बदल रहा मुस्लिम समाज का चेहरा !

सच्चर रिपोर्ट के 18 साल बाद…
बदल रहा मुस्लिम समाज का चेहरा, पढ़ाई को लेकर हो रही जोरदार कोशिशें
साल 2006 में संसद में तत्कालीन यूपीए सरकार ने सच्चर कमेटी की रिपोर्ट पेश की थी, जिसमें मुसलमानों के पिछड़ेपन को उजागर करते हुए उनके उत्थान के लिए कई सिफारिशें की गई थीं. इनमें से कुछ पर अमल हुआ और बहुत सी सिफारिशें आज तक ठंडे बस्ते में हैं. तब से अब तक भारत में बड़ा बदलाव आ चुका है, देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय ने कुछ तरक्की भी की है. इसके पीछे बड़ी वजह ये है कि समाज के बहुत से जागरुक लोगों ने खुद ही कमर कस ली है और नई पीढ़ी को उच्च शिक्षा से लेकर प्रतियोगी परीक्षाओं तक की तैयारी करवाने पर ज़ोर दिया जा रहा है.

उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ में स्थित एक मदरसे से आलिम की डिग्री लेने के बाद हाफिज़ फव्वाद जावेद की तकदीर ने ऐसी करवट बदली कि वो मौलाना से डॉक्टर फवाद जावेद बन गए. फव्वाद बताते हैं कि ‘क़ुरान हिफ़्ज़ करने के बाद, आज़मगढ़ के जामिअतुल-तल्हा मदरसे से मैंने पांच साल का आलमियत का कोर्स किया, ये कोर्स करने वाले मौलवी भी कहलाते हैं. इस कोर्स को मदरसा बोर्ड से 12वीं स्तर की मान्यता प्राप्त है, लेकिन इसके आगे आप आर्ट्स की पढ़ाई कर सकते हैं. लेकिन मेरा इरादा मेडिकल फील्ड में जाने का था, इसलिए ये डिग्री काम नहीं आई. कुछ लोगों से दक्षिण के एक एजुकेशन ग्रुप के बीदर कैंपस के बारे में पता लगा तो हम वहां पहुंचे, वो ड्रॉपआउट और मदरसा बैकग्राउंड के छात्रों को फिर से दसवीं बारहवीं की पढ़ाई करवाते हैं. इसी दौरान वो NEET की तैयारी भी करवाते हैं.

भी सोचा नहीं था कि मौलाना से डॉक्टर बनेंगे

2015 में फव्वाद जावेद ने आलमियत की पढ़ाई पूरी की, 2018 में बारहवीं और NEET की परीक्षा दी. परीक्षा अच्छी हुई तो जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी दिल्ली में बीडीएस की सीट मिल गई और अब वो दांतों के डॉक्टर यानी डेंटिस्ट बन गए. वो कहते हैं कि मैं जब मदरसे से पढ़ाई कर रहा था, तब डॉक्टर बनने के बारे में नहीं सोचा था, लेकिन ये ज़रूर सोचा था कि कुछ न कुछ ज़रूर करना है.

दरअसल, मुस्लिम समुदाय में शिक्षा पर काम करने वाली कुछ ऐसी संस्थाएं आगे आई हैं जो मदरसा बैकग्राउंड के छात्रों को भी मुख्य धारा में लाने के लिए काम कर रही हैं. डॉ. फव्वाद ने बताया कि मदरसे की पढ़ाई के बाद कर्नाटक के बीदर में एक शिक्षण संस्थान में उन्होंने दाखिला लिया था मदरसा बैकग्राउंड के छात्रों की फीस वहां काफी कम है, उस वक्त नॉर्मल फीस करीब एक लाख रुपए सालाना थी, जबकि हाफ़िज़/मदरसा बैकग्राउंड वालों की तकरीबन 36 हज़ार रुपए थी. मैं अगर वहां नहीं गया होता तो कुछ न कुछ और करता, लेकिन शायद ये नहीं करता जो अब किया है. मदरसे में थोड़ी बहुत अंग्रेज़ी पढ़ी थी, बाकि फ़िज़िक्स कैमिस्ट्री वगैरह नहीं पढ़ा था. मैं इस बात का हामी हूं कि ऐसे एजुकेशन के हब और ज़्यादा से ज़्यादा होने चाहिए. इसमें जो लोग भी अपना योगदान दे सकें उन्हें समाज के लिए कुछ करना चाहिए.

सच्चर रिपोर्ट के 18 साल बाद...बदल रहा मुस्लिम समाज का चेहरा, पढ़ाई को लेकर हो रही जोरदार कोशिशें

बदल रहा मुस्लिम समाज का चेहरा …
देश के 38 हज़ार मदरसों में पढ़ते हैं 20 लाख बच्चे

देश के इस सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय के बहुत से बच्चे मदरसों में तालीम ज़रूर ले रहे हैं जिसके पीछे अलग-अलग कारण हैं. लेकिन मदरसों में पढ़ने वालों की तादाद मुख्यधारा की पढ़ाई करने वालों के मुकाबले काफी कम है. केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय, राज्य सरकारों की वेबसाइटों और अन्य कई रिपोर्टों के मुताबिक, देशभर में लगभग 38,000 मदरसे हैं, जिनमें से तकरीबन 28 हज़ार मान्यता प्राप्त हैं और 10 हज़ार गैर-मान्यता प्राप्त. हालांकि, विशेषज्ञों का तर्क है कि छोटे गांवों और दूरदराज के इलाकों में मदरसों की गहरी मौजूदगी को देखते हुए यह गणना सही संख्या को नहीं दर्शाती है. बहुत से अज्ञात मदरसे सरकार की मान्यता प्राप्त या गैर-मान्यता प्राप्त श्रेणियों से परे मौजूद हो सकते हैं.

विशेषज्ञों का मानना ​​है कि मुस्लिम समुदाय द्वारा इन संस्थानों को चुनने के पीछे प्रमुख वजह गरीबी और शैक्षिक तौर पर पिछड़ापन है, कुछ लोग इसलिए भी मदरसों में बच्चों को भेजते हैं कि अगली पीढ़ी धर्म को समझे. राष्ट्रीय शैक्षिक योजना और प्रशासन संस्थान के पूर्व प्रोफेसर अरुण सी. मेहता की रिपोर्ट भारत में मुस्लिम शिक्षा की स्थिति के अनुसार, आंकड़ों से पता चला है कि सभी मान्यता प्राप्त और गैर-मान्यता प्राप्त मदरसों में साल 2022-23 में लगभग 20 लाख छात्रों ने दाखिला लिया. इसका मतलब है कि सिर्फ 2.99% मुस्लिम छात्रों का दाखिला मदरसों में होता है, बाकी आधुनिक शिक्षा को चुनते हैं.

अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के मुकाबले शिक्षा में पीछे हैं मुस्लिम

उच्च शिक्षा पर शिक्षा मंत्रालय की अखिल भारतीय सर्वेक्षण रिपोर्ट (AISHE 2020-21) के अनुसार, उच्च शिक्षा संस्थानों में मुसलमानों का एनरोलमेंट यानी नामांकन अन्य सामाजिक समूहों की तुलना में कम है. मुस्लिम नामांकन 4.6% है तो वहीं ओबीसी, एससी और एसटी समुदायों का प्रतिनिधित्व क्रमशः 35.8%, 14.2% और 5.8% हैं. शिक्षा मंत्रालय की रिपोर्ट के आंकड़ों से पता चलता है कि 2021-22 में देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में मुसलमानों का कुल नामांकन 21.1 लाख रहा, जबकि 2020-21 में यह आंकड़ा 19.22 लाख और 2014-15 में 15.34 लाख था, यानी 7 वर्षों में 37.5% की बढ़ोतरी हुई लेकिन कोरोना के दौरान इसमें बड़ी गिरावट आई थी.

वहीं 2017-18 में अन्य अल्पसंख्यक समुदायों (ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन और पारसी) का प्रतिनिधित्व 6.5 लाख था जो 2021-22 में बढ़कर 9.1 लाख हो गया यानी सात सालों में 39.4% की वृद्धि हुई. इन सात सालों में मुस्लिम लड़कियों का एनरोलमेंट 7.13 लाख से 46% बढ़कर 10.4 लाख हो गया, जबकि अन्य अल्पसंख्यक समुदायों की लड़कियों का नामांकन 3.5 लाख से 35.4% की बढ़ोतरी के साथ 4.73 लाख हो गया.

Education Ministry data on Muslim enrolment in higher education

उच्च शिक्षा में मुस्लिम नामांकन पर शिक्षा मंत्रालय के आंकड़े

सच्चर समिति ने उजागर किये हालात

कई सर्वे हुए जिनमें मुसलमानों की शिक्षा के मामले में कमज़ोरी बार-बार रिपोर्ट की गई. संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी यूपीए की मनमोहन सिंह सरकार ने 2005 में सात सदस्यों की एक हाई लेवल कमिटी सच्चर समिति का गठन किया था जिसकी अध्यक्षता न्यायमूर्ति राजिंदर सच्चर ने की थी. इस समिति ने भारतीय मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक और शैक्षिक स्थिति का अध्ययन किया. साल 2006 में आई सच्चर समिति की रिपोर्ट ने भारत में मुस्लिम समाज के पिछड़ेपन को उजागर किया. रिपोर्ट में उल्लेख किया गया कि 2001 में मुसलमानों में साक्षरता दर 59.1% थी, जो राष्ट्रीय औसत (65.1%) से काफी कम है. यह रिपोर्ट आजाद भारत में आधी सदी से ज़्यादा समय के दौरान मुस्लिम समुदाय के पिछड़ेपन का एक सत्यापित लेखा जोखा पेश करती है और यह भविष्य में भारत के मुसलामानों के हालात को लेकर एक आधार बिंदु की तरह है.

सच्चर समिति की रिपोर्ट में बताया गया कि मुस्लिम समुदाय आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा हुआ है, सरकारी नौकरियों में मुसलमानों का उचित प्रतिनिधित्व नहीं है, बैंक लोन लेने में इन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ता है और कई मामलों में उनकी हालत अनुसूचित जाति-जनजातियों से भी ज़्यादा खराब है. रिपोर्ट में ये भी बताया गया कि 6 से 14 साल की उम्र के एक-चौथाई मुस्लिम बच्चे या तो स्कूल नहीं जा पाते या बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं, मैट्रिक स्तर पर मुसलमानों की शैक्षणिक उपलब्धि राष्ट्रीय औसत के मुकाबले काफी कम है और सिर्फ 50 प्रतिशत मुस्लिम ही मिडिल स्कूल की पढ़ाई पूरी कर पाते हैं जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह औसत 62 प्रतिशत है. रिपोर्ट में बताया गया कि सरकारी नौकरियों में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व सिर्फ 4.9 प्रतिशत है, इसमें भी वो ज़्यादातर निचले पदों पर हैं, उच्च प्रशासनिक सेवाओं यानी IAS, IPS और IFS जैसी सेवाओं में इस समुदाय की भागीदारी उस समय सिर्फ 3.2 प्रतिशत थी.

उच्च शिक्षा में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व के आंकड़े

जनगणना-2011 के बाद से देश में जनगणना नहीं हुई है, सच्चर कमिटी के रिपोर्ट संसद में पेश होने के तकरीबन पांच साल बाद हुई इस जनगणना के आंकड़ों से पता चलता है कि दक्षिण भारत के राज्यों में रहने वाले मुसलमान उत्तर भारत की तुलना में ज़्यादा शिक्षित हैं. उच्च शिक्षा के मामले में भी तेलंगाना, कर्नाटक और केरल का मुस्लिम समुदाय दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और राजस्थान से काफी आगे है.

Proportion of Muslim students in higher education according to Census-2011

जनगणना-2011 के मुताबिक उच्च शिक्षा में मुस्लिम छात्रों का अनुपात

AISHE 2020-21 रिपोर्ट में सिफारिश की गई है कि वित्तीय बोझ को कम करने और उच्च शिक्षा तक पहुंच बढ़ाने के लिए मुस्लिम छात्रों के लिए खास तौर से स्कॉलरशिप, अनुदान और वित्तीय सहायता बढ़ाने की ज़रूरत है. कई मुस्लिम छात्र कम आय वाले परिवारों से आते हैं और उच्च शिक्षा का खर्च वहन करने के लिए उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ता है. धार्मिक पृष्ठभूमि या आर्थिक स्थिति के बावजूद समावेशी नीतियों और लक्षित समर्थन को लागू करना शिक्षा के अंतर को पाटने और सभी छात्रों को समान अवसर प्रदान करने के लिए बेहद ज़रूरी है.

नहीं हुआ सच्चर समिति की कई सिफारिशों पर अमल

सच्चर समिति के सदस्य और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के OSD रहे ज़कात फाउंडेशन के संस्थापक सैयद ज़फ़र महमूद कहते हैं कि सच्चर कमिटी ने जो सिफारिशें की थीं, यूपीए सरकार के समय उनमें से कुछ पर अमल किया गया था. कैबिनेट के रेजल्यूशन से उन सिफारिशों का अप्रूवल हुआ था, फिर वो संसद के पटल पर भी रखी गई थीं. उसके बाद कमिटी ऑफ़ सेक्रेटरीज ने पीएम के अप्रूवल से एक मॉनिटरिंग कमिटी बनाई, जिसके कन्वीनर कैबिनेट सचिव थे. ऐसा नहीं कह सकते कि कुछ नहीं हुआ, यूपीए सरकार में सच्चर कमिटी की कुछ सिफारिशें लागू हुई थीं, कुछ कुछ ज़रूर हुआ था लेकिन बहुत सी सिफारिशें आज भी पेंडिंग हैं. उस समय वक़्फ़ एक्ट में बदलाव हुआ, सच्चर कमिटी ने 17-18 पॉइंट बताए थे, जिनमें से 12 सिफारिशें लागू हुईं और वक़्फ कानून पहले से ज़्यादा मज़बूत हो गया.

मुसलमानों को मुख्य धारा से जोड़ने के लिए दक्षिण भारत में अभियान
दक्षिण भारत के कई राज्यों में मुस्लिम एजुकेशन पर काम कर रहे शाहीन ग्रुप के अब्दुल क़दीर ने कहा कि कम्युनिटी में अब तालीमी शऊर आ रहा है, लेकिन अभी और मेहनत की ज़रूरत है. शाहीन ग्रुप की शुरुआत 1989 में हुई थी, अब देशभर में इसके शिक्षण संस्थानों की 80 ब्रांच हैं. स्कूली पढ़ाई के अलावा इंजीनियरिंग, मेडिकल, सीए और कई एंट्रेंस की तैयारी करवाते हैं. खासतौर से यह संस्था ड्रॉपआउट बच्चों पर काम कर रही है, इसके लिए अकैडमिक ICU नाम का प्रोग्राम शुरू किया है. जिसके तहत साल 2047 तक 10 लाख बच्चों को इसका फायदा पहुंचाने का लक्ष्य है, इसमें हिंदू-मुस्लिम सभी शामिल होंगे.
UPSC में बढ़ा नंबर, फिर भी मुस्लिम अफसरों की तादाद कम

बिहार की राजधानी पटना में स्थित रहमानी-30 संस्था के सीईओ फहद रहमानी कहते हैं कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के बाद भी मुसलमानों के उत्थान के लिए सरकार की तरफ से कुछ खास कोशिश नहीं नज़र आईं. ये सिविल सोसाइटी का ही रिस्पॉन्स और कोशिश है जो आज मुस्लिम बच्चों को अच्छी शिक्षा देने की कोशिश हो रही है, हालांकि जो कुछ भी हो रहा है वो काफी नहीं है. आप UPSC परीक्षा में 51 मुसलमानों की कामयाबी की बात करते हैं, लेकिन यूपीएससी में उनका अनुपात भारत में मुसलमानों की आबादी के अनुपात में एक तिहाई भी नहीं है.

सिर्फ ज़कात देने से आप ज़िम्मेदारी से मुक्त नहीं होते

सर्वोकॉन फाउंडेशन के चेयरमेन हाजी कमरुद्दीन कहते हैं कि मुस्लिम समुदाय में बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो अपनी सालाना जमा रकम पर ज़कात निकालकर सामाजिक ज़िम्मेदारी से खुद को मुक्त समझते हैं. दरअसल, ज़कात वो ज़रूरी दान है जो हर मालदार मुसलमान पर ज़रूरतमंदों और गरीबों को देना फ़र्ज़ है. कमरुद्दीन कहते हैं कि ज़कात तो गरीब लोगों का हक़ है, वो तो आपको देना ही देना है. ज़कात के अलावा भी हमें समाज के लिए खर्च करना चाहिए.

अल्पसंख्यकों के लिए सरकारी स्कीमों की कमी नहीं

मुसलमानों से जुड़ी कई सरकारी स्कीमों के बंद होने को लेकर राष्ट्रीय माइनॉरिटी कमीशन के चेयरमेन इक़बाल सिंह लालपुरा कहते हैं कि एजुकेशन के लिए भारत सरकार की बहुत सारी स्कीम हैं, उसमें एजुकेशन भी है और रोज़गार भी है, उसमें कहां लिखा है कि ये माइनॉरिटीज़ के लिए नहीं हैं. उसके अलावा 15 और स्कीम हैं, यानी आम आदमी के लिए अगर 225 हैं तो अल्पसंख्यकों के लिए 240 स्कीम हैं. ऐसे माहौल में लोगों को डराने के लिए एक डर की भावना, असुरक्षा की भावना और भेदभाव की भावना पैदा की जा रही है. लेकिन ये खूबसूरत गुलदस्ता तभी बनेगा जब सब फूल अलग-अलग रंग के और खुशबूदार हों. हम सबको मिलकर आगे बढ़ना है देश को आगे बढ़ाना है. जो लोग या संस्थाएं अपनी कम्युनिटी के लिए काम कर रहे हैं, वो हमारी कोई मदद चाहते हैं तो हम हाज़िर हैं, वो कभी भी मेरे दफ्तर आएं, किसी भी संस्था को सरकार की किसी मदद की ज़रूरत है तो हम उसके साथ हैं.

हुनर है तो फिर रोज़गार की कमी नहीं

मुस्लिम समुदाय में कहीं न कहीं ये धारणा भी है कि पढ़ लिखकर क्या करना जब नौकरी नहीं मिलेगी. इसपर नोएडा इंडस्ट्रियल एसोसिएशन के अध्यक्ष आदित्य घिल्डियाल कहते हैं कि कोई भेदभाव मैंने नहीं देखा, बल्कि अल्पसंख्यक समुदाय से एक सहानुभूति रहती है. हमारे यहां आम तौर पर 90 से 95 प्रतिशत तक हिंदू होते हैं इसलिए अल्पसंख्यकों को लेकर एक अच्छी भावना रहती है कि अगर ये दस में से नौ भी है तो इसको लिया जाए. लड़कियों को भी आगे आना चाहिए, तकनीकी कोर्स करना चाहिए, हम इन सबको चांस देने की कोशिश करते हैं. अगर कोई तकनीकी रूप से बहुत मज़बूत है, उसने इंजीनियरिंग और MBA किया हुआ है, तो उसके लिए व्हाइट कॉलर नौकरियों में अच्छा स्कोप है.

मुस्लिम लड़कियों को टेक्निकल कोर्स करवाने की ज़रूरत

आदित्य ने कहा कि आजकल लड़कियां बहुत सारे ऐसे काम कर रही हैं जो पहले सिर्फ लड़के किया करते थे. अल्पसंख्यक समुदाय की लड़कियों को भी आगे लाया जाए, उन्हें तकनीकी कोर्स करवाए जाएं, उनके लिए नौकरी भी ज़रूर उपलब्ध होगी. हमारे ग्रेटर नोएडा में सिविल सेवा पास करके एक मुस्लिम कम्युनिटी की बच्ची अफसर बनी है, ये बड़ी भारी उपलब्धि है, एजुकेशन में काफी कुछ हो रहा है, मगर जिस स्तर पर होना चाहिए वो नहीं हो रहा है. मुझे लगता है कि जो एजुकेशन के हब हैं, खास तौर पर जो अल्पसंख्यक समुदाय के गांव हैं, उनके आसपास सरकार को चाहिए कि ITI खोलें, अगर नहीं खोल पा रहे हैं तो PPP यानि पब्लिक-प्राइवेट-पार्टनरशिप मॉडल पर खोलें. इन बच्चों को सहारा दें, टेक्निकल कोर्स करवाएं. जिस तरह खास तौर पर उत्तर प्रदेश में इंडस्ट्रीज़ आ रही हैं, बहुत स्कोप है. बहुत लंबे कोर्स करवाने की ज़रूरत नहीं है, उनको छोटे छोटे कोर्स करवा दें तो ये एक बड़ा योगदान होगा.

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