फास्ट ट्रैक कोर्ट कितनी जल्दी न्याय करते हैं?
फास्ट ट्रैक कोर्ट कितनी जल्दी न्याय करते हैं? ममता बनर्जी ने ट्रेनी डॉक्टर केस यहां भेजने का निर्देश दिया
कोलकाता के अस्पताल में ट्रेनी डॉक्टर के रेप और मर्डर मामले में न्याय की मांग के लिए राज्य में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि वो मामले के आरोपियों के लिए मौत की सजा की मांग करेगी. उन्होंने अधिकारियों से यह सुनिश्चित करने को कहा है कि मामले की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट में हो. आइए जानते हैं कि आखिर फास्ट ट्रैक कोर्ट कितने फास्ट होते हैं.
कोलकाता के सरकारी आरजी कर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल के सेमिनार हॉल में नौ अगस्त को पोस्ट ग्रेजुएट ट्रेनी महिला डॉक्टर का शव मिला था. शुरुआती जांच में पता चला है कि रेप के बाद उसकी हत्या की गई है. इस मामले को लेकर डॉक्टरों में गुस्सा है. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा है कि इस मामले को फास्ट ट्रैक कोर्ट में भेजा जाएगा और दोषी के लिए फांसी की सजा की मांग की जाएगी. आइए जानते हैं कि आखिर कितने फास्ट होते हैं फास्ट ट्रैक कोर्ट.
फास्ट ट्रैक कोर्ट में इतने न्यायिक अधिकारी और कर्मचारी
हर फास्ट ट्रैक कोर्ट में एक न्यायिक अधिकारी और सात सदस्य कर्मचारियों का प्रावधान किया गया है. देश के कुल 31 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से 30 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को इस योजना में शामिल किया जा चुका है. पुदुचेरी ने इस योजना में शामिल होने के लिए विशेष अनुरोध किया था और मई 2023 में एक विशिष्ट पॉक्सो कोर्टच का संचालन शुरू किया है.
शुरू में यह योजना 767.25 करोड़ रुपये के खर्च से दो सालों 2019-20 और 2020-21 में एक-एक वर्ष के लिए लागू की गई थी. इसमें से 474 करोड़ रुपये केंद्र की ओर से निर्भया फंड से दी जानी थी . साल 2019-20 में 140 करोड़ रुपये और 2020-21 में 160 करोड़ रुपये केंद्र की ओर से राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को जारी किए गए थे. इसके बाद केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 1572.86 करोड़ रुपये के बजट के साथ दो साल यानी मार्च 2023 तक एफटीएससी की योजना को आगे भी जारी रखने को मंजूरी दी थी. इसमें से 971.70 करोड़ रुपये केंद्र की ओर से दिए जाने थे. साल 2021-22 में 134.56 करोड़ रुपये और 2022-23 में 200 करोड़ रुपये राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों को जारी किए गए थे.
अब साल 2026 तक के लिए बढ़ाई गई योजना
28 नवंबर 2023 को केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में इस योजना को 31 मार्च 2026 तक के लिए बढ़ा दिया गया और केंद्र सरकार की ओर से इसके लिए कुल 1952.23 करोड़ रुपये के बजट प्रावधान किया गया है. इसमें से 1207.24 करोड़ रुपये केंद्र की ओर से निर्भया फंड से दिया जाना है. वित्तीय वर्ष 2023-24 में केंद्र के हिस्से के रूप में राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को 200.00 करोड़ रुपये जारी किए जा चुके हैं. 2024-25 के लिए 200 करोड़ रुपये के आवंटन का प्रावधान किया गया है.
पोर्टल के जरिए निगरानी करता है न्याय विभाग
सरकारी आंकड़ों के अनुसार मई 2024 तक 30 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 410 विशिष्ट पॉक्सो कोर्ट के साथ ही 755 एफटीएससी (फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट्स) काम कर रहे हैं. इनमें 2,53,000 से अधिक मामलों को निपटाया गया है. इस योजना के मजबूत कार्यान्वयन के लिए न्याय विभाग की ओर से इन न्यायालयों के आंकड़ों की मासिक आधार पर निगरानी की जाती है. इसके लिए एक ऑनलाइन निगरानी पोर्टल भी तैयार किया गया है. साथ ही हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल और राज्यों के पदाधिकारियों के साथ नियमित रूप से समीक्षा बैठक भी की जाती है.
ऐसे काम करते हैं फास्ट ट्रैक कोर्ट
किसी भी फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने का फैसला संबंधित राज्य की सरकार अपने यहां के हाईकोर्ट से चर्चा के बाद करती है. संबंधित हाईकोर्ट किसी भी फास्ट ट्रैक कोर्ट के लिए समय सीमा तय कर सकता है कि सुनवाई कब तक पूरी की जानी है. इसके आधार पर फास्ट ट्रैक कोर्ट यह तय करता है कि किसी मामले को रोज सुना जाएगा या कुछ दिनों के अंतराल पर सुनवाई होगी. सभी पक्षों को सुनने के बाद फास्ट ट्रैक कोर्ट तय समय में अपना फैसला सुनाता है.
हफ्ते भर में सुनाई जा चुकी है सजा
फास्ट ट्रैक कोर्ट में सुनवाई और फैसले की रफ्तार काफी तेज होती है. इसके कारण सेशन कोर्ट में मुकदमों का बोझ भी कम हुआ है. कई मामलों में तो फास्ट ट्रैक कोर्ट ने एक सप्ताह के भीतर भी दोषियों को सजा सुनाई है. जल्द सुनवाई का एक उदारहण दिल्ली निर्भया केस भी है. 16 दिसंबर 2012 को घटना के बाद दिल्ली हाईकोर्ट ने मामले की सुनवाई के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट के गठन का आदेश दिया था. इस मामले में कुछ छह आरोपित थे. इनमें से एक आरोपित की सुनवाई के दौरान मौत हो गई. एक आरोपित नाबालिग पाया गया था.
निर्भया केस में सितंबर 2013 में फास्ट ट्रैक कोर्ट ने सभी आरोपितों को दोषी करार दिया था. चार दोषियों को फांसी की सजा सुनाई गई थी. इसके बाद हाईकोर्ट में अपील पहुंची. साल 2014 में हाईकोर्ट ने भी मौत की सजा बरकरार रखी. जून 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने भी चारों दोषियों की मौत की सजा पर मुहर लगा दी थी. इसके बाद 20 मार्च 2020 को चारों गुनहगारों को फांसी पर लटका दिया गया था.
कोलकाता की डॉक्टर के मामले में भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) के सेक्शन 103 (1) हत्या और सेक्शन 64 (बलात्कार) के तहत केस दर्ज किया गया है. यानी यह रेप और हत्या का मामला है. इसकी जांच के लिए स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम भी बनाई गई है. फास्ट ट्रैक कोर्ट का गठन होने से जल्द सुनवाई और फैसला आने की उम्मीद है.
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क्या फास्ट ट्रैक कोर्ट सिर्फ रेप केस के लिए हैं?
क्यों फास्ट काम नहीं कर पाते ये कोर्ट और तारीखों में उलझता है न्याय
नई दिल्ली3 वर्ष पहले
16 दिसंबर 2012 को निर्भया से दरिंदगी ने देश को झकझोर कर रख दिया। इसके बाद देशभर में फास्ट ट्रैक कोर्ट से ऐसे मामलों को निपटाए जाने की मांग तेज हो गई। हालांकि, इस मामले के दोषियों को सजा मिलने में सात साल का समय लग गया। राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक, 2020 में रोजाना औसतन 77 दुष्कर्म के मामले सामने आए। रेप और पोक्सो के मामलों के जल्द निपटारे के लिए इन्हें फास्ट ट्रैक कोर्ट में भेजे जाने का प्रावधान है, लेकिन सवाल ये है कि रोजाना रेप के केस बढ़ना और न्याय मिलने में देरी, इन अदालतों की तेजी पर सवालिया निशान खड़ा करता है। ऐसे में यह कोर्ट्स इंसाफ दिलाने में कितने कारगर हैं?
फॉरेंसिक रिपोर्ट में देरी और कॉल डिटेल्स खंगालने में लगता है वक्त
भास्कर वुमन की टीम ने इस बारे में कानून के जानकारों से बात की। इस विषय पर एडवोकेट रत्ना अग्रवाल का कहना है कि एक केस में कई विटनेस होते हैं। इतने गवाहों को जल्दी-जल्दी सुनना मुश्किल है तो वहीं, फास्ट ट्रैक कोर्ट में जघन्य अपराध के मामले जाते हैं, जिनकी चार्जशीट फाइल होने में 60 दिन से ज्यादा का समय लग जाता है। कई बार सप्लीमेंट्री चार्जशीट भी फाइल हो जाती है। फॉरेंसिक रिपोर्ट आने और कॉल डिटेल्स निकालने में लगने वाले समय के कारण देर होती है। जब तक मामला कोर्ट में पहुंचता है तब तक चार्जशीट भी पूरी नहीं होती है जिसके कारण वकील बहस नहीं कर पाते। ये वे खामियां हैं जिनकी वजह से मामले की सुनवाई में देरी होती है।
क्या फास्ट ट्रैक कोर्ट्स में सिर्फ रेप के केस सुने जाते हैं?
ये विशेष अदालतें होती हैं, जहां पीड़ितों को जल्द राहत देने की कोशिश की जाती है। इन्हें राज्य सरकारें संचालित करती हैं। फास्ट ट्रैक कोर्ट में सेक्सुअल असॉल्ट, एंटी करप्शन, सीनियर सिटीजन, दिव्यांग, एससी/एसटी, पांच साल से पुराने प्रॉपर्टी के केस, दंगे या चेक बाउंसिंग के मामले सुने जाते हैं। यहां तक किसी राज्य में हाईकोर्ट को लगता है कि किसी तरह के मामलों की संख्या बढ़ गई है तो उस मामले के लिए भी फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाए जा सकते हैं।
देश में 12 साल और 16 साल की बच्चियों के साथ दुष्कर्म और सामूहिक दुष्कर्म की घटनाएं बढ़ने पर फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट बनाए गए, जिनमें बलात्कार और पोक्सो के मामलों की त्वरित सुनवाई का प्रावधान किया गया।
फास्ट ट्रैक कोर्ट (FTCs) की शुरुआत 11वें वित्त आयोग के निर्देश पर हुई
फास्ट ट्रैक कोर्ट की शुरुआत साल 2000 में 11वें वित्त आयोग के निर्देश पर हुई। पांच साल के लिए प्रयोग के तौर पर 1734 अदालतें बनाई गईं। ये अदालतें 2011 तक चलीं और इन 11 सालों के लिए राज्य सरकारों को 870 करोड़ की ग्रांट मुहैया कराई गई। 11 सालों में 33 लाख मामलों का निपटारा किया गया। 2011 तक 1192 फास्ट ट्रैक कोर्ट्स फंक्शनल रहे। फंड की कमी की वजह से कुछ राज्यों ने इस योजना को बंद कर दिया। फिलहाल 23 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में फास्ट ट्रैक कोर्ट्स चल रहे हैं।
2012 में निर्भया केस आया तो फिर से फास्ट ट्रैक अदालतों की मांग उठी। UPA सरकार ने निर्भया फंड, जुवेनाइल जस्टिस एक्ट को संशोधन किया और फास्ट ट्रैक महिला कोर्ट्स स्थापित किए। इसके बाद उत्तर प्रदेश, जम्मू कश्मीर में भी एफटीसी बने।
1023 फास्ट ट्रैक कोर्ट के गठन का ऐलान, 2023 तक बढ़ाई गई स्कीम
दो अक्टूबर 2019 को दुष्कर्म और पोक्सो एक्ट के मामलों के त्वरित निपटान के लिए 1023 फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट बनाने का प्रस्ताव दिया गया। इन 1023 अदालतों में से 389 पोक्सो अदालतें हैं। इस स्कीम को 2023 तक बढ़ा दिया गया है।
दिल्ली में 2013 में पहला फास्ट ट्रैक कोर्ट बना। इसमें महिलाओं के खिलाफ होने वाले मामलों के लिए बना था। पहला कोर्ट साकेत कोर्ट कॉम्प्लेक्स में हुआ। इसमें पहला केस निर्भया का था। इसके बाद महिलाओं से संबंधित सारे मामले इन अदालतों में सुलझाने की मांग की जाने लगी।
फास्ट ट्रैक कोर्ट फास्ट काम क्यों नहीं कर पाते?
प्रगतिशील महिला संगठन की जनरल सेक्रेटरी और एडवोकेट पूनम कौशिक कहती हैं कि अहम ढांचे का अभाव, कोई स्पष्ट जनादेश नहीं हाेने, गवाहों की गैर मौजूदगी, जजों पर काम का बोझ जैसी खामियों की वजह से फास्ट ट्रैक कोर्ट तेजी से काम नहीं कर पा रहे हैं।
एडवोकेट ऐंड क्रिमिनल साइकॉलोजिस्ट अनुजा कपूर का कहना है कि सेक्शुअल असॉल्ट और बच्चों के यौन अपराधों के मामलों को फास्ट कोर्ट में खत्म करने के लिए 2 महीने में जांच पूरी करने, 2 महीने में ट्रायल करने और ट्रायल कोर्ट के फैसले के खिलाफ 6 महीने के अंदर अपील किए जाने का प्रावधान है, लेकिन मामले का निपटारा तय 6 महीने या 1 साल में नहीं हो पाता है।
महिला जजों की संख्या बढ़े, वक्त पर हो समन
अनुजा कपूर ने कहा, ऐसे कोर्ट में महिला जज की जरूरत है। सिर्फ सेक्सुअल असॉल्ट के केस में ही अलग कोर्ट नहीं होना चाहिए। इससे लड़िकयों में भी आगे जज बनने की इच्छा जगेगी। पीड़ित पक्ष अपनी बात ठीक से रख पाएंगे। समन टाइम पर होना चाहिए। पीड़ित लड़कियों के रिहैबिलिटेशन पर ध्यान देना चाहिए।
नोट : न्याय विभाग की वेबसाइट से जून 2021 तक के आंकड़े लिए गए हैं।