क्या यह सिर्फ परिवार का झगड़ा है?
क्या यह सिर्फ परिवार का झगड़ा है?
जब भी भाजपा की स्थिति थोड़ी कमजोर होती है, आलोचक संघ-भाजपा के बीच सत्ता-संघर्ष की कहानी गढ़ने लगते हैं। लेकिन, मोदी संघ का मुखौटा नहीं हैं और संघ भी भीतर से जानता है कि मोदी उसकी विचारधारा के सबसे अच्छे उत्पादों में से हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के बीच क्या गड़बड़ हुई है? वैसे तो कुछ खास नहीं है, लेकिन शायद संघ को लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी के व्यक्तित्व ने नुकसान पहुंचाया है और वरिष्ठ पार्टी नेताओं ने भाजपा के कई उम्मीदवारों के बारे में चेतावनियों की अनदेखी की, जिसके कारण वे हार गए, खासकर उत्तर प्रदेश में। इसके अलावा, कहा गया है कि मोदी ने पिछले सात-आठ साल से संघ के नेताओं से सलाह लेना भी बंद कर दिया है।
मोदी की विराट शख्सियत ने संघ नेताओं के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ी कि वे कोई मुद्दा उनके सामने उठाएं। यही वजह है कि संघ प्रमुख मोहन भागवत ने लोकसभा में भाजपा के बहुमत हासिल नहीं करने पर अपनी पहली सार्वजनिक टिप्पणी में कहा कि एक सच्चे सेवक को ‘अहंकार’ नहीं होना चाहिए और दूसरों को नुकसान पहुंचाए बिना अपना काम करना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि तीखे चुनाव प्रचार के दौरान ‘मर्यादा का ख्याल नहीं रखा गया।’ हालांकि संघ के भीतर के कई लोगों ने संकेत देने की कोशिश की कि उनकी टिप्पणियां केवल मोदी और भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व पर ही नहीं थीं।
आम तौर पर संघ रोजमर्रा के राजनीतिक मामलों से दूर दिखना चाहता है और वह 2025 में अपनी स्थापना के सौ वर्ष पूरे होने पर अपना जनाधार बढ़ाने में व्यस्त है। कुछ संघ कार्यकर्ता राष्ट्र एवं राज्य स्तरीय संगठन सचिव या संयुक्त संगठन सचिव के रूप में भाजपा के लिए काम करते हैं।
ये कार्यकर्ता पूर्णकालिक होते हैं और उन्हें ‘प्रचारक’ कहा जाता है। मोदी स्वयं संघ के प्रचारक थे और भाजपा संगठन में सचिव के पद पर थे। भाजपा और संघ के बीच प्रकटतः न तो हितों का टकराव रहा है और न ही सत्ता संघर्ष रहा है, क्योंकि वे अलग-अलग क्षेत्रों में काम करते हैं। बताया जाता है कि संघ नेतृत्व समझता है कि राजनीति की अपनी मजबूरियां होती हैं और भाजपा उनका पालन करने के लिए स्वतंत्र है। संघ न तो शासन-प्रशासन और न ही भाजपा की राजनीतिक गतिविधियों में दखल देने की बात कहता है। केंद्रीय भाव यह है कि वह वैचारिक मार्गदर्शक की भूमिका निभाता है और आगे भी निभाता रहेगा।
लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान संघ ने चुप्पी साधे रखी, जबकि ऐसी खबरें भी आईं कि प्रचारक मतदाताओं को एकजुट करने में उत्साह नहीं दिखा रहे हैं। हालांकि भाजपा के बहुमत से चूक जाने के तुरंत बाद आलोचनात्मक स्वर उभरे। भागवत की यह टिप्पणी ऐसे समय आई, जब इस बात को लेकर काफी चर्चा हो रही है कि क्या संघ ने वास्तव में भाजपा से दूरी बना ली है और चुनाव के दौरान दिल से उसका समर्थन नहीं किया? नतीजों के बाद अपनी पहली टिप्पणी में संघ प्रमुख ने प्राथमिकता के आधार पर मणिपुर संघर्ष खत्म करने और सरकार तथा विपक्ष के बीच आम सहमति की आवश्यकता पर बल दिया था।
आलोचनाओं का यह सिलसिला यहीं नहीं रुका। संघ नेता इंद्रेश कुमार ने कहा कि भगवान राम ने एक ‘अहंकारी’ पार्टी को लोकसभा में बहुमत पाने से रोक दिया, जो ‘रामभक्त’ होने का दावा करती थी। फिर एक संघ विचारक रतन शारदा ने संघ के मुखपत्र ‘ऑर्गेनाइजर’ में लिखा कि चुनावी नतीजे अति आत्मविश्वासी भाजपा कार्यकर्ताओं के लिए ‘रियलिटी चेक’ थे। उन्होंने दावा किया कि भाजपा नेतृत्व ने चुनाव में सहयोग के लिए संघ के स्वयंसेवकों से संपर्क नहीं किया। संघ के कई नेता भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा से नाराज थे, जिन्होंने चुनाव से पहले कहा था कि भाजपा को संघ की जरूरत नहीं है। उनका मानना था कि इससे संघ कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरा है ।
देखा जाए तो प्रधानमंत्री के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी के विपरीत मोदी को पिछले दस वर्षों में संघ से कोई बड़ी समस्या नहीं हुई। उन्होंने संघ और भाजपा के लक्ष्यों को पूरा किया, जिनमें अनुच्छेद 370 हटाना और अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण जैसे बड़े मुद्दे शामिल हैं। वाजपेयी के ‘उदारवादी’ रवैये पर केएन गोविंदाचार्य ने टिप्पणी करते हुए उन्हें संघ का मुखौटा कहा था, (हालांकि वह लगातार इस बयान से इन्कार करते रहे)। जाहिर है, वाजपेयी ने उस टिप्पणी के लिए गोविंदाचार्य को कभी माफ नहीं किया और धैर्यपूर्वक सही समय का इंतजार किया। और फिर, गोविंदाचार्य को इस तरह निर्वासित कर दिया कि वे कभी वापस नहीं आए।
लेकिन मोदी संघ का मुखौटा नहीं हैं। वास्तव में वे संघ की विचारधारा के सबसे अच्छे उत्पादों में से एक हैं। साथ ही, मोदी एक ऐसे नेता हैं, जो 2024 के नतीजों को भूलने वाले नहीं हैं। वे विस्तार से पता लगाएंगे कि नतीजे भाजपा के लिए अच्छे क्यों नहीं रहे। इसलिए गहनता से देखें, तो मोदी और संघ के बीच कोई मूलभूत द्वैध नहीं है।
1980 के दशक में संघ ने मोदी को भाजपा को सौंपा था और वह प्रधानमंत्री बने। हां, यह जरूर है कि भाजपा के साथ मोदी की छवि ‘लार्जर देन लाइफ’ है। ऐसे में, भले ही भाजपा लोकसभा में बहुमत पाने से चूक गई हो, लेकिन पार्टी पर उनकी पकड़ और मतदाताओं पर उनके प्रभाव को आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता।
दरअसल, जब भी भाजपा की स्थिति थोड़ी कमजोर होती है, तो बाहर-भीतर के आलोचक संघ-भाजपा के बीच सत्ता-संघर्ष की काल्पनिक कहानी गढ़ने लगते हैं। संघ अपने 36 संगठनों के माध्यम से 60,000 दैनिक शाखाएं और दो लाख से ज्यादा कल्याणकारी परियोजनाएं चलाने में व्यस्त है। वह 2025 में अपनी स्थापना के सौ वर्ष पूरे होने पर आधार मज़बूत करने में जुटा है। भाजपा के कार्यकर्ताओं की संख्या काफी बढ़ गई है और इसमें नेताओं की एक बड़ी जमात है।
अंदरूनी सूत्रों के मुताबिक, मोदी जैसे मजबूत नेता के नेतृत्व में पार्टी खुद को संभालने में सक्षम है और आने वाले दिनों में पार्टी को अपनी दिशा खुद तय करनी है। चुनाव नतीजों के कारण अगर कुछ सुधार की जरूरत पड़ी, तो वह भाजपा खुद करेगी। मोदी इतने सख्त हैं कि खुद के साथ-साथ विफलताओं के लिए जिम्मेदार हर तत्व को कसौटी पर कसेंगे। अंततः जो लोग संघ-भाजपा में सत्ता संघर्ष की उम्मीद कर रहे हैं, उन्हें निराशा होगी।