आखिर इतना गुस्सा क्यों है? बच्चे और बच्चियों का व्यवहार आक्रामक ..
बदलता समाज: 55 प्रतिशत बच्चे और 46 प्रतिशत बच्चियों का व्यवहार आक्रामक, आखिर इतना गुस्सा क्यों है?
यह नागपुर, महाराष्ट्र की बात है। एक लड़की पान की दुकान से सिगरेट खरीद कर वहीं खड़ी होकर पीने लगी। उसके साथ उसकी एक सहेली भी थी। तभी वहां एक युवक आया। उसने भी सिगरेट खरीदी। वह सिगरेट पीती लड़की को घूर-घूरकर देखने लगा। यह देख लड़की उसके मुंह पर सिगरेट के धुएं के छल्ले बनाकर छोड़ने लगी। तब युवक उसका वीडियो बनाने लगा। गुस्से में लड़की गाली देने लगी। युवक भी उसे गाली देने लगा। लड़की ने फोन करके अपने दो दोस्तों को वहां बुला लिया। बात बढ़ते देख, वह युवक वहां से चला गया। कुछ दूर जाने पर बीयर की दुकान पर बैठकर वह बीयर पीने लगा। वह लड़की भी अपने दोस्तों के साथ वहां पहुंच गई। उसने चाकू से युवक पर इतने वार किए कि उसकी मृत्यु हो गई। उस युवक की चार बेटियां हैं। यह पूरी घटना सीसीटीवी में रिकॉर्ड हो गई।
इस पूरी घटना में युवक का अपराध इतना है कि वह लड़की को घूर रहा था, और उसने वीडियो भी बनाया, जो उसे नहीं बनाना चाहिए था। क्योंकि लड़की कुछ भी करने के लिए आजाद थी। सिगरेट जैसी हानिकारक चीज आजकल लड़कियां खूब पीती हैं। ऐसा करके वे खुद को लड़कों के बराबर मानती हैं, जबकि इसके नुकसान छिपे नहीं हैं।
युवक ने उस लड़की का वीडियो बनाया, यह ठीक नहीं था, लेकिन क्या यह इतना बड़ा अपराध था कि उस युवक की जान ले ली जाए? कई लोग कह सकते हैं कि लड़की गुस्से में अपना आपा खो बैठी, क्योंकि लड़का उसे घूर रहा था। वे इसे इस बात से भी जोड़ेंगे कि लड़कियां किसी की निजी संपत्ति नहीं हैं कि कोई उनकी जीवन-शैली में दखल दे। लेकिन इस तरह की हत्या को कैसे जायज ठहराया जा सकता है?
मान लीजिए, किसी लड़के ने ऐसा किया होता, तो हम क्या कहते! हम शायद यही पूछते कि आखिर इतना गुस्सा क्यों? असल बात यह है कि समाज में गुस्सा बढ़ता ही जा रहा है। हाल ही में सफदरजंग के कुछ डॉक्टरों और मनोचिकित्सकों ने दिल्ली के स्कूलों में एक अध्ययन किया था। उसमें पाया गया कि 55 प्रतिशत बच्चे और किशोर तथा 46 प्रतिशत बच्चियां और किशोरियां गुस्से से भरी हैं। वे अपने व्यवहार में आक्रामक और हिंसक भी हैं। लड़के-लड़कियों का हिंसक होना क्या समाज को डराता नहीं है?
दरअसल पिछले 50 वर्षों में हमारी फिल्मों, कला के अन्य माध्यमों, साहित्य ने एक ऐसी स्त्री की छवि गढ़ी है, जो गुस्से और बदले से भरी है और हिंसक होने से भी परहेज नहीं करती। इसे स्त्री की ताकत के रूप में पेश किया गया है। इंतकाम की आग में जलती स्त्री रोल मॉडल बना दी गई है। स्त्री की ऐसी छवि को मीडिया भी हाथों-हाथ लेता है। आपको हिसार की वे बहनें तो याद ही होंगी, जो चलती बसों, पार्कों, आदि में लड़कों को पीटती थीं। एक ऐसा ही वीडियो वायरल हुआ, तो फौरन हरियाणा सरकार ने उन्हें पुरस्कृत कर दिया। मीडिया ने इन लड़कियों को बहादुर लड़कियों की तरह पेश किया। बाद में पता चला कि वे लड़कियां वीडियो बनाने के लिए ऐसा करती थीं।
गाजियाबाद की उस लड़की का किस्सा भी याद होगा, जिसने दहेज का आरोप लगाकर बारात लौटा दी थी। दूल्हे और उसके परिवार पर दहेज मांगने का आरोप लगाया था। यह सब उसने इसलिए किया था, क्योंकि वह उस लड़के से शादी न करके अपने मित्र से शादी करना चाहती थी। इस लड़की ने भी मीडिया में बहुत सुर्खियां बटोरी थीं। उस दूल्हे को लंबी अदालती लड़ाई के बाद निरपराध साबित किया गया था। कहने का अर्थ यह है कि यदि मारपीट और हिंसा करती स्त्री को आदर्श की तरह पेश किया जाएगा, तो आम लड़कियां भी यही सीखेंगी कि ऐसा करना अच्छी बात है। वे तात्कालिक गुस्से में अच्छा-बुरा सब भूल जाएंगी, जैसा कि उस लड़की के साथ हुआ कि उसने बिना कुछ सोचे-समझे सिर्फ घूरने और वीडियो बनाने के चलते उस युवक को मार डाला।
ठीक है कि आपने गुस्सा दिखा दिया, बदला ले लिया, लेकिन अब क्या? अब तो जिंदगी सलाखों के पीछे ही बीतेगी। काश, हमारे युवाओं को कोई समझाने वाला हो कि क्षणिक गुस्से में लिए गए निर्णय अक्सर अनिष्टकारी होते हैं, लेकिन समझाए भी कौन? संयुक्त परिवार के विघटन के बाद अच्छे-बुरे की सीख देने वाले दादा-दादी परिवार की परिधि से बाहर हैं और माता-पिता को रोजमर्रा के झंझट से फुर्सत ही नहीं है। ऐसे में, जिनके ऊपर समझाने की जिम्मेदारी बचती है, वे हिंसा और अपराध बेचकर ही अपनी कमाई कर रहे हैं।