बिहार में बेरोजगारी और पलायन की आपदा का जिम्मेवार कौन ? 

कभी रोजगार का केंद्र रहने वाले बिहार में बेरोजगारी और पलायन की आपदा का जिम्मेवार कौन ? 

प्रथम पंचवर्षीय योजना के मूल्यांकन के बाद बिहार को देश भर में पांचवां स्थान प्राप्त हुआ था. एक समय में बिहार की प्रति व्यक्ति आय पूरे देश में दूसरे स्थान पर था. लेकिन इसके बाद न जाने क्या हुआ? न जाने बिहार को किसकी नज़र लग गई? उद्योग लगना बंद हो गया. कृषि, पशुपालन, सामुदायिक विकास, परिवहन, संचार आदि की तुलनात्मक वृद्धि पर ग्रहण लग गया. रोजगार के लिए बिहार के वाशिंदे देश के कोने-कोने में पलयान करने लगे. बेरोजगारी से बिहार की पहचान होने लगी. पलायन बिहार की नियति ही बन गया. सस्ता श्रम बेचने को बिहारी मजदूर मजबूर हो गए.

बिहारियत पूरे देश भर में अपमानित होने लगा. पलयानवादियों ने तो मानो अपमान को अपनी नियति मान कर इस पर विमर्श करना भी छोड़ दिया. लेकिन आम बिहारियों के बीच अपमान की यह टीस कोयले की आग की तरह है, जो भीतर ही भीतर सुलग रही है. आज भी इन तमाम हालातों के बीच ये महत्वपूर्ण सवाल मौजूद है कि इस हालात के लिए आखिरकार जिम्मेवार कौन है? केंद्र सरकार जो भारत के संघीय ढांचे में इस तरह के असंतुलन को बर्दास्त कर कर रही है ? या फिर बिहार सरकार, जो अपने यहां से मजदूरों के पलायन को रोकने में नाकमयाब है? 

दो पूरानी पका-पकाया जवाब

दरअसल, यह सवाल दशकों पुराना है. लेकिन बिहार की सरकार से पूछिए तो पका-पकाया दो जवाब होता है. पहला 1952 में आया रेल भाड़ा समानीकरण नीति से बिहार में उद्योग नहीं लगा पाया और दूसरा बिहार का समंदर के किनारे नहीं होने से यहां व्यपार और वाणिज्य का पर्याप्त अवसर नही होना. जिससे रोजगार पैदा नहीं हुआ और पलायन बढ़ा. दिलचस्प ये कि सरकार इस थोथे जवाब  का समर्थन बिहार के तथाकथित बुद्धिजीवी भी पूरी ताकत से करते हैं. सरकार और बुद्धिजीवियों के मिलीभगत के इस कॉकटेल के नशे में बिहार की जनता भी मान बैठी है. ये वही वो दो डायन हैं जो बिहार के रोजगार को खा गई है. लेकिन स्याह सच कुछ और है. जिसे सरकार और बुद्धिजीवी दोनों द्वारा छुपाया जा रहा है.

असल में, अब ये दो डायन उतने महत्वपूर्ण नहीं है, जो बिहार के रोजगार को खा जाए. बिहार जैसे राज्यों से रोजगार खाने वाली ये दो डायनें अब बूढी हो चली है. रोजगार खाने वाली दो डायनों के स्याह सच को समझते है. पहले बात रेल भाड़ा समानीकरण की करें तो ये बात 1952 की है, जब केंद्र सरकार ने अन्यायपूर्ण रेल भाड़ा समानीकरण नीति को अपनाया. माल महाराज के और मिर्जा खेले होली की कहावत को चरितार्थ करने वाले रेल भाड़ा समानीकरण नीति के बाद खनिज प्रधान राज्य बिहार तब झारखंड साथ में था, ओडिसा, बंगाल और इसके जैसे अन्य राज्यों के लिए दुर्भाग्य का द्वार खोल दिया. इन राज्यों के खनिजों को ले जाने में जो मालगाडी का भाड़ा धनबाद से जमेशदपुर का था. वहीं भाड़ा कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और कच्छ तक था. नतीजतन, इन खनिज प्रधान राज्यों के खनिज संपदा के बूते दक्षिण और पश्चिम के कई राज्यों का कायापटल हो गया. वहीं विडंबना देखिये कि कल-कारखानों के महत्वपूर्ण कारकों में से खनिज और श्रम देने के बाद भी ये खनिज प्रधान राज्य विकास के पैमाने पर पिछड गये. 

बिहार में था पूरे देश का 40 % खनिज

अविभाजित बिहार में पूरे देश का 40 % खनिज पाया जाता था, लेकिन यहां उम्मीद के अनुरूप उद्योग नहीं लगा. इसका नुकसान खनिज प्रधान राज्यों के पडोसी राज्यों को भी हुआ. जब इस बाबत इन राज्यों को यह समझ आने लगा कि उनके खनिज के बूते अन्य राज्य खुशहाल हो रहे हैं तो विरोध किया और 1991-1992 में भाडा समानीकरण को समाप्त कर दिया गया. ये सोलह आने सच है कि भाडा समानीकरण से उस दौरान इन राज्यों को हजारों करोड़ का नुकसान हुआ, मगर उसके बाद के दौर में क्या हुआ यह ज्यादा उल्लेखनीय है. 1991-92 से अब तक करीब तीन दशक का समय गुजर चुका है और इस दौर में जिन राज्यों ने इच्छा शक्ति और उद्योग के अनुकूल नीति को अपनया, वहां वर्ष 2019 तक कल-करखानों की संख्या दोगुनी है. बिहार जैसे राज्य आज भी आखिरी पायदान से ऊपर उठने की होड़ से बाहर नहीं निकल पाये हैं.

गौरतलब है कि 1952 से 1991-92 तक के 39-40 साल का एक दौर और उसके बाद 1991-92 से 2022-23 के बीच 28-29 साल के दूसरे दौर के देखें तो पहले के 39-40 सालों के दौरान देश में औद्योगीकरण की गति वह नही थी जो बाद के 28-29 सालों के दौर के दौरान रहा है. पहले 39-40 सालों में कायदे से औद्योगीकरण पंद्रह-बीस साल की रहा. इसके बाद के 28-29 साल का दौर तो देश में औद्योगीकरण के नाम ही है. 

बिहार की अपेक्षा अन्य राज्य में विकास 

जहां तक बात समन्दर के किनारे होने और नहीं होने की है. इस बात में दम होने के बाद भी आधा सच है. बिहार जैसे राज्यों के पिछड़ेपन का ये कारण बना भी. 1991- 92 में भाड़ा समानीकरण के बाद भी दक्षिण-पश्चिम के राज्य केंद्र के दुलरुआ बने रहे, क्योकि वे समंदर के किनारे थे. समुद्री तट के किनारे होने से व्यपार में सुगमता था जिसका लाभ गिनाकर इन राज्यों भरपूर मदद की गई.

समंदर के किनारे होने तथा वाणिज्य और व्यपार में सुगमता के नाम पर विभिन्न राज्यों को खूब फायदा मिला भी. लेकिन रेल भाड़ा समानीकरण की तरह यह भी आधा सच है. जिसे उधोग के क्षेत्र में पिछड़ चुके राज्य बहानेबाजी के ब्रम्हास्त्र के तौर इस्तेमाल करते हैं. पंजाब, मध्यप्रदेश, हरियाणा जैसे राज्य जो समन्दर के किनारे नहीं होने के बाद भी “बहार” लूट रहे हैं. अगर इन तथ्यों से बिहार की सरकार अनजान है तो उसे एक बार उसे ओडिसा के नजीर पर नज़र डालना चाहिए .

ये वही ओडीसा है जो समन्दर के किनारे होने और खनिज की प्रचुरता के बाद भी कुछ वर्ष पूर्व तक बीमारू राज्यों में गिना जाता था. आज ये राज्य बीमारू से बाहर आकर विकास के मामले में नज़ीर पेश कर कर रहा है. जबकि बिहार उद्योग और रोजगार के नाम पर विधवा विलाप में गमगीन है. इसी विधवा विलाप में बिहार की सरकार ने तीन दशक से अधिक का समय गुजार दिया है. इन वर्षों में अगर बिहार की सरकार थोड़ी भी जागरूकता दिखाई होती तो बिहार से पलायन की यह भयावह तस्वीर देखने को नहीं मिलती. अब बीमारू प्रदेश में शामिल अन्य राज्य उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश रोजगार के बहार से मज़े में हैं. जबकि बिहार में’बहार’अभी भी प्रचार की वास्तु मात्र है. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह जरूरी नहीं कि …. न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]

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