अनियंत्रित भीड़ के खतरे… ?

अनियंत्रित भीड़ के खतरे… और त्रासदी के बाद फिर उठा जवाबदेही का सवाल
हाथरस हादसे ने एक बार फिर साबित किया है कि उत्साह और भीड़ का मेल अच्छा नहीं होता। जब अनुमान से इतने ज्यादा लोग हों, तो व्यवस्थाएं अपर्याप्त हो ही जाती हैं। आयोजकों को जवाबदेह बनाने के साथ लोगों को भीड़-भाड़ में सुरक्षित व्यवहार के बारे में शिक्षित किया जाना चाहिए, ताकि ऐसी दुर्घटनाएं फिर न हों।

कुछ वर्ष पहले मैं खुद श्रद्धालुओं की भीड़ में फंस गई थी। बृहस्पतिवार की उस गर्म दोपहर में हम सभी लोग शिरडी में साईं बाबा के दर्शन के लिए जा रहे थे। एक समय ऐसा आया, जब श्रद्धालुओं की भीड़ इतनी बढ़ गई कि मैं बेचैन हो उठी और मुझे लगा कि मैं वापस बाहर निकल जाऊं। लेकिन निकलने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा था। मैं लोगों की भीड़ में फंसी हुई थी और अगर जरा भी चूक होती, तो कुचले जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था।

मैं वहां से किसी भी तरह स्वस्थ और सुरक्षित वापस निकलने के लिए प्रार्थना कर रही थी। मैं असहाय महसूस कर रही थी। सौभाग्य से निर्विघ्न दर्शन संपन्न हो गए। लेकिन उस दोपहर की यादें अब भी मेरे जेहन में हैं। और हर बार जब भी कहीं भीड़ के कुचलने की घटना होती है, तो वह घटना फिर से सामने आ जाती है। ऐसी घटनाएं हमारे देश में आम हैं, लेकिन ऐसा बहुत कम मौकों पर होता है, खासकर धार्मिक समारोहों के दौरान।

ऐसी त्रासद घटनाएं केवल भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया के अन्य हिस्सों में भी होती हैं। वर्ष 2015 में पवित्र हज यात्रा के दौरान 2,000 से ज्यादा श्रद्धालु भीड़ में कुचलकर मर गए थे। अभी हाथरस में एक स्थानीय

धर्म गुरु के सत्संग से बाहर निकलते समय 120 से ज्यादा लोग भीड़ में कुचलकर मर गए। हालांकि भारत में भीड़ में कुचलने का इतिहास काफी पुराना है। स्वतंत्र भारत में ऐसी पहली घटना फरवरी, 1954 में कुंभ मेला के दौरान हुई थी, जिसमें आज भी लाखों श्रद्धालु आते हैं। अनुमानों के मुताबिक, उस त्रासद घटना में करीब 800 तीर्थयात्रियों ने अपनी जानें गंवाई थीं। उस समय द गार्जियन में छपी रिपोर्ट में सैकड़ों लोगों के लापता होने की बात कही गई थी।

भीड़ द्वारा कुचले जाने की दुखद कहानी दशकों से जारी है। दक्षिण भारत के सबरीमाला से लेकर नागपुर, मध्य प्रदेश और पटना तक, इन घटनाओं ने श्रद्धालुओं को झकझोर कर रख दिया है। यह बात साबित हो चुकी है कि उत्साह और भीड़ का मेल अच्छा नहीं होता, फिर भी हमारे जैसे धार्मिक देश में इनका मेल अपरिहार्य रूप से होता ही है। हालांकि कुंभ जैसे बड़े धार्मिक आयोजनों का प्रबंधन अच्छी तरह से किया गया है, खासकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कार्यकाल में पिछले कुंभ का। लेकिन, ‘छोटे’ धार्मिक आयोजनों एवं सत्संगों में यह नहीं दिखता। हालांकि, ऐसे ज्यादातर आयोजन तमाम अव्यवस्थाओं के बावजूद सुरक्षित ढंग से निपट जाते हैं, लेकिन हाथरस जैसी विनाशकारी घटनाएं हमें एक बार फिर अनियंत्रित भीड़ के पीछे छिपे खतरे के बारे में चेताती हैं। हालांकि किसी की भक्ति एवं आस्था को नकारा नहीं जा सकता और यह लोगों का अधिकार है। ऐसे सामूहिक आयोजन मानवीय पीड़ा के लिए सांत्वना और सामुदायिक भावना प्रदान करते हैं। ऐसे आयोजनों में जाने वाले लोग आम तौर पर समाज के गरीब तबके के होते हैं और जब लोग इन पर टिप्पणी करते हैं, तो उनमें अभिजात वर्गीय भावना ही दिखती है।

देश में अक्सर होने वाली इन घटनाओं के प्रबंधन के लिए तत्काल एक व्यापक नीति की आवश्यकता है। हालांकि ऐसे आयोजनों से पहले प्रशासन से मंजूरी लेने का प्रावधान है, लेकिन इन सभाओं में आने वाले लोगों की संख्या हमेशा गलत होती है। अक्सर इनमें उपस्थित होने वाले लोगों की संख्या अनुमान से ज्यादा होती है, जिससे सभी व्यवस्थाएं अपर्याप्त हो जाती हैं। आखिर जब अप्रत्याशित ढंग से भीड़ इकट्ठी होकर अनियंत्रित ढंग से व्यवहार करने लगे, तो कितनी भी व्यवस्था कम ही पड़ेगी। ऐसे में यह जरूरी है कि इन सत्संगों के आयोजक को भीड़ के लिए जिम्मेदार ठहराया जाए। अधिकारियों को भीड़ को सीमित करना चाहिए, हालांकि इससे भावनात्मक समस्या पैदा हो सकती है और स्थिति नियंत्रण से बाहर जा सकती है। लेकिन सुरक्षा के हित में लोगों को वापस भेजा जाना चाहिए और जरूरत होने पर आयोजकों को भी दंडित करना चाहिए। इससे यह सुनिश्चित होगा कि जब आयोजक भक्तों को बुलाएंगे, तो उनकी ज्यादा बड़ी जवाबदेही होगी। इसके अलावा, पुलिस की मौजूदगी के बावजूद यह महत्वपूर्ण है कि धर्म गुरु, जो निश्चित रूप से संपन्न होते हैं, सुरक्षा बढ़ाने, किसी अप्रिय घटना की स्थिति में आपात एवं प्रारंभिक चिकित्सा सुविधाओं की व्यवस्था करने के लिए निजी भीड़ प्रबंधन पेशेवरों की व्यवस्था करें। इन आयोजनों में पुलिस बल का ध्यान मुख्यतः आतंकवादी घटनाओं से सुरक्षा पर होता है।

शांतिपूर्ण भक्तों की भीड़ का प्रबंधन उनकी दूसरी प्राथमिकता होती है। भक्तों का सुचारु आवागमन सुनिश्चित करने के लिए उन्हें पेशेवर भीड़ प्रबंधकों के सहयोग की आवश्यकता होती है। इन मुद्दों का समाधान केवल निजी और सार्वजनिक सहयोग से ही हो सकता है। ऐसी घटनाएं घट जाने के बाद फरार धर्म गुरु का पीछा करना देर से उठाया गया नाकाफी कदम है।  

होना तो यह चाहिए कि तीर्थयात्रियों और भक्तों को भीड़-भाड़ वाली स्थिति में उचित और सुरक्षित व्यवहार के बारे में शिक्षित किया जाए। सामूहिक घबराहट अनिवार्य रूप से ऐसी त्रासद घटनाओं का कारण है। हाथरस हादसे में भी आयोजन बगैर किसी हादसे के संपन्न हो ही गया था, लेकिन धर्म गुरु के पास जाने और उनके पैर छूने की होड़ के कारण भगदड़ मच गई। ऐसी अपार भक्ति उन लोगों को राहत प्रदान करती है, जो असहाय महसूस करते हैं, जो मानते हैं कि एक स्वयंभू ‘दिव्य’ सत्ता की एक झलक पाने या स्पर्श करने भर से उनका जीवन संवर जाएगा। यह एक ऐसी भावना है, जिसका प्रबंधन कोई भी सुरक्षा व्यवस्था नहीं कर सकती।

ऐसी परिस्थितियों में त्रासद घटनाएं होना अपरिहार्य है और इसका समाधान व्यावहारिक कदमों से निकल सकता है, जैसे कि व्यवस्थाएं बनाना और आयोजकों व धर्म गुरुओं को जवाबदेह बनाना। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण समाधान तो आम जनता में ही निहित है, जो निहायत भोलेपन और अच्छे इरादों के साथ इन आयोजनों में शामिल होती है।

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