नेहरू और सरदार पटेल की जुगलबंदी !

नेहरू और सरदार पटेल की जुगलबंदी, आजाद भारत की राजनीति और शासन को दिया आकार
नेहरू और पटेल लंबे समय तक सहयोगी और सहकर्मी रहे। लेकिन उन्हें एक-दूसरे के विरोधी के तौर पर क्यों दिखाया जाता है? क्या इसकी यह वजह है कि इंदिरा और राजीव के कार्यकाल में पटेल और अन्य नेताओं की जगह नेहरू का महिमामंडन ज्यादा किया गया?

हम भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की पुण्यतिथि की 60वीं वर्षगांठ मनाने जा रहे हैं। यहां मैं नेहरू जी के राजनीतिक जीवन के एक प्रमुख पहलू, सरदार वल्लभभाई पटेल के साथ उनके रिश्तों पर बात करना चाहता हूं। इन दोनों ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान और देश की आजादी के शुरुआती वर्षों में कंधे से कंधा मिलाकर काम किया। दोनों के बीच वैसी ही असहमति थी, जैसे कि एक साथ काम करने वाले दो व्यक्तियों के बीच अक्सर होती है। दोनों के बीच असहमति के बावजूद पूरी तरह एक साझेदारी नजर आती है, जिसमें दोनों की अलग-अलग ताकत एक साथ मिलकर उस धरती की सेवा में लग जाती है, जिससे वे दोनों प्यार करते थे। इस आपसदारी को नरेंद्र मोदी और उनके सहयोगी दलों द्वारा पूरी तरह दरकिनार कर दिया गया, जो नेहरू को नीचा दिखाने और पटेल को ऊपर उठाने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं।
जब अंग्रेज हम पर शासन कर रहे थे, नेहरू और पटेल ने भारतीय समाज के ज्यादातर वर्गों को मिलाकर कांग्रेस के रूप में एक जनसंगठन बनाया था। दोनों ने कई साल जेल में बिताए। यही नहीं, स्वतंत्र भारत की कैबिनेट में दोनों ने साथ-साथ काम किया। नेहरू ने इस बात का ख्याल रखते हुए कि महिलाओं को धार्मिक और भाषाओं के आधार पर पिछड़े या अल्पसंख्यकों को समान अधिकार मिलें, भारत के भावनात्मक जुड़ाव पर ध्यान केंद्रित दिया। उन्होंने सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार पर आधारित बहुदलीय लोकतंत्र की जोरदार वकालत की। पटेल ने क्षेत्रीय एकीकरण पर ध्यान केंद्रित किया और रियासतों को एक साथ लाए। उन्होंने सिविल सेवाओं में सुधार और संविधान पर आम सहमति बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके अलावा सार्वजनिक और निजी जीवन में भी दोनों का एक-दूसरे के प्रति गहरा सम्मान था। सितंबर 1948 में पटेल ने अपने युवा सहकर्मी को पत्र लिखकर कहा कि “आपके मन में मेरे और जवाहरलाल के अलग होने के बारे में जो गलत धारणा है, उसे आप दूर कर लें। इस बात में कोई सच्चाई नहीं है। हां, हम दोनों के बीच विचारों को लेकर मतभेद हो सकते हैं, जैसा कि सभी ईमानदार लोगों में होता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम दोनों के बीच आपसी सम्मान, प्रशंसा या फिर विश्वास को लेकर कोई दूरी है।” एक साल बाद नेहरू को उनके 60वें जन्मदिन पर शुभकामनाएं देते हुए पटेल ने लिखा कि “हम एक-दूसरे को इतनी घनिष्ठता से जानते हैं कि यह स्वाभाविक है कि हम एक-दूसरे के स्नेही हो गए हैं। लोगों के लिए यह कल्पना करना मुश्किल है कि हम दोनों एक-दूसरे की कितनी कमी महसूस करते हैं, जब हम दूर होते हैं या फिर किसी समस्या को सुलझाने में मदद नहीं ले पाते हैं।”

यह प्रशंसा का प्रतिदान ही था कि अगस्त 1947 में नेहरू ने पटेल को पत्र लिखकर उन्हें ‘कैबिनेट का सबसे मजबूत स्तंभ’ बताया। इसके तीन साल बाद जब पटेल का देहांत हुआ तो नेहरू ने अपने दिवंगत दोस्त और सहकर्मी को स्वतंत्रता संग्राम का सबसे महान कप्तान और एक ऐसा व्यक्ति बताया, जिसने मुसीबतों के साथ-साथ जीत के क्षणों में भी उन्हें अच्छी सलाह दी। नेहरू ने कहा कि उन्होंने जिस तरह पुरानी भारतीय रियासतों की समस्या को संभाला, उससे उनकी बुद्धिमत्ता का पता चलता है। उन्होंने अपना लक्ष्य एकीकृत और मजबूत भारत का रखा। नेहरू ने अपनी श्रद्धांजलि यह कहते हुए खत्म की थी कि “देश के लोगों को पटेल के कार्य समर्पण, उनकी दृढ़ता, अनुशासन की भावना का सम्मान करना चाहिए और उस स्वतंत्र, मजबूत एवं समृद्ध भारत की भावना को महसूस करना चाहिए, जिसके लिए उन्होंने मेहनत की।” ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं कि नेहरू और पटेल आजादी से पहले और बाद में सहयोगी और सहकर्मी रहे, तो जनता के बीच उन्हें एक-दूसरे के विरोधी के तौर पर क्यों दिखाया जाता है?

सही मायनों में यहां पर नेहरू के परिवार की गलती थी। जनवरी 1966 में नेहरू के उत्तराधिकारी के रूप में प्रधानमंत्री बने लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु मात्र इकसठ साल की आयु में हो गई। कांग्रेस के बड़े नेताओं ने शास्त्री के उत्तराधिकारी के रूप में इंदिरा गांधी को यह सोचकर चुना कि वे उन्हें अपने हिसाब से नियंत्रित कर सकते हैं। लेकिन इंदिरा गांधी ने पार्टी पर अपना अधिकार जता दिया। उन्होंने प्रिवी पर्स को हटाने तथा बांग्लादेश की लड़ाई में नेतृत्व क्षमता को दिखाया और पार्टी पर पूरी तरह नियंत्रण कर उसे एक पारिवारिक पार्टी बनाने की ठान ली। श्रीमती गांधी राष्ट्र के निर्माण में वल्लभभाई पटेल के योगदान से अनभिज्ञ नहीं थीं, फिर भी उन्होंने अपने पिता के नाम को ऊपर उठाने की पूरी कोशिश की। इसके लिए उन्होंने एक विश्वविद्यालय का नाम भी नेहरू के नाम पर रखा। जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने, उस समय पटेल और अन्य नेताओं के बजाय नेहरू का महिमामंडन ज्यादा किया गया और 1989 में नेहरू के जन्म शताब्दी समारोह के लिए राज्यों द्वारा प्रायोजित तमाशे किए गए। उसी समय राजीव गांधी ने मां इंदिरा को अपने नाना के बराबर जगह देने के लिए राजधानी के हवाई अड्डे का नाम उनके नाम पर रखा। सोनिया गांधी ने 1998 में कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद इस प्रक्रिया को और आगे बढ़ाया। पार्टी के इतिहास के बारे में जितनी उनकी समझ थी, उसके अनुसार वल्लभभाई पटेल और कांग्रेस के अन्य बड़े नेताओं- आजाद, कामराज, सरोजनी नायडू आदि के लिए उसमें कोई जगह नहीं थी। 2004 से लेकर 2014 के बीच कई बड़े प्रोजेक्ट्स के नाम राजीव गांधी के नाम पर रखे गए। उनके जन्म और मृत्यु की वर्षगांठ मनाने पर भी सार्वजनिक धन का एक बड़ा हिस्सा खर्च किया गया।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के रूप में नरेंद्र मोदी को यह सिखाया गया होगा कि उनके यहां के.एस. हेडगेवार और एम.एस. गोलवलकर कितने पूजनीय हैं। भाजपा में मोदी से श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय की प्रशंसा करने के लिए भी कहा गया होगा। शायद इसीलिए पटेल की प्रशंसा उन्होंने देर से शुरू की, जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री बने। 2012 के आसपास जब उन्होंने प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा जाहिर कर दी, तब सार्वजनिक तौर पर पटेल की बातों को उठाना और तेज कर दिया। मोदी की देखा-देखी भाजपा ने भी पटेल की प्रशंसा शुरू कर दी। जैसा कि लेखक और जनसेवक गोपाल कृष्ण गांधी कहते हैं कि नेहरू के बाद की कांग्रेस ने पटेल को अस्वीकार कर दिया था, वहीं भाजपा ने उन्हें गलत तरीके से भुनाना शुरू कर दिया। हालांकि यह मोदी और भाजपा के लिए नेहरू को नापसंद करने का कारण हो सकता है, लेकिन इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि पूरी जिंदगी कांग्रेसी रहने वाला भाजपा की संपत्ति कैसे बन गया। मोदी और भाजपा ने जिस तरह नेहरू के सहयोगी पटेल का इस्तेमाल पहले प्रधानमंत्री की छवि को मिटाने के लिए किया, उससे आज अगर वल्लभभाई पटेल होते तो चकित रह जाते।

जवाहरलाल नेहरू और वल्लभभाई पटेल की जोड़ी ने आजाद भारत की राजनीति और शासन को आकार दिया था। बाद में इंदिरा गांधी और पी.एन. हक्सर, अटल बिहारी वाजपेयी और एल.के. आडवाणी, मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी तथा वर्तमान में नरेंद्र मोदी और अमित शाह का नाम लिया जा सकता है। लेकिन आधुनिक इतिहास में जो भी राजनीतिक साझेदारियां बनी हैं, उनमें नेहरू और पटेल की साझेदारी सबसे श्रेष्ठ और आवश्यक थी।

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