मुद्दा: जनजातीय हितों की अनदेखी न हो !
मुद्दा: जनजातीय हितों की अनदेखी न हो
बाजारवाद और भौतिकता के दौर में अगर स्थिरता के साथ विकास करना है, तो प्रकृति के साथ-साथ संस्कृति का संरक्षण भी अनिवार्य है। लद्दाख को संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करने की मांग की वजह भी यही है। वहां के लोगों का मानना है कि लद्दाख के प्राकृतिक पर्यावरण और जनजातीय संस्कृति के संरक्षण के लिए स्थानीय परिषदों को स्वायत्तता मिलनी चाहिए, अन्यथा बाह्य हस्तक्षेप से लद्दाख की विशिष्ट संस्कृति के क्षरित हो जाने की आशंका बनी रहेगी।
लद्दाख में करीब 90 फीसदी जनसंख्या जनजातियों की है। इनमें गुज्जर, बकरवाल, बोट, चंगपा, बाल्टिस और पुरिगपा जनजातियां प्रमुख हैं। सीमावर्ती क्षेत्रों में तनाव और संघर्ष के कारण इन्हें विस्थापित होना पड़ा है, जिससे इन्हें सांस्कृतिक विलगाव और सामाजिक-आर्थिक बहिष्करण जैसी गंभीर समस्याओं से जूझना पड़ता है। लद्दाख में पर्यावरणीय समस्याएं भी गंभीर हैं। वर्ल्ड वेदर ऑनलाइन के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के कारण लद्दाख में वर्षा चक्र में व्यापक परिवर्तन हुआ है। लद्दाख के चट्टानी इलाके में बारिश के पानी के संग्रहण की कोई प्राकृतिक व्यवस्था नहीं है। इसलिए यह इसे बाढ़ के रूप में नीचे की ओर धकेलता है। समझना होगा कि लद्दाखवासियों के लिए छठी अनुसूची क्यों जरूरी है? अनुसूचित और जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन के लिए संविधान ने संघ को अनुच्छेद 244 में उत्तरदायी बनाया है। अनुसूचित क्षेत्र ऐसे क्षेत्र हैं, जिन्हें राष्ट्रपति उस राज्य के राज्यपाल से परामर्श के बाद अनुसूचित क्षेत्र घोषित कर सकते हैं। इसके लिए पांचवीं अनुसूची बनाई गई है, जबकि, असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम राज्यों के वे क्षेत्र, जो ऐसे क्षेत्रों के लिए जिला या क्षेत्रीय स्वायत्त परिषदों का प्रावधान करते हैं, जनजातीय क्षेत्र कहलाते हैं। ये चार राज्य छठी अनुसूची में रखे गए हैं। छठी अनुसूची में स्वायत्त परिषदों की स्थापना का प्रावधान है, जिनके पास इन क्षेत्रों पर स्वतंत्र रूप से शासन करने के लिए विधायी, न्यायिक, कार्यकारी और वित्तीय शक्तियां होती हैं।
छठी अनुसूची के तहत 10 स्वायत्त परिषदें हैं, जिनमें असम, मेघालय और मिजोरम में तीन-तीन और त्रिपुरा में एक शामिल है। प्रत्येक स्वायत्त जिले के लिए एक स्वायत्त जिला परिषद (एडीसी) की स्थापना की जाती है, जबकि क्षेत्रीय परिषदों (आरसी) की स्थापना वहां की जाती है, जहां मुख्य जनजाति के अलावा अन्य जनजातियों की महत्वपूर्ण आबादी होती है।
पांचवीं अनुसूची उस राज्य के राज्यपाल को, जहां अनुसूचित क्षेत्र स्थित हैं, संसद या विधानसभा द्वारा पारित किसी भी कानून को रोकने या संशोधित करने और उन क्षेत्रों में सुशासन के लिए कानून बनाने की शक्ति प्रदान करती है। इसमें राज्यपाल को सलाह देने के लिए जनजातीय सलाहकार परिषदों की भी स्थापना का प्रावधान है। 1996 में पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम पारित किया गया, जिसमें अनुसूचित क्षेत्रों में बस्ती स्तर की ग्राम सभाओं को सशक्त बनाने का उल्लेख है। प्रश्न यह है कि लद्दाख पांचवीं अनुसूची के बदले छठी अनुसूची में शामिल क्यों होना चाहता है। जम्मू-कश्मीर के 2019 में पुनर्गठन के पहले लद्दाख को अनुच्छेद 370 और 35-ए के तहत विशेष संरक्षण प्राप्त था।
पांचवीं अनुसूची के क्षेत्र बिना किसी विधायी शक्ति के पंचायती राज और जिला परिषद द्वारा शासित होते हैं, वहीं छठी अनुसूची में क्षेत्रों की देखरेख स्वायत्त जिला परिषदों द्वारा की जाती है। लद्दाख में पहले से ही स्वायत्त पर्वतीय विकास परिषदें हैं और उन्हें छठी अनुसूची में एकीकृत करने से उन्हें समान शक्तियां मिलेंगी। भारत के संविधान में जिस प्रकार का राजनीतिक ढांचा बनाया गया है, उसमें राज्यों और संघ शासित क्षेत्रों के महत्व को कम नहीं आंका जा सकता, क्योंकि इनकी पहचान की रक्षा कर ही राष्ट्र की अखंडता को सुरक्षित रखा जा सकता है।
भारत में संघ शासित क्षेत्रों के गठन का आधार मूलतः सांस्कृतिक रहा है। हालांकि कई ऐसे क्षेत्रों की स्थापना सांस्कृतिक कारकों के साथ-साथ अन्य कारकों के आधार पर भी की गई है जैसे, दिल्ली (राजनीतिक), पुदुचेरी (भौगोलिक) आदि। लद्दाख की संस्कृति की रक्षा तो महत्वपूर्ण है ही, यह क्षेत्र सामरिक अथवा राष्ट्र की सुरक्षा की दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। ऐसी स्थिति में यहां विरोध प्रदर्शन की गंभीरता पर अवश्य विचार किया जाना चाहिए।