न जनगणना का आधार, न संवैधानिक मान्यता, बिहार में बढ़े आरक्षण पर SC का अहम फैसला

 न जनगणना का आधार, न संवैधानिक मान्यता, बिहार में बढ़े आरक्षण पर SC का अहम फैसला

सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि बिहार सरकार को लेकर जो पटना हाइकोर्ट ने फैसला दिया है वो बिल्कुल ही ठीक है. इसके ऊपर अभी हाल में स्टे यानी की रोक नहीं लगाया जा सकता है. उस रिपोर्ट के जरिये ये कहा गया कि बिहार में 63 प्रतिशत ओबीसी जाति से जुड़े हुए लोग है. उसी को आधार बनाकर सरकार की ओर से आरक्षण की कोटा को बढ़ा दिया गया.

ये आरक्षण को बढ़ाने का कार्य संवैधानिक है या नहीं इसके लिए अभी देखना होगा. हाल में ही पटना हाईकोर्ट ने इसे पूरी तरह से गलत बताया है. उसी आदेश को लेकर हाइकोर्ट के विरोध में बिहार सरकार सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई है. याचिका के मुताबिक ये वैधानिक प्रक्रिया है. इसका मुख्य मानक सरकार ने जातिगत जनगणना को आधार बताया है.

50 प्रतिशत का होना चाहिए गैप 

1992 में इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ मामले में निर्णय देते हुए कहा था कि जो आरक्षण का कैप है, उसको 50 प्रतिशत तक रखा जाना चाहिए. उस समय कहा गया था कि सरकार 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण ओबीसी जाति समुदाय को नहीं दिया जा सकता. संविधान के अनुच्छेद 15 की उपधारा 4 के अंतर्गत सरकार को ये प्रावधान है कि कल्याण के लिए वो योजनाएं ला सकते हैं.

संविधान की 15 की उपधारा 4 के अंतर्गत ही आरक्षण का भी प्रावधान किया गया है. इसके अंतर्गत ही ओबीसी या एससी और एसटी के लिए भी आरक्षण का प्रावधान है. बेंच की ओर से ये जजमेंट दिया गया कि किसी भी हाल में 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण का प्रावधान नहीं दिया जा सकता.

बिहार सरकार ने जातीय जनगणना को आधार मानकर उसको बढ़ा दिया था. कोर्ट की ओर से लगाए गए कैप को तोड़कर बिहार से सरकार ने आरक्षण के कोटा को बढ़ा दिया. सुप्रीम कोर्ट की ओर दी गई जजमेंंट को एक तरह से लॉ माना जाता है. इसलिए ये कदम कहीं ना कहीं लॉ के विरुद्ध हो गया. सुप्रीम कोर्ट में मामला आने के बाद देखा और अगर ये वैधानिक होता तो पटना हाइकोर्ट के आदेश पर स्टे लग जाता.

सुप्रीम कोर्ट की ओर से ये कहा गया है कि इस मामले की सुनवाई जरूर की जाएगी लेकिन अभी फिलहाल में इस मामले पर स्टे नहीं दिया जा सकता. सुप्रीम कोर्ट ने ये बता दिया है कि बिहार सरकार ने कानून का उल्लंघन किया है और फिलहाल में उस पर स्टे देने की कोई जरूरत नहीं है. इसलिए ये बिहार सरकार के लिए एक तरह का झटका है.

बिहार सरकार के लिए बड़ा झटका

इस प्रकार का प्रोविजन राजनीतिक दृष्टि से बनाया जाता है. जातीय जनगणना कराने का क्या आधार रहा है, इसको किस तरह से किया गया इसको भी ध्यान देने की जरूरत है. ऐसे ही कोई जनगणना की प्रक्रिया नहीं करा सकता, इसके लिए एक प्रक्रिया है. उसी के आधार पर काम कर के जनगणना का कार्य किया जाता है और तब पता किया जाता है कि किसकी संख्या कितनी है.

बिहार सरकार ने खुद से डिसिजन लेकर जनगणना की प्रक्रिया करा ली और डाटा सामने रख दिया कि इस जाति से जुड़े लोगों की संख्या इतनी है. उसके आधार पर सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में उनके लिए आरक्षण का प्रावधान कर दिया. अगर सरकार संवैधानिक प्रक्रियाओं से हटकर काम करेगी तो देश की उच्चतम न्यायालय सुप्रीम कोर्ट अपने हिसाब से इन मामलों को जरूर देखेगी.

अगर सरकार की ओर से काम किया जाता तो कोर्ट की ओर से  स्टे जरूर लगा दिया जाता. अगर सुप्रीम कोर्ट की ओर स्टे नहीं लगाया गया है तो इसका मतलब है कि इस मामले को सुप्रीम कोर्ट काफी गंभीरता से देख रहा है. बिहार सरकार ने जो प्रावधान किया है उसको संवैधानिक प्रक्रियाओं में भी लाने की बात कही जा रही है.

9 शेड्यूल ऑफ कंश्चियूशन के अंतर्गत केंद्र सरकार और राज्य सरकार के कई कानून को ज्युडीशियल रिव्यू से बाहर रखा जाता है. इस प्रकार की चर्चाएं चल रही है. ये फैसला एक तरह से राज्य सरकार को झटका देने का काम किया है. सरकार ने इसको लागू किया था उसको पटना हाईकोर्ट ने पहले ही टरमिनेट कर दिया है. उसी आर्डर के लिए सुप्रीम कोर्ट से बिहार सरकार आई थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 50 प्रतिशत वाले कैप को बरकरार रखने की बात कही है.

कैटेगरी में बंटा है भारत का समाज 

आम जनता बहुत से ही कैटेगरी में बंटे हुए है. पिछड़ा और अति पिछड़ा की दृष्टि से ये फैसला काफी बूरा है. जो आरक्षण की परिधि में नहीं आते हैं उनके लिए ये फैसला काफी सही है. भारत की आबादी कई भागों में बंटा हुआ है. इससे जो लाभांवित होंगे उनका रिएक्शन अलग होगा और जो इससे परे होंगे उनका अलग रिएक्शन होगा. देश में संविधान का तीन अंग है और उनके ही आधार पर पूरा देश चलता है. इसमें विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका है.

विधायिका और कार्यपालिका की ओर से जो कार्य किया जाता है उसको बैलेंस करने या रिव्यू करने का काम कोर्ट की ओर से की जाती है. अगर कोई कानून बनती है तो उस पर कोर्ट की मुहर लगना जरूरी होता है. विधायिका के बनाए गए कानून को न्यायपालिका ये देखता है कि वो संवैधानिक और लोगों के हित के लिए है कि नहीं? किसान आंदोलन और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए जो दस प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया था उसके डिसिजन को भी सुप्रीम कोर्ट ने पहले देखा फिर उसके बाद फैसला दिया.

किया जा सकता है विचार 

संवैधानिकता को लागू करना ही कोर्ट का काम है. कोर्ट का ये भी काम है कि वो ये देखे कि सरकारें संवैधानिकता के अंतर्गत काम कर रही है या नहीं. सिर्फ विधायिका और सरकार की ओर से कानून बना देना ही लॉ नहीं होता है. बल्कि कोर्ट का वेरिफिकेशन भी होना जरूरी होता है. अगर कोर्ट की जांच में ये संवैधानिक और ठीक होता है तो उसको कानून के रूप में लागू किया जा सकता है. कई राज्यों के आवेदन सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है. अगर कई राज्यों से ये मामला आएगा तो फिर से ऐसे मामले संवैधानिक पीठ के यहां जाएगा.

वहां पर 50 प्रतिशत के कैप को हटाने और इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ मामले में भी विचार किया जा सकता है. तमिलनाडू में 69 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है. सुप्रीम कोर्ट ने 50 प्रतिशत के आरक्षण कैप को ही सीमित किया था. राजनीति में आरक्षण से बढ़िया कोई मुद्दा चुनावी के लिए होता है. इसके लिए समय समय पर ऐसा किया जाता रहा है. दूसरी ओर राजनीति से परे हटकर कानूनी दृष्टि से सुप्रीम कोर्ट फैसला करेगी. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि … न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]   

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