आख़िर कब तक हम ऐसी घटनाओं को भूलते रहेंगे?
मैं बंगाल बोल रहा हूँ, मुझे बांग्लादेश की तरह नहीं बनना है…
मैं कोलकाता हूँ। पश्चिम बंगाल हूँ। दर्द से कराहता। रोता। बिलखता और आँसुओं के खारे सागर में डूबता हुआ भी। कोई मुझे चुप नहीं कराता। कोई मेरे आँसू नहीं पोंछता। सबके सब अपनी राजनीति चमकाने में जुटे हुए हैं। आख़िर मेरे दर्द का इलाज कौन करेगा।
एक डॉक्टर थी जिसे तो एक दरिंदे ने अपनी हवस का शिकार बना लिया। अब कौन सुनेगा? कौन करेगा दर्द की मरहम- पट्टी? राजनीतिक रैलियाँ, मोर्चों और नारों के बीच मेरा दर्द कहीं खो गया है। मुझे किसी भी दृष्टिकोण से बांग्लादेश वाली स्थिति में नहीं जाना है और न ही उस तरह का बनना है!
ठीक है! न्याय के लिए गुहार लगाइए। रैलियाँ भी कीजिए। मोर्चे भी बाँधिए। लेकिन इन सबकी दिशा तो सुनिश्चित कीजिए कि आख़िर कहाँ जाकर इसका त्वरित न्याय मिलेगा? … और फिर ऐसी कोई घटना नहीं होगी, इसकी गारंटी क्या है? इस दिशा में क्या और कैसे उपाय किए जाने चाहिए?
कोई इस दिशा में सोच भी रहा है या नहीं। अगर नहीं तो ज़िम्मेदारों और आमजन को भी तुरंत इस तरफ़ या इस बाबत सोचना ही चाहिए। वे उपाय खड़े करने चाहिए जिनके कारण इस तरह की किसी घटना की पुनरावृत्ति न हो सके।
सवाल यह है कि हर बार जब इस तरह की घटना होती है तो हम सरकारों और राजनीतिक नुमाइंदों को कोसने लगते हैं। कुछ दिन बाद ही यह सब भी भूल जाते हैं। राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू ने सही कहा है कि इस तरह की घटनाओं को कुछ ही दिनों में भूल जाने की हमारे समाज की प्रवृत्ति ठीक नहीं है। सही है, नहीं भूलेंगे तो ऐसी घटनाओं पर अंकुश लग सकता है। भूल ज़ाया करेंगे तो निश्चित ही यह सब बार- बार होता रहेगा। जैसा कि हो भी रहा है।
होनी तो यह चाहिए कि इस तरह के अपराधों पर न्याय में देरी न हो। तुरंत और त्वरित न्याय प्रक्रिया अपनाकर दोषियों को दण्डित किया जाना चाहिए। फैसलों से बचने, उनमें गलियाँ निकालकर मामलों को लम्बा खींचने के तमाम प्रयासों पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए। ताकि अपराधियों में न्याय का ख़ौफ़ पैदा हो सके। वे अपराध करने से पहले दण्ड या सजा को सोच कर ही काँप उठें।
आख़िर कब तक हम ऐसी घटनाओं को भूलते रहेंगे? कब तक भुगतते रहेंगे?