नदी और बाढ़: जिसे हम समझना ही नहीं चाहते !
नदी और बाढ़: जाने बिना सहजीवन मुश्किल, पर हम हैं कि समझना ही नहीं चाहते
यही बात नदी और बाढ़ को लेकर वैज्ञानिक समझ से भी सामने आती है. एक ताजा अध्ययन के मुताबिक भले बाढ़ का मैदान धरती के कुल क्षेत्र का मात्र 2% ही है पर इसका महत्त्व अन्य किसी भी प्राकृतिक संसाधन से बहुत ज्यादा है, मानव सन्दर्भ में कुल पारिस्थितिकी लाभ का लगभग एक-चौथाई का योगदान नदी और बाढ़ के मैदान से आता है.
नदी और बाढ़ की परंपरागत समझ
नदी और बाढ़ के बारे में परम्परागत समझ हाल के आधुनिक विकास तक अनवरत रूप से जारी रही और नदियों के आस-पास वैश्विक स्तर पर मानव सभ्यता नदी की प्रकृति और वातावरण के अनुसार समृद्ध होती रही. भारत में तो नदियां ना सिर्फ महत्वपूर्ण संसाधन रही बल्कि यहां तक मां का दर्जा पाई, पूजी जाती रही और लोक संस्कृति में रच बस गयी. भारत में नदी और वर्षा आधारित सिंचाई के आलोक में कृषि भूमि क्रमशः ‘नदी मातृक’’ और ‘देव मातृक’’ के रूप में बांटा गया है. पंजाब का नाम ही ‘सप्त-सिंधु’ रखा गया. गंगा-यमुना के बीच के प्रदेशों को अंतर्वेदी (दो-आब) नाम से पुकारा गया. भारतवर्ष को ‘हिन्दुस्तान’ और ‘दक्खन’ जैसे दो हिस्से करने वाले विन्ध्याचल या सतपुड़ा का नाम लेने के बदले लोग संकल्प बोलते समय ‘गोदावर्यः दक्षिणे तीरे’ या ‘रेवायाः उत्तर तीरे’ बोलने का चलन रहा है.राजा को राजपद देते समय प्रजा जब चार समुद्रों और सात नदियों का जल लाकर उससे राजा का अभिषेक करती, तभी मानती थी कि अब राजा राज्य करने का अधिकारी हो गया. ऋग्वेद के दसवें मण्डल का ‘नदी सूक्त’ हमारी नदियों की महिमा का गायन ही है. भगवान की नित्य की पूजा करते समय भी हम सभी भारतवासी सभी नदियों को अपने छोटे से कलश में आकर बैठने की प्रार्थना अवश्य करता है.
गंगे! च यमुने! चैव गोदावरी! सरस्वति! नर्मदे! सिंधु! कावेरि! जलेSस्मिन् सन्निधिं कुरु..
नदियाँ हमारे लोक व्यवहार में रची बसी हैं. इतनी गन्दगी, प्रदूषण के बावजूद नदियों से जुड़ाव की स्मृति आज भी किसी भी नदी किनारे पर देखा जा सकता है. नदी से जुड़ाव का आलम यह है कि बिहार की शोक मानी जाने वाली नदी कोसी नदी को स्थानीय लोक एक चंचल कुंवारी लड़की मानते हैं और जब नदी रौद्र रूप में होती है तो स्थानीय लोग नदी की शादी करा देने का प्रयोजन करते हैं ताकि शादी के डर से नदी शांत हो जाये.
लोक व्यवहार और पर्यावरण
भले आधुनिक समझ में यह बात अवैज्ञानिक लगे पर इसमें छिपे मानव के नदियों के साथ पारिवारिक रिश्ते के एहसास से इंकार नहीं कर सकते. पर अब पिछले कुछ दशक में आधुनिकता के नाम पर नदी पूजनीय न होकर सिर्फ एक संसाधन बन कर रह गयी है, जिसके अस्तित्व का एक मात्र उद्देश्य है हमारे शहरों, खेतों की प्यास बुझाना, हमारी बिजली कि जरुरत को पूरा करना ही रह गया है, इसके बदले भले उसकी तली से पानी की आखिरी बूंद ही क्यों ना चूस लेना पड़े, नदी की पेटी से सारा रेत ही क्यों ना निकाल लेना पड़े. यमुनोत्री से निकली निर्मल यमुना जब तक दिल्ली पहुँचती है, उसमें से पानी की आखिरी बूंद तक हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दिल्ली के लोगों और खेतों के लिए निकल ली गयी होती है. दिल्ली की यमुना में जो भी पानी बह रहा होता है वो और कुछ नहीं दिल्ली वालो के घरों और फैक्ट्रियों से निकला गन्दा पानी होता है.
बरसात के इतर दिनों में दोनों पाटो के बीच फैली सूखी रेत, प्लास्टिक और इस्तेमाल किये कचरों का अंबार, न्यूनतम पानी का बहाव, जल संसाधन विकास के नाम पर नदी के साथ मूर्खता की हद तक का हस्तक्षेप, औद्योगिक कचरे और घरेलू अपशिष्ट का नदी में सीधे प्रवाह, आदि भारत की लगभग हर नदियों की कहानी है. इसमें हमारी पवित्रतम माता का दर्जा पाई गंगा-यमुना भी शामिल हैं. नदियां प्रदूषण के इतर भौतिक स्तर के अवैज्ञानिक और अभियांत्रिक उठापटक और भू-जल और नदी के बीच ख़त्म होते संतुलन का भी शिकार है और इसमें बाढ़ नियंत्रण या प्रबंधन को आज़ादी के बाद के प्रकल्पों को शामिल कर ले तो स्थिति और भी भयावह हो जाती है.
भूजल का दोहन, सर्वनाश की तैयारी
भू-जल के व्यापक दोहन से गंगा-सिन्धु-ब्रह्मपुत्र बड़ी घाटी की अधिकांश सदानीरा नदियां सर्दियों में ही लगभग सूखने लगी हैं और उसी के साथ नदी का समूचा पारिस्थितिकी तंत्र अगले बरसात तक के लिए मर जाता है. यहाँ तक की गंगा सरीखी नदी में किसी-किसी स्थान पर पानी इतना कम हो जाता है कि लोग आसानी से चल कर भी नदी पार कर लेते हैं. ऐसी स्थिति में गंगा के साथ सहायक नदियों में बड़ी मछलियों और डॉल्फिन जो कि भारत का राष्ट्रीय जलीय जीव है और नदी पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य का सूचक भी है का अस्तित्व खतरे में है. हालांकि, गर्मी के इतर डॉल्फिन की संख्या में इजाफा देखा गया है पर गर्मी के दिनों में प्रमुख नदियों में पानी का घटता जल स्तर के खतरे की घंटी है. बड़े-बड़े बाँध से नदियों को बाँधने के दुष्परिणाम के कारण वैश्विक स्तर पर जागरूकता बढ़ी है पर हम अभी भी उर्जा स्रोत में बदलाव के लिए पहाड़ी राज्यों कश्मीर से उत्तर पूर्व तक नदी बांध के अनेको प्रकल्पों का मोह छोड़ नहीं पाए है, जबकि पिछले सालों में धौली गंगा से लेकर तीस्ता नदी में आयी बाढ़ से निर्माणाधीन पन बिजनी परियोजना के तहस नहस हो जाने के वावजूद हमारी नदियों को बांध कर बिजनी बनाने के संकल्प में कोई कमी नहीं आयी है.
अंग्रेजी शासन, बाढ़ और पैसा
बाढ़ के बारे में खासकर गंगा और ब्रह्मपुत्र नदी के इलाकों में जागरूकता अंग्रेजों के ज़माने से ही रही है. यह जानकर आश्चर्य होगा कि बाढ़ नियंत्रण के बहाने कर वसूलने के इरादे से दामोदर नदी पर बाँध बना कर और उसकी विफलता से अंग्रेजी शासन ने आज़ादी तक नदी पर तटबंध बनाने से खुद को रोके रखा. यहां तक कि उन्नीसवीं शताब्दी में बंगाल प्रेसिडेंसी के सिंचाई विभाग से जुड़े अंग्रेजी इंजीनियर एफ सी हर्स्ट की स्थानीय नदियों और बाढ़ को लेकर की गयी टिप्पणियां आज भी प्रासंगिक है पर हम इतनी जमीनी समझ से भी कुछ सीख नहीं पाए. पानी और बाढ़ पर दशको से जमीनी स्तर पर कम करने वाले पेशे से इंजीनियर दिनेश मिश्रे एफ सी हर्स्ट के हवाले से लिखते हैं, “नदियों पर तटबंध बना कर उन्हें काबू में लाना एक तरह से नदियों को बॉक्सिंग करने के लिए ललकारना है, जिसमें जीत हमेशा नदियों की ही होती है. नदी अपने साथ किये गए किसी भी दुर्व्यवहार का बदला लिए बिना नहीं छोड़ती. अपने साथ हुए किसी भी अनाचार को पचा पाना उसकी फितरत में नहीं है.”
आज़ादी से दशकों पहले 1935 में हुए पटना बाढ़ सम्मेलन में मुख्य रूप से इस बात की चिंता जताई गयी कि पिछले कुछ दशकों में हुए सड़क और रेल निर्माण नदी के बाढ़ के पानी के मुक्त बहाव में बाधक बन रहे हैं और बाढ़ की तीव्रता और प्रसार की बढ़ा रहे हैं. स्पष्ट है कि उस समय तक बाढ़ को नदी की प्रकृति का हिस्सा माना गया ना कि विभीषिका.
बाढ़ नियंत्रण या नदी के साथ जीना
आज़ादी के बाद नदी और बाढ़ की पिछली सारी समझ को दरकिनार करते हुए नदियों को तटबंध के बीच समेट कर उसके प्रसार पर नकेल कसते हुए बाढ़ पर नियंत्रण का व्यापक स्तर पर प्रकल्प शुरू हुआ. आज़ादी के समय बिहार में जहाँ मात्र 160 किलोमीटर लम्बा छिटपुट तटबंध बना था जिसका प्रसार 2020 आते-आते 3800 किलोमीटर की दीवार खासकर कोसी, बागमती, कमला आदि नदियों के के इर्दगिर्द बांध चुका था. आशा थी कि बाढ़ से राहत मिलेगी पर हुआ इसके उलट,2020 तक बाढ़ प्रभावित इलाको का दायरा 1952 के 25 25 लाख हेक्टेयर के मुकाबले बढ़कर 69 25 लाख हेक्टेयर तक हो चुका था. और इसे समझना कोई रॉकेट साइंस भी नहीं है कि तटबंध में बांधकर नदी के समूचे तंत्र के साथ व्यापक स्तर पर खिलवाड़ पानी के बहाव को तेज करेगा, बांध टूटेंगे, बाढ़ का दायरा बढेगा, जल जमाव होगा और इसके नतीजे में तटबंध वाले सारे इलाके आज पंजाब हरियाणा आदि प्रदेशों के लिए श्रमिकों के स्रोत प्रदेश बन के रह गए हैं.
नदी और बाढ़ समूचे उत्तरी बिहार की भौगोलिक, सामाजिक और आर्थिक सच्चाई है और वहां का समाज उसी अनुरूप ढला, पर क्षेत्र की आधी अधूरी समझ और हमारी अभियांत्रिक और तकनीकी ठसक समूचे तैरने वाले समाज को डुबोने लगी है. उत्तरी बिहार हिमालय की तलहटी में बसा है जहां की समतल जमीन पर नेपाल हिमालय से तेज ढलान के साथ सैकड़ो नदियाँ प्रवेश करती हैं, जो अपना सारा पानी फैलाते हुए धीरे-धीरे गंगा में मिल जाती है. इस दौरान बड़ी मात्रा में नदियां हिमालय की उर्वर गाद समूचे क्षेत्र में फैला देती है. सालाना दो हफ्तों की बाढ़ साल भर के लिए भरपूर पानी, मछली और मिट्टी में इतनी उर्वरा भर जाती है कि समाज फलता -फूलता रहे.
सालाना बाढ़ और तैयार समाज
सालाना आने वाली बाढ़ के लिए समाज पहले से ही तैयारी करके निश्चिंत रहता था. इन इलाको में बाढ़ को लेकर पहले से ही चाक चौबंद तैयारी की एक समृद्ध परम्परा रही है, जिसका एक सन्दर्भ महात्मा बुद्ध के समय भी मिलता है. नदी और बाढ़ पर आधारभूत और जरुरी समझ रखने वाले अनुपन मिश्र अपने एक लेख में आज से ढाई हज़ार साल पहले एक ग्वाला और महात्मा बुद्ध के बीच हुए संवाद को रेखांकित करते हैं,
“काली घटाएं छाई हुई हैं. ग्वाला बुद्ध से कह रहा है कि उसने अपना छप्पर कस लिया है, गाय को मज़बूती से खूंटे से बांध दिया है, फसल काट ली है. अब बाढ़ का कोई डर नहीं बचा आराम से, चाहे जितना पानी बरसे नदी देवी दर्शन देकर चली जाएंगी.”
इसके बाद बुद्ध ग्वाले से कह रहे हैं कि “मैंने तृष्णा की नावों को खोल दिया है, अब मुझे बाढ़ का कोई डर नहीं. नदी किनारे युगपुरुष ग्वाले की झोपड़ी में रात बिताएंगे.”
उस नदी किनारे रात में कभी भी बाढ़ आ सकती थी, लेकिन दोनों निश्चिंत थे.
क्या आज मानसून के समय निश्चिन्तता से ऐसा संवाद बाढ़ की तैयारियों के बीच संभव है? आज अभी बिहार बाढ़ की चपेट में है, हाहाकार मचा हुआ है.
लगभग सत्तर साल के बाढ़ नियंत्रण, बाढ़ प्रबंधन, बाढ़ राहत और पुनर्वास सरीके सालाना प्रयोजनों पर अरबों रुपये बहाने के बाद भी ना तो बाढ़ की समस्या में कोई कमी आयी और ना ही बाढ़ पीड़ितो की पीड़ा ही कम हुई. असल बात है कि हम न नदी को समझना चाहते हैं और ना ही बाढ़ को, नदी और बाढ़ के फायदे को तो भूल ही जायें. बिहार सहित देश के अन्य भाग में आने वाली बाढ़ को एक सालाना आपदा के रूप में सत्ता और समाज दोनों ने स्वीकार कर लिया है और हम सब इसके आदी हो चुके हैं.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि ….. न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.