आबादी को बोझ न मानें ?

आबादी को बोझ न मानें: संतुलन समय की जरूरत, प्राकृतिक रूप से संतानोत्पत्ति भविष्य के लिए आवश्यक
आबादी का गुण-अवगुण के आधार पर विश्लेषण होना जरूरी है। जनसंख्या को बोझ मानलेना निदान नहीं। एक तरफ संतुलन समय की जरूरत है, लेकिन दूसरी तरफ प्राकृतिक रूप से संतानोत्पत्ति को कायम रखना भविष्य की आवश्यकता है।

Population not burden Balance is need of hour natural procreation is essential for future

पि छले कुछ वर्षों में हर ओर आईवीएफ या आम भाषा में टेस्ट ट्यूब बेबी की छोटे-बड़े शहरों में हो रही वृद्धि, घटती प्रजनन दर, शहरी युवा विशेष तौर पर व्यावसायिक शिक्षा में दक्ष पीढ़ी की संतानोत्पत्ति के प्रति निरंतर बढ़ती अरुचि भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है। मोटे अनुमान के अनुसार, दस वर्ष के भीतर भारत में आईवीएफ उद्योग लगभग पांच गुना वृद्धि के साथ 370 करोड़ डॉलर के बराबर हो जाएगा, जो 2020 में 80 करोड़ डॉलर से भी कम था। इन तथ्यों से यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि प्रजनन क्षमता में कमी आ रही है, बल्कि इसकी पृष्ठभूमि में संतानोत्पत्ति के प्रति बढ़ती अरुचि है। कॅरिअर के कारण बच्चे पैदा करना अभिजात्य वर्ग की प्राथमिकता में लगभग अंतिम छोर पर पहुंच गया है। इस प्रकार एक नए समाज की संरचना हो रही है।

इस वर्ष संयुक्त राष्ट्र ने विश्व जनसंख्या दिवस के अवसर पर उपेक्षित एवं वंचित वर्ग संबंधी गणना तथा आंकड़ों के वैज्ञानिक संग्रहण को अपना लक्ष्य बनाया है। यह चौंकाने वाला है, क्योंकि विगत 30 वर्षों से 11 जुलाई (विश्व जनसंख्या दिवस) को जनसंख्या संबंधी बड़े-बड़े आयोजनों में नए विषयों के प्रति संकल्प लिए जाते रहे हैं। इनमें वंचित वर्ग उपेक्षित ही रह जाता था। लेकिन अब संयुक्त राष्ट्र को उसका ख्याल आया है।

इसके पीछे वर्तमान संदर्भ और भविष्य की जनसंख्या संबंधी कुछ अनुमान हैं। उपलब्ध अनुमानों के अनुसार, अगले पच्चीस वर्षों में दुनिया के मात्र एक तिहाई देशों (204 में से 49 देशों) में ही पर्याप्त प्रजनन दर रहेगी, जो इस शताब्दी के अंत तक मात्र तीन प्रतिशत यानी 204 में से छह राष्ट्रों तक सिमट कर रह जाएगी। अनुमान के अनुसार, आबादी में वृद्धि मुख्यतः अफ्रीकी देशों में होगी। माना जाता है कि शताब्दी के अंत तक आधी आबादी अफ्रीकी राष्ट्रों में पैदा होगी।

इसके साथ ही प्रजनन की प्रवृत्ति मूलतः निम्न मध्यवर्ग तक सीमित रह जाएगी, जिससे भविष्य में व्यापक वर्गभेद होने की आशंका है, क्योंकि आबादी में निम्न आय वर्ग की संतानों की बहुतायत होने तथा उच्च वर्ग में संतानोत्पत्ति से बेरुखी होने के कारण उपलब्ध संसाधनों पर धीरे-धीरे नियंत्रण बदल जाएगा, जो अभिजात्य वर्ग को मंजूर नहीं हो सकता है। विडंबना यह होगी कि सामर्थ्यवान के पास संतान नहीं और संतान वाले के पास संसाधन नहीं। आशंका यह भी है कि प्रजनन के अभाव में अनेकानेक विकसित राष्ट्रों में अप्रवासी और शरणार्थी भारी संख्या में प्रवेश करेंगे।

जनसंख्या असंतुलन का एक विशिष्ट उदाहरण है दक्षिण कोरिया और नाइजीरिया की वर्तमान स्थिति। पिछले कुछ वर्षों में जहां दक्षिणी कोरिया में ऋणात्मक प्रजनन दर रही है, वहीं नाइजीरिया में प्रजनन दर लगभग प्रति महिला सात बच्चों की पाई गई है। ऐसे में संसाधनों का पुनः बंटवारा होना लाजिमी है। कोरिया की महिलाएं अपने व्यावसायिक जीवन की उन्नति और बच्चों के लालन-पालन की बढ़ती लागत के कारण संतान देर से या नहीं पैदा करती हैं। इस ऋणात्मक वृद्धि के कारण सृष्टि पर कई विषम प्रभाव भी पड़ेंगे।

सामान्य तौर पर तो आबादी की कमी से सहज एवं सुगम जीवन की प्रत्याशा रहती है, किंतु इस कमी के कारण किंचित महत्वपूर्ण व्यवसाय यथा कृषि अत्यधिक प्रभावित होंगे, जिससे खाद्य सुरक्षा, पर्यावरण आदि पर असर पड़ेगा। कम आबादी से लोगों का व्यावसायिक रुझान श्रम विहीन, तकनीकी कौशल, शोध आदि की ओर होगा। आशंका है कि घटती आबादी भ-ूराजनीतिक सुरक्षा संबंधी चुनौतियों को भी जन्म देंगी। इसी कारण 1994 में जनसंख्या वृद्धि को 2.1 बच्चे प्रति महिला तक सीमित करने का लक्ष्य तय किया गया था, ताकि संतुलन कायम हो सके। वर्तमान परिदृश्य भविष्य में असंतुलन की आशंका को दर्शाता है।

भारत में भी जनसंख्या स्थिरीकरण एक गंभीर चुनौती है। औसत आयु में वृद्धि, बेहतर चिकित्सा सुविधाओं, संसाधनों की उपलब्धता के चलते अगले कुछ वर्षों में संख्यात्मक वृद्धि तो दिखेगी, किंतु वास्तविक रूप में प्रजनन दर निरंतर घटती जा रही है। आशंका है कि शताब्दी के अंत तक प्रजनन दर मात्र एक बच्चा प्रति महिला तक सीमित हो जाएगी। अतः आवश्यक है कि आबादी का गुणावगुण के आधार पर विश्लेषण हो न कि महज जनसंख्या को बोझ मानकर। संतुलन समय की आवश्यकता है, तो प्राकृतिक रूप से संतानोत्पत्ति को कायम रखना भविष्य की आवश्यकता।

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