते थे। इनका एक उद्देश्य होता था कि बिना मारे ये लूट नहीं करते थे। इसी बीच एक ऐसी वारदात हुई कि पूरा लखनऊ प्रशासन हिल गया। उस समय के एक बड़े मीडिया हाउस में कार्यरत जर्नलिस्ट के पूरे परिवार को बावरिया गैंग ने खत्म कर दिया। तमाम बड़ी हस्तियां उन जर्नलिस्ट के घर पहुंची।

पुलिस की पूरी कार्यप्रणाली पर सवाल उठने लगे। इससे पहले यह गैंग कई परिवारों पर हमला कर चुका था, जिसमें कई लोगों की हत्या हो गई थी। अब हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती थी इनकी ट्रैकिंग कर पाना क्योंकि ये लोग एक क्षेत्र में वारदात करते थे और दूसरे क्षेत्र में शरण ले लेते थे।

बड़ी परेशानी ये थी कि ये लोग कोई मोबाइल भी इस्तेमाल नहीं करते थे, जिससे इनकी रेकी की जा सके। धीरे-धीरे हमने उस क्षेत्र में कूड़ा बीनने वाले, ताला-चाभी बनाने वाले और छिटपुट सामान बेचने वालों को इंटेरोगेट करना शुरू किया।

एक दो संदिग्ध सामने आने लगे और हम कड़ी से कड़ी जोड़ते चले जा रहे थे। जांच में ये पता चला कि इसी तरह ये लोग पहले उस मोहल्ले में रेकी करते हैं, फिर उस मोहल्ले के अच्छे घर को टारगेट करते हैं। सामान बेचने के बहाने घर में घुसते हैं और पूरे परिवार को खत्म करके लूट करके भाग जाते हैं।

हमने ऐसे दस बारह लोगों को पकड़ा तो चेन मिल गई। एक से डेढ़ महीने की वर्किंग में हम उन बावरिया गैंग के लोगों तक पहुंच गए और एक दिन उनसे सामना हो गया। पुलिस ने तीन लोगों को ढेर किया और बीस से ज्यादा बावरिया सदस्यों को गिरफ्तार कर जेल भेजा। इसके बाद से लखनऊ में बावरिया गैंग की वारदात कम हो गई।

राजधानी लखनऊ में सूदखोरी का बहुत बड़ा कारोबार खड़ा हो चुका था। कई लोग सुसाइड कर रहे थे और कई के घरों में गुंडई हो रही थी। बड़े लोगों का पैसा सूदखोरी के इस कारोबार में लगा हुआ था। लालबाग क्षेत्र में शर्मा चाय वाले के पास एक केस ऐसा सामने आया जिसे सुनकर मैं भी चौक गया। एक व्यक्ति ने किसी सूदखोर से कारोबार करने के लिए 2 लाख रुपए उधार लिया था। वह अब तक 6 लाख रुपए वापस कर चुका था और उसके ऊपर 4 लाख रुपए की अभी भी बकाएदारी थी।

हमने उन सज्जन को पकड़ा और पूछताछ की तो पता चला सौ से ज्यादा ऐसे लोगों को पैसा दे रखा है जो सालों से ब्याज चुकाते चले आ रहे हैं और मूलधन अभी तक खड़ा है। उनकी कमाई और शाही ठाठ के आगे बड़े कारोबारी फेल हो जाएं। जब उनकी गर्दन पकड़ी और लोगों का पैसा खत्म करवाना शुरू किया तो कई सफेदपोश और बड़े लोगों के गैंग में शामिल होने की बात सामने आई। सूदखोरी पर अभी भी बहुत काम करने की जरूरत है, इसके चंगुल में जो एक बार फंस गया वो निकल नहीं पाता है।

अपने सबसे चैलेंजिग जॉब के जवाब में आशुतोष पांडेय यूपी के दंगों को याद करते हैं, वो कहते हैं, “मुजफ्फरनगर दंगा कंट्रोल करना सबसे चैलेंजिंग लगता था। बात अगस्त 2013 की है। यहां के कवाल गांव में जाट और मुसलिम समाज के बीच बवाल बढ़ गया था। मामला छेड़खानी से जुड़ा था, इसी में 3 युवकों की हत्या हो गई। यह आग धीरे-धीरे फैलती चली जा रही थी। इसी बीच मुझे भी विमान से दंगा कंट्रोल करने के लिए भेजा गया।

मैंने वहां जाकर कैंप किया, इस दौरान हिंसा में हिंदू-मुसलिम दोनों तरफ से कई लोगों की जान जा चुकी थी। आंकड़ों पर नजर डालें तो ये 62 बताए जाते हैं। हमने पब्लिक के बीच विश्वास जीतना शुरू किया, दोनों पक्षों के लोगों से बात करने के बाद आरोपियों की गिरफ्तारी शुरू करवाई।

इसके साथ ही हिंसा भड़काने वालों को पुलिस ने दौड़ाकर टांग में गोली मारी। इससे दंगाई दहशत में आ गए। हालांकि, इस दौरान बड़े स्तर पर पलायन भी शुरू हो चुका था। चारों तरफ कैंप बनाए गए थे, कैंप में पीड़ितों के रहने की व्यवस्था कराई गई।

करीब 60 दिन तक वहां कैंप किया और मामले को शांत करवाया। यह बहुत ही चुनौती पूर्ण था। इसके बाद बरेली और आगरा में भी इसी तरह के दंगे भड़के तो वहां भी मुझे भेजा गया। दंगा नियंत्रण का एक्सपीरिएंस हर जगह काम आ रहा था। किस तरह दोनों पक्षों में संतुलन बनाना है।”

अब तक के सबसे रोचक और टेक्निकल केस स्टडी पर बात करते हुए IPS बताते हैं, मुझे लगता है कि कानपुर का ज्योति मर्डर केस सबसे टेक्निकल था। इस केस में न तो कोई गवाह था और न कोई सीधा सबूत सामने था। पूरा मामला साइंटिफिक आधार पर खोला गया था। दरअसल, 27 जुलाई 2014 को एक लड़की का मर्डर हुआ।

लड़की के पति पीयूष ने बताया था कि मैं अपनी पत्नी ज्योति को डिनर कराने के लिए शहर वरांडा रेस्टोरेंट लेकर गया था। वहां से हम रात करीब 11.30 पर निकले, रास्ते में चार बदमाश ज्योति का अपहरण कर ले गए। इसके बाद रात दो बजे पनकी क्षेत्र में लड़की की डेड बॉडी पाए जाने की सूचना मिली। इस बीच करीब 12.30 बजे पीयूष ने स्वरूप नगर थाने में सूचना दी।

यहीं से हमारा शक उसकी ओर होने लगा कि आखिर कोई पति अपहरण के एक घंटे बाद सूचना क्यों देगा। शिकायत के समय के वीडियो भी हमने बनवा लिए थे, अगले दिन सुबह जब पीयूष थाने पहुंचा तो उसके कपड़े चेंज थे।

दूसरा शक खड़ा हुआ कि यदि किसी की पत्नी का अपहरण और मर्डर हो जाएगा तो वह कपड़े चेंज करने क्यों जाएगा। इसके बाद हमने सीसीटीवी खंगालने शुरू किए। सबसे पहले उस रेस्टोरेंट की सीसीटीवी फुटेज निकाली।

साथ ही जिस चाकू से ज्योति का मर्डर हुआ वह ब्रांड न्यू थी, लड़की के साथ किसी प्रकार की कोई गलत हरकत भी नहीं की गई थी। इससे भी लगा अगर बदमाश अनजान थे तो कुछ लूट और रेप की कोशिश भी करते, जबकि ऐसा कुछ हुआ नहीं।

जिस ब्रांड की चाकू खरीदी गई थी हम उसके मॉल तक पहुंच गए। वहां से पीयूष ही अपने दोस्तों के साथ चाकू लेकर निकल रहा था। बस वहीं से पूरा मामला स्पष्ट हो गया कि पीयूष ने ही अफेयर के चक्कर में मर्डर किया।

वह अपने ऑफिस की लड़की से प्यार करता था और उसी के लिए पत्नी को रास्ते से हटा दिया। इन्हीं सब साइंटिफिक आधार पर जब उससे इंटेरोगेट किया तो उसने पूरा गुनाह कबूल कर लिया।

आशुतोष पांडेय ने एसपी, एसएसपी रहते हुए पुलिसकर्मियों को तो खुफिया तंत्र का इस्तेमाल करना सिखाया ही साथ ही पुलिसकर्मियों की मुखबिरी करने के लिए भी एक तंत्र तैयार किया। एडीजी आशुतोष पांडेय बताते हैं कि जब मैंने पुलिस की वर्किंग की जांच पड़ताल शुरू की तो उनकी रेकी भी करनी थी।

इसके लिए मैंने हर प्रमुख चौराहे पर पान वाले, ठेले वाले और खोमचे वालों को अपना नंबर दे दिया। इसके बाद उनसे पूछता था कि रात की ड्यूटी में बीट कॉन्स्टेबल पहुंचा या नहीं। दरोगा जी अपने टाइम पर राउंड मारने आए या नहीं। इससे दंगा प्रभावित क्षेत्रों में बहुत मदद मिल रही थी।

ज्यादातर लोग पुलिस वालों की शिकायत करने के लिए आगे आ जाते थे। जब बीट पर दरोगा या कॉन्स्टेबल न पहुंचने की सूचना मिलती तो मीटिंग में मैं उन्हें बता देता था। इसका असर यह हुआ कि ज्यादातर कॉन्स्टेबल और दरोगा अपनी जिम्मेदारी समझने लगे और समय पर फील्ड में दिखाई देने लगे। इसी तरह कई बड़े अपराधियों के मामले की सूचना भी इन ठेले वालों और खोमचे वालों से मिल जाती थी।

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