भारतीय संगीत के सात सुरों की गाथा !

सप्तक का साज: सा, रे, गा, मा…, भारतीय संगीत के सात सुरों की गाथा
संगीत की दुनिया में 7 सुरों का बहुत महत्व है. इन्हें ‘सप्त स्वर’ कहा जाता है. यहां जानिए कैसे प्राचीन भारत में संगीत का विकास हुआ.

दुनियाभर में भले ही संगीत को अलग-अलग तरीके से समझा जाता है लेकिन हर जानी-मानी संस्कृति में संगीत मौजूद रहा है. इसलिए ये माना जाता है कि संगीत इंसान की हर सभ्यता का एक अहम हिस्सा है.

ये तो हम जानते हैं कि संगीत बहुत पुराना है लेकिन ये कब और कैसे शुरू हुआ, इस पर तो बहुत बहस है. कुछ कहते हैं ये भाषा के साथ ही अस्तित्व में आया, कुछ का मानना है भाषा के बाद आया और कुछ मानते हैं ये दोनों साथ-साथ विकसित हुए.

हाल ही में हुई एक दिलचस्प रिसर्च के बारे में जानते हैं आप? हट्टोरी और टोमोनागा नाम के वैज्ञानिकों ने चिंपैंजियों के एक समूह को तालबद्ध संगीत सुनाया गया. मजे की बात ये है कि ये चिंपैंजी ताल से ताल मिलाकर नाचने लगे. हालांकि, उनकी आवाजें गाने के लिए नहीं बनी हैं. वो सिर्फ गुर्रा सकते हैं (आप सुन सकते हैं).

तो आखिर हम इंसानों ने गाना और बाजे बजाना कब शुरू किया? 
इंसान ने कब और कैसे गाना शुरू किया, ये सवाल हमेशा से ही रहस्य का विषय रहा है. इस रिसर्च के अनुसार, बोलचाल की भाषा के विकसित होने के बाद ही इंसानों ने गाना शुरू किया होगा. माना जाता है कि भाषा की शुरुआत करीब 25 लाख साल पहले पाषाण युग में हुई होगी. गाने का सिलसिला इसके थोड़ा बाद में यानी करीब 25 लाख साल पहले शुरू हुआ होगा.

इस बात के प्रमाण भी मिले हैं कि करीब 40,000 साल पहले से इंसान संगीत के उपकरण बनाकर बजा रहा है. वैज्ञानिकों को उस समय की एक बांसुरी भी मिली है, जो जानवर की हड्डी से बनी थी और उसमें सुर निकालने के लिए सात होल (छेद) भी थे.

सुरों की पहचान कब?
भारतीय संगीत में सुरों को स्वर कहते हैं. इन स्वरों के नाम हैं- षड्ज (सा), रिषभ (रे या रि), गांधार (गा), मध्यम (मा), पंचम (प), धैवत (धा या द) और निषाद (नि). 

भारत में संगीत के सुरों (सा, रे, गा, मा, प, ध, नि) की शुरुआत का वैदिक काल (1500-600 ईसा पूर्व) में जिक्र मिलता है. यही सुर आज भी भारतीय शास्त्रीय संगीत की आधारशिला हैं. यूरोप और मध्य पूर्व में भी लगभग 9वीं शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास स्वतंत्र रूप से संगीत लिखने के तरीके विकसित हुआ.

शुरुआत में वैदिक संगीत में सिर्फ एक ही सुर होता था. धीरे-धीरे इसमें दो और फिर तीन सुर शामिल किए जाने लगे. इस तरह से ये सिलसिला चलता रहा और अंततः सात सुरों (सप्त स्वर) का निर्माण हुआ. ये वही सुर हैं जो आज भी भारतीय शास्त्रीय संगीत की आधारशिला हैं. 

सप्तक का साज: सा, रे, गा, मा..., भारतीय संगीत के सात सुरों की गाथा

भारतीय संगीत के सात सुर और जानवरों का संबंध
सप्तस्वर के सात सुर किसी के मन से अचानक नहीं गढ़े गए थे. भरत मुनि के ग्रंथों में बताया गया है कि ये स्वर प्रकृति की ही देन हैं. हर स्वर को किसी न किसी पक्षी या जानवर की आवाज से प्रेरणा मिली है. लेकिन इतना ही नहीं, इन सुरों को चुनते समय इस बात का भी ध्यान रखा गया कि गाते समय उनकी आवृत्ति यानी तीखापन धीरे-धीरे बढ़ता जाए. 

ये सात सुर एक प्राकृतिक क्रम बनाते हैं. गाने वाला खुद महसूस कर सकता है कि सुरों को गाने पर शरीर के भीतर कंपन नाभि से शुरू होकर ऊपर की ओर बढ़ते हैं. आखिर में होठों तक पहुंचते हैं. यही नहीं, भारतीय संगीतकार ये भी मानते हैं कि इन स्वरों से पैदा होने वाले कंपन सिर्फ सुनने में अच्छे नहीं लगते, बल्कि मन को शांत करने और मन को प्रसन्न करने की ताकत भी रखते हैं.

राग और ताल: भारतीय संगीत की जान
राग दरअसल सुरों का एक खास चयन होता है जिसे एक निश्चित क्रम में गाया जाता है. इसे आप किसी रंगपटल की तरह समझ सकते हैं जहां अलग-अलग सुर मिलकर एक खास माहौल बनाते हैं. 

वहीं, ताल लय को बताता है. ताल में यह बताया जाता है कि किस खास गिनती में और किस क्रम में थाप या बोल बजाए जाएं. राग और ताल मिलकर एक पूरे गाने की संरचना करते हैं. तो वैसे तो भारत में सदियों से राग और ताल का इस्तेमाल होता रहा है, लेकिन संगीत को लिखने का तरीका अब और विकसित हो गया है.

भारतीय संगीत का मध्यकालीन सफर
भारतीय संगीत का बीज तो वैदिक काल में ही पड़ गया था. उस समय सामवेद में श्लोक को संगीत के साथ गाया जाता था. कहा जाता है कि नारद मुनि ही संगीत की कला को धरती पर लाए. उनका मानना था कि ब्रह्मांड में एक निरंतर चलने वाली संगीतमय ध्वनि है, जिसे ‘नाद ब्रह्म’ कहा जाता है.

हालांकि, भारतीय संगीत का विकास सिर्फ प्राचीन काल तक सीमित नहीं रहा. मध्यकाल में भी संगीत काफी समृद्ध हुआ. 13वीं सदी तक पूरे भारत में एक ही तरह का संगीत पाया जाता था. 13वीं सदी के आसपास हरिपाला नाम के विद्वान ने सबसे पहले ‘हिंदुस्तानी संगीत’ और ‘कर्नाटक संगीत’ शब्दों का इस्तेमाल किया. ये शब्द उत्तर और दक्षिण भारत की अलग-अलग संगीत परंपराओं को दर्शाते हैं.

धीरे-धीरे दक्षिण भारत में कर्नाटक संगीत और उत्तर भारत में हिंदुस्तानी संगीत के रूप में दो अलग-अलग संगीत परंपराएं विकसित हुईं. ये दोनों परंपराएं तो वेदों के सिद्धांतों पर आधारित थीं. इसके बाद उत्तर भारत में मुस्लिम शासकों के आने के बाद भारतीय संगीत में अरबी और फारसी संगीत का प्रभाव भी देखने को मिला. इस मिलावट से भारतीय संगीत और भी समृद्ध हुआ. साथ ही अपने भाव व्यक्त करने के नए तरीके खोज पाया. 

भारतीय संगीत: आधुनिक दौर का सफर
भारतीय संगीत का विकास सिर्फ प्राचीन और मध्यकाल तक ही सीमित नहीं रहा. आधुनिक दौर में भी संगीत काफी समृद्ध हुआ. 20वीं सदी में हिंदुस्तानी संगीत को कई महान संगीतकारों का योगदान मिला. उस्ताद अलाउद्दीन खां, पंडित ओंकारनाथ ठाकुर, पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर और उस्ताद बड़े गुलाम अली खां जैसे महान संगीतकारों ने 20वीं सदी में हिंदुस्तानी संगीत को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया. इन दिग्गज कलाकारों ने अपनी कलात्मकता और नई चीजों को अपनाकर इस परंपरा को और भी समृद्ध बनाया.

इतना ही नहीं, आधुनिक दौर में संगीत को लिखने के तरीकों का भी विकास हुआ. इन तरीकों की मदद से संगीत की रचनाओं को सुरक्षित रखना और अगली पीढ़ी तक पहुंचाना आसान हो गया. इस तरह से हमारे अनमोल संगीत विरासत को सहेजने में भी काफी मदद मिली.

भारतीय संगीत के आधुनिक दौर की एक खास बात ये रही कि हिंदुस्तानी संगीत के रागों को व्यवस्थित किया गया. इसमें पंडित विष्णु नारायण भातखंडे का बहुत बड़ा योगदान रहा. उन्होंने ‘ठाट’ प्रणाली की शुरुआत की. उनकी इस कोशिश से संगीत की शिक्षा और प्रदर्शन के लिए एक मजबूत आधार तैयार हुआ.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *