भाषा और उसके निवासियों की नैतिकता और एथिक्स पर बात कौन करेगा?
एकदिवसीय कर्मकांड से आगे, भाषा और उसके निवासियों की नैतिकता और एथिक्स पर बात कौन करेगा?
उसी हफ्ते एक बुजुर्ग कवि और पूर्व संपादक ने क्षोभ में लिखा, “शुक्रिया हिंदी की दुनिया के चंद दोस्तों- जिन्होंने मुझे मेरी जाति से पहचाना- जीते जी. मरने के बाद ऐसा करते तो इस पर दुख भी प्रकट नहीं कर पाता. असहाय होने से आपने बचा लिया. और भी कुछ बचा हो तो अभी कह दो, लिख दो.” ठीक दो दिन बाद एक और कवि लिखते हैं, “जब आठवें दशक का एक महत्वपूर्ण कवि अपने घर से दूर एक अस्पताल की आईसीयू में भर्ती था, ठीक उसी समय इस सम्मान को लेकर हिन्दी कविता के आठवें दशक के कवियों आलोचकों में गैंगवार छिड़ा हुआ था. छिटपुट गोलीबारी अभी तक जारी है.”
हिंदी की बिरादी और सिरफुटव्वल
हिंदी में रचने वाली बिरादरी के बीच घटी ये सारी (अ)घटनाएं सितम्बर 2024 के दूसरे सप्ताह की हैं, जिसके आखिरी दिन हिंदी दिवस पड़ता है. (अ)घटनाएं इसलिए क्योंकि ये भौतिक जगत में नहीं घटी हैं. किसी ने किसी को कुछ सीधे मुहांमुंह नहीं कहा है, न ही कहीं किसी कागज पर ये बयान छपे. हिंदी साहित्य की समानांतर दुनिया जो दशकों से राजनीति, समाज और दर्शन से अपेक्षाकृत थोड़ा कम स्वायत्त ढंग से कायम थी, वह बीते कुछ बरसों में आभासी माध्यमों तक सिमट कर तकरीबन ऐसी विच्छिन्नता की स्थिति में आ चुकी है कि हिंदी का एक पाठक दो अलहदा दुनियाओं की सरहद पर टोबाटेक सिंह बना उपु्ड़ दी गुड़गुड़ की गति को प्राप्त हो गया है. जो बाहर घट रहा है, उसकी अभिव्यक्ति हिंदी के भीतर नदारद हैं. जो भीतर घट रहा है्, उसकी प्रतिध्वनि बाहर पहुंच ही नहीं पा रही. ऐसा लगता है कि हिंदी का कथित “लोकवृत्त”, इस शब्द के सार्वजनिक सार्वजनिक चलन के दो दशक के भीतर, लुप्तप्राय सा हो चुका है.
इतना कहने के बाद बाहर नजर दौड़ाएं तो गोया बहुत कुछ ऐसा होता नजर आता है जो लोकवृत्त के लोप वाले निष्कर्ष को चुनौती देता प्रतीत होता है. साहित्यिक संस्थाओं के भव्य कार्यक्रम रोजाना ही हो रहे हैं. वहां पुरस्कार लिए-दिए जा रहे हैं. पुरस्कारों की लेनदेन में आपसी विवाद के चलते इस्तीफे हो रहे हैं. कविता-कहानी के लिए न सिर्फ फैलोशिप बांटी जा रही हैं, बल्कि कविता-कहानी के प्रशिक्षण-केंद्र खुल चुके हैं जिन्हें खुद लेखक शुल्क लेकर चला रहे हैं. हिंदी साहित्य के लोकतांत्रीकरण का ऐसा जमाना आया है कि कवयित्रियां एक घड़ी की चोरी पर बाकायदा विमर्श कर रही हैं और बाकी हिंदी बिरादरी सहानुभूति जताने के साथ-साथ अपना पाला पकड़ रही है. यह पालापकड़ ऐसा अनिवार्य लोकतांत्रिक आपद्धर्म बन गया है कि एक कवयित्री की महज एक कविता- अगर वह कविता है तो- हिंदी समाज को दो दिन के भीतर दो विरोधी पाले में बांटे दे रही है.
लोकतंत्र, सत्ता-संबंध और सेंसर
लोकतंत्र अपने साथ सत्ता-सम्बंधों से उपजा सेंसर भी लेकर आता है, तो हिंदी साहित्य के इस लोकतांत्रीकरण ने नए किस्म की बंदिशों को भी जन्म दिया है. अब सेंसर का खतरा सत्ता से उतना नहीं, जितना भीतर के सत्ता-सम्बंधों के बिगड़ जाने से है. इसके लपेटे में हाल में एकाध कृतियां आई हैं, मसलन एक निजी ट्रस्ट जानकीपुल के पुरस्कार आयोजन पर एक कॉरपोरेट के सीएसआर की तरह चलाई जाने वाली वेबसाइट हिंदवी पर छपा उसके संपादक का एक काल्पनिक पत्र. हिंदी के दायरे में अब सेंसर का खतरा सत्ता से नहीं, हिंदी के भीतर बन चुकी छोटी-मोटी सत्ताओं से है. इतने आयोजनों, पुरस्कारों, विवादों और हो-हल्ले के बावजूद समकालीन सत्ता लिखे गए विपुल साहित्य का एक शब्द भी अपने संज्ञान में नहीं लेती. ऐसा लगता है कि यह सब कुछ किसी और ही दुनिया में घट रहा हो, जिसमें न तो कोई चुनी हुई सरकार है, न प्रधानमंत्री, न मतदाता, न संविधान, न संवैधानिक मूल्यों का हनन, न जघन्यतम बलात्कार और हत्याएं, न ही पुलिस, फौज और महंगाई. दो दुनियाओं की यह विच्छिन्नता, या कहें अलगाव, इतना प्रबल है कि हिंदी का एक शाश्वत-दुखी और नाराज कवि तंग आकर लिख मारता है, “यह हिंदी साहित्य जी का जंजाल बन गया है/ एक सच्चा लेखक इसकी दुनिया में अब एक कंकाल बन गया है”!
हिंदी साहित्य का प्रातिनिधिक संकट
इस कवि के उक्त बयान को समकालीन हिंदी लेखक का प्रातिनिधिक संकट माना जा सकता है, गोकि इस संकट में खुद उस लेखक की शैतानियां और महत्वाकांक्षाएं भी शामिल हैं. इसलिए ‘सच्चे’ को फिलहाल सब्जेक्टिव मानते हुए एक ओर रख दें, तो मोटे तौर पर हिंदी के एक लेखक के संदर्भ में यह जिज्ञासा जरूर पैदा होती है कि उसकी देह का मांस या गोश्त गया कहां? क्या था उसका मांस?यहां ‘जी का जंजाल’ भी एक व्याख्या की मांग करता है. यह जंजाल कौन पैदा कर रहा है? लेखन जैसे सांस्कृतिक उत्पादन के क्षेत्र में ऐसा जंजाल कैसे बनता है, जो जी को ही हर ले और देह को छूछा, गोश्तहीन कर जाए? यह जंजाल क्या हमेशा से रहा है? या फिर किसी खास परिस्थिति में पैदा हुआ है? कहीं ऐसा तो नहीं कि किन्हीं खास परिस्थितियों ने दुनिया के जंजाल को समझने और उसे अभिव्यक्त करने के उपक्रम में निहित लेखकीय नैतिकता को ही प्रभावित कर दिया हो? जिसके चलते हिंदी जनपद के तमाम निवासियों की आचार-नीति यानी एथिक्स ही गड़बड़ा गई हो?
हिंदी दिवस के मौके पर ये कुछ जरूरी सवाल हैं जिन पर सोचा जाना चाहिए. इसलिए, क्योंकि हम अपनी भाषा में ही पैदा होते हैं. भाषा हमारी मां है. हमने इसे नहीं चुना, इसने हमें चुना है. पाला है, पोसा है, सोचने की ताकत दी है, सामाजिकता की सलाहियत बख्शी है. इसकी शुचिता और नैतिकता पर सोचना हमारा कर्तव्य बनता है. हिंदी दिवस के मौके पर बहुत से ऐसे हिंदीभाषी बौद्धिक हैं जो हिंदी के व्याकरणिक पतन पर आंसू बहाते हैं; हिंदी में साहित्येतर रचनाओं के अभाव का रोना रोते हैं; हिंदी में ‘इंटेलेक्चुअल’ न होने और ‘बौद्धिक विमर्श’ न होने को लेकर बेकल रहते हैं. मेरे खयाल से ये तमाम चिंताएं सतही और नकली हैं. ऐसा कहने वाले लोग अपनी-अपनी अनैतिकताओं को छुपाने और भाषा के पतन में अपने योगदान को ढंकने का काम करते हैं. ऐसे लोग अपनी ही भाषा के द्रोही ज्यादा हैं. हिंदी दिवस के बहाने जो कोई भी हिंदी और उसके लोकवृत्त के प्रति घृणा या द्वेष जाहिर करता है, उससे सतर्क रहने की जरूरत है. ऐसे लोग हिंदी से नहीं, हिंदी से होने वाली कमाई से ज्यादा प्यार करते हैं.
हमारी भाषा और बुनियादी नैतिकता
किसी भी भाषा का सवाल अपने मूल में अभिव्यक्ति की ईमानदारी और नैतिकता के साथ जुड़ा है. हिंदी दिवस पर हमें सोचना पड़ेगा कि हमारी भाषा और उसे बोलने वाले लोगों की बुनियादी नैतिकता और सार्वजनिक आचार-नीति के साथ बीते दशकों में क्या घटा है. आखिर क्यों किसी लेखक, पत्रकार या संपादक का पढ़ने-लिखने के प्रति उत्साह कम होता जा रहा है? कर्मकांड मानव जीवन का एक अभिन्न अंग है, इसलिए हिंदी दिवस मनाने में कोई दिक्कत नहीं लेकिन कर्मकांड के पीछे एक प्रच्छन्न आध्यात्म, नीति, नैतिकता और धर्म भी होता है. एक समाज या भाषाई समुदाय के तौर पर हिंदी का यह धर्म, अध्यात्म और नैतिकता क्या है? है भी या नहीं?
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