क्रिमीलेयर पर दलितों का ‘भारत बंद’ नहीं असंवैधानिक !
क्रिमीलेयर पर दलितों का ‘भारत बंद’ नहीं असंवैधानिक, विरोध जताने का मतलब जिंदा है लोकतंत्र
सुप्रीम कोर्ट ने हाल में एक अहम फैसला सुनाया जिसमें अपने 2004 के फैसले को पलटते हुए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को मिलने वाले कोटा के अंदर कोटा यानी सब कैटेगरी रिजर्वेशन को मंजूरी दे दी, ताकि जरूरतमंदों को प्राथमिकता के आधार पर आरक्षण मिल पाए. इसके साथ ही कोर्ट ने कहा था कि राज्य सरकार की तरफ से एससी और एसटी को सब कैटगरी देने से पहले क्रिमीलेयर की पहचाने के लिए पॉलिसी भी लाए.
ये फैसला अगस्त माह के पहले सप्ताह में ही आया. उसके बाद इसका विरोध किया गया, तब केंद्र सरकार ने इस बात को गंभीरता से लेते हुए कहा कि देश में ये व्यवस्था लागू नहीं होगी. सुप्रीम कोर्ट के जाति के आधार पर आरक्षण लागू करने की फैसला को लेकर 21 अगस्त को भारत बंद बुलाया गया था, उसी के आंदोलन के अंतर्गत लोग सड़कों पर भारत बंद कराते दिखे है.
ऐसा ही एक आंदोलन 2 अप्रैल 2018 को हुआ था, जब सुप्रीम कोर्ट की ओर से एससी-एसटी को डायल्यूट करने की कोशिश की गई थी. तब उस समय भी लोग सड़कों पर आए और फिर आंदोलन किया. उसके बाद वो आंदोलन सफल रहा. सुप्रीम कोर्ट ने जाति के आधार पर आरक्षण देने की परमिशन राज्य सरकारों को दिया है, उसी का ये विरोध किया जा रहा है. इस आंदोलन के जरिये जो एससी-एसटी जाति में नहीं बांटा गया है और कोर्ट के द्वारा ऐसा फैसला दिया गया है, उस पर पानी फेरने का काम करेगा.
फैसले का विरोध होना जरूरी
इस फैसले का लोकतंत्र में जिस प्रकार से विरोध किया जाना चाहिए, उसी प्रकार लोग सड़क पर आकर उसका विरोध किया है. भारत बंद का आह्वान किया गया है, प्रशासन से भी कई जगहों पर बातचीत के क्रम में ये बात सामने आई है कि सड़क लोगों ने कहा है कि वो शांतिपूर्ण तरीके से ही भारत बंद कर विरोध प्रकट करेंगे. लोकतंत्र में जिस प्रकार से लोगों के अधिकार होते हैं, उसके मैक्सिमम प्रयोग किया जाना चाहिए. एससी-एसटी समाज में काफी पिछड़े तबके के और दबे कुचले हैं, ऐसे में उनका भी लोकतंत्र में विश्वास रखते हैं, और उसी के अंतर्गत विरोध कर रहे हैं.
ये उनका अधिकार है और उस अधिकार का पालन कर रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट के पास अपना अधिकार है, वो किसी भी मामले को अपनी तरफ से परिभाषित कर सकता है. ये लोकतंत्र कि एक प्रक्रिया है. लोकतंत्र की प्रक्रिया में सरकार का शासन, कोर्ट का फैसला और आंदोलन सब आता है. ये आंदोलन एक तरह का संवाद है. इस तरह के आंदोलन होते रहने चाहिए और पहले से भी ऐसा होते आया है. अगर भारत में ऐसा हो रहा है, इसका मतलब कि लोकतंत्र जीवित है. इसके भविष्य को लेकर ज्यादा चिंता नहीं होना चाहिए.
क्रीमीलेयर नहीं हैं संवैधानिक
ओबीसी में क्रीमीलेयर जब लगाए गए थे तब भी आंदोलन हुए थे. उस समय क्रीमीलेयर को स्वीकार नहीं किया गया था. वो भी कोर्ट का फैसला था. उस समय क्रीमीलेयर के खिलाफ आंदोलन नहीं बन सका, लेकिन इसका मतलब ये नहीं होता है कि क्रीमीलेयर को मान लिया गया है. क्रीमीलेयर में काफी दुष्परिणाम देखने को मिल रहे हैं. किसी बड़े विश्वविद्यालय की स्थिति देख लीजिए वहां पर आज कौन है. क्रीमीलेयर के आने के बाद वहां तक लोग नहीं पहुंच पाते. इसके जरिए प्राइवेट को बढ़ावा देने की कोशिश की जा रही है.
प्राइवेट में अधिकांश फीस होते हैं, ऐसे में उन समुदाय से आने वाले लोगों के पढ़ाई का क्या होगा. ये भी ध्यान रखे जाने की जरूरत है. एक तरफ से विरोधाभास भी देखा जा सकता है. सिर्फ क्रीमीलेयर लाने से कुछ नहीं होगा. उनकी स्थिति शिक्षा में देखा जाए तो काफी ही खराब है. सबसे अधिक तो एसटी समुदाय में है. इसलिए ये तुलना नहीं किया जा सकता कि ओबीसी में क्रीमीलेयर लागू है तो एससी-एसटी में लागू क्यों नहीं किया जा सकता. मणिपुर में एक जाति को आदिवासी समुदाय में ले जाने का विचार लाया गया, उसके बाद कोर्ट में उस मामले में फैसला भी सुना दिया. इसी के कारण आज मणिपुर का हाल खराब है. संविधान में जो आरक्षण का प्रावधान है, उसमें कहीं भी क्रीमीलेयर का कोई प्रावधान नहीं है.
आरक्षण का प्रावधान आर्थिक रूप से नहीं
आरक्षण का प्रावधान कहीं से भी आर्थिक रूप से नहीं की गई है. लोग ये कहते हैं कि इनके पास पैसे हैं, तो फिर आरक्षण का क्या जरूरी है, आरक्षण का प्रावधान, संविधान के अनुसार आर्थिक आधार पर नहीं बल्कि समाज में पिछड़ेपन होने के कारण दिया गया है. ये ओबीसी हो या फिर एससी – एसटी, सभी के लिए ये प्रावधान तय किए गए हैं. समाज ने उनको अछूत माना, उसके लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है ना कि किसी जाति के लिए. उन लोगों के लिए संविधान में कुछ अधिकार दिए गए और विशेषाधिकार दिया गया.
यहां आर्थिक रूप की तो कोई बात ही नहीं कि गई. इसके साथ ही एसटी को इस लिए विशेषाधिकार मिला, क्योंकि वो जंगलों में रहकर अपना जीवन यापन करते थे. उनके मुख्यधारा में लाने के लिए ये कार्य किया गया. सरकारी सेवाओं के साथ पढ़ने-लिखने में आरक्षण की सुविधाएं देने की बात कही गई. इस तरह के फैसले से ये लगने लगता है कि संविधान के प्रावधान से छेड़खानी कर कर रहे हैं, और एक बार ये करने दिया गया तो फिर संविधान के साथ छेड़छाड़ करने की आदत बन जाएगी. संविधान में अगर आर्थिक रूप से आरक्षण देने की बात कि गई होती, तो फिर कोई दिक्कत नहीं होती. अगर डाटा पर बात किया जाए कि कहीं नहीं मिल पाएगा कि एससी-एसटी समुदाय के लोग बड़े पदों पर हों, इसलिए कहीं से भी क्रीमीलेयर की बात करना ठीक नहीं है.
कोर्ट करता है सिर्फ व्याख्या
सुप्रीम कोर्ट मामलों की व्याख्या करता है. कोर्ट में जज बैठते हैं वो समाज के बीच से ही गए हैं. जब व्यक्ति जज बनता है तो कई तरह के आग्रह और चीजों से मुक्त हो जाता है. ऐसी स्टडीज पूरी दुनिया में हुई है. लेकिन जज जो कह रहे हैं, वहीं अंतिम सत्य हो, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता. अगर इस तरह होता तो संसद से भी कानून बनता है, लोग उसके खिलाफ नहीं होते. लेकिन संसद और सरकार के खिलाफ लोग सड़कों पर उतरते हैं. संसद के कई फैसले को सुप्रीम कोर्ट पलट देता है और कई बार देखा गया है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद में संशोधन करना पड़ता है. इसलिए ऐसा कहा नहीं सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा उसका हक था, अब जो लोग कह रहे हैं, वो उनका हक है.
संसद को भी अपना हक है. पिछली बार बवाल हुआ था तो संसद में अध्यादेश लाकर कोर्ट के फैसले को पलटा गया था. लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए आंदोलन जैसे कदम जरूरी है, अन्यथा डिक्टेटरशिप की ओर भारत बढ़ निकलेगा. आंदोलन को लेकर राजनीतिक पार्टियां का समर्थन मिला है. सियासत तो होना जरूरी है, क्योंकि इनको अपना राजनीतिक फायदा लेना है, और सभी लोग जनता के पास ही जाते हैं. ऐसे में राजनीतिक पार्टियों का साथ खड़ा होना तो लाजमी है. चिराग पासवान तो एनडीए में रहकर विरोध कर रहे हैं. इस प्रकार के आंदोलन से ये संदेश जाता है कि अपने अधिकारों के लिए लोगों को संगठित रहने की जरूरत है.
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