जनगणना के बिना सरकार नीतियां नहीं बना सकती है !

जनगणना के बिना सरकार नीतियां नहीं बना सकती है

जनसंख्या के आंकड़े सरकार को समावेशी विकास के लिए बेहतर नीति-निर्माण और संसाधनों के बेहतर उपयोग के लिए सक्षम बनाते हैं। पिछली जनगणना 2011 में हुई थी और उसके बाद नीति-निर्माण के लिए अप्रत्यक्ष डेटाबेस पर निर्भर रहना पड़ा है, क्योंकि 2021 में जनगणना हुई नहीं।

अब मुद्दा यह है कि भारत की वर्तमान जनसंख्या क्या है, जिसके आधार पर मुफ्त राशन सहित विभिन्न लाभ वितरित किए जा सकें? यदि सटीक डेटा नहीं है तो अनुमानों के आधार पर अपात्र आबादी को लाभों के वितरण से भ्रष्टाचार की गुंजाइश रहती है।

2011 की जनगणना का आम घरेलू डेटाबेस की तरह एमआईएस में इस्तेमाल किया गया था, ताकि अगली जनगणना तक रियल-टाइम डेटा मिलता रहे और जनसांख्यिकीय डेटा और प्रोफाइल प्राप्त होती रहे।

जनगणना में घरों की सूची, जाति (एससी/एसटी/ओबीसी/सामान्य ) के आधार पर परिवारों का डेटा प्राप्त हुआ था, जिसकी पुष्टि एसईसीसी (2011 में हुई सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना) द्वारा की गई थी। इसे 2015 में जारी किया गया।

प्रत्येक घर में लोगों की संख्या, जेंडर सहित पानी, बिजली, शौचालय, घर, साक्षरता की स्थिति, शिक्षा का स्तर, कार्य और रोजगार गतिविधि आदि तक पहुंच की स्थिति की भी गणना की गई। जनगणना 2011 का प्रमुख निष्कर्ष यह था कि गांवों में लगभग 13% परिवार एक कमरे के घरों में रहते हैं और 56% ग्रामीण परिवारों के पास कृषि-भूमि नहीं है। निरक्षरों की संख्या अधिक दर्ज की गई। 60% ग्रामीण परिवार वंचित या सबसे गरीब तबके के थे।

जनगणना में शहरीकरण 31.1% पाया गया था और किशोरों की गणना की गई थी, जिन्हें कौशल प्रदान करके उनके लिए उपयुक्त रोजगार सृजित करने की आवश्यकता है। गौरतलब बात यह थी कि 50% आबादी 25 वर्ष से कम आयु की थी और 65% से अधिक 35 वर्ष से कम आयु की। पर जनगणना के ताजा आंकड़ों के बिना युवाओं को अपने लिए एक संपत्ति मान बैठना दिन में सपने देखने की तरह है।

आज भी बेरोजगारी दर 8% के दायरे में बनी हुई है। एक नई जनगणना ही इन युवाओं की नए सिरे से पहचान करेगी और उन्हें आम घरेलू डेटाबेस से मैप करके स्थायी रोजगार सुनिश्चित करने के प्रयास कर सकेगी।

2011 की जनगणना में भारत की आबादी 121 करोड़ दर्ज की गई थी, जिसमें 62 करोड़ पुरुष और 58 करोड़ महिलाएं थीं। उसमें यह स्पष्ट रूप से पाया गया था कि धर्म के अनुसार जनसंख्या में वृद्धि हुई है, जबकि जन्म दर में गिरावट आई है।

मृत्यु दर 1951 में प्रति 1000 जनसंख्या पर 25 थी, जो घटकर 2011 में प्रति 1000 पर 7.2 हो गई थी और जन्म के समय जीवन-प्रत्याशा 1951 में 36.7 वर्ष से बढ़कर 2012 में 67.9 वर्ष हो गई थी। बुजुर्ग आबादी के आंकड़े युवाओं के समान ही महत्वपूर्ण हैं, ताकि सरकार यह सुनिश्चित कर सके कि सभी सार्वजनिक स्थानों तक उनकी पहुंच आसान हो और उनके स्वास्थ्य और आय का ध्यान रखा जाए।

2001-11 के दौरान भारत की कुल जनसंख्या में 181.96 मिलियन व्यक्तियों की वृद्धि दर्ज की गई थी। ऐसे में वर्तमान में भारत की आबादी 145 करोड़ की बताई जा रही संख्या से कम होनी चाहिए, लेकिन जनगणना के बिना कोई सटीक अंदाजा नहीं लगाया जा सकता।

अगर हम आधार, पैन, मोबाइल फोन, मनरेगा जैसे अन्य आंकड़ों से जनसंख्या की पुष्टि करते हैं, तो इससे कुछ अंदाजा मिलता है। आधार का दावा है कि 90% आबादी को कवर किया जाएगा, जो कि 125.79 करोड़ है और लगभग 9 करोड़ को कवर किया जाना बाकी है।

इस प्रकार जनसंख्या 135 करोड़ के दायरे में है। 70.24 करोड़ पैन कार्ड धारक हैं। मोबाइल फोन धारक 120 करोड़ हैं, जिनमें से 75 करोड़ स्मार्ट फोन धारक हैं। मनरेगा में 27.5 करोड़ पंजीकृत श्रमिक हैं, जिनमें से 8.4 करोड़ श्रमिक काम चाहते हैं।

इसलिए तुरंत जनगणना करवाना जरूरी है, ताकि पता चले कि आज की तारीख में क्या हम अभी 131 अरब के आसपास ही हैं। अतिरंजित और अनुमानित संख्याएं काम नहीं करती हैं, क्योंकि 2011 से हमारी जन्म दर में भी गिरावट देखी गई है और मृत्यु दर में भी।

जनगणना के बाद हर घर का ताजा डेटा तैयार किया जा सकता है और सभी सरकारी हस्तक्षेपों को ‘समग्र’ जैसे एकल डेटाबेस में शामिल किया जा सकता है। फिर गरीब, कुपोषित, भूखे लोगों को भी उपयुक्त रूप से लक्षित किया जा सकेगा। तब तक मनरेगा पर निर्भर रहने की आवश्यकता है, क्योंकि लगभग सभी गरीब वहां पंजीकृत हैं।

जनगणना के ताजा आंकड़ों के बिना युवाओं को अपने लिए एक संपत्ति मान बैठना दिन में सपने देखने की तरह है। आज भी बेरोजगारी-दर 8% के दायरे में बनी हुई है। एक नई जनगणना ही इन युवाओं की नए सिरे से पहचान करेगी।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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