सरकारों को बाजार में ज्यादा हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए

सरकारों को बाजार में ज्यादा हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए

इंस्टिट्यूट फॉर इनोवेशन एंड पब्लिक पर्पज़ (आईआईपीपी) के लिए हाल में जारी ‘मिशन-ओरिएंटेड इंडस्ट्रीयल स्ट्रेटेजी’ नामक वैश्विक रिपोर्ट में 2035 तक कार्बन उत्सर्जन को आधा करने जैसी महत्वपूर्ण चुनौती से शुरू करते हुए लक्ष्यों को विभिन्न ‘मिशनों’ में विभाजित किया गया है, और देशों के महत्वपूर्ण पदाधिकारियों को इससे जोड़ा गया है। पर मंत्रालयों, निजी क्षेत्र, यूनियनों और सिविल सोसायटी पर जरूरत से ज्यादा भरोसा करने वाले यह भूल जाते हैं कि सरकारों की बुनियादी प्रवृत्ति दखल देने और अपना विस्तार करने की होती है।

नई औद्योगिक रणनीति जहां बेहतर प्रशासन के लिए विचार प्रस्तुत करती है, वहां यह उपयोगी है। लेकिन जब यह निजी क्षेत्र में हस्तक्षेप की वकालत करने लगती है तो खतरनाक हो जाती है। इसमें सब्सिडी, कर्ज, करों में छूट, टैरिफ, सरकारी खरीद आदि की मदद से, बाजार के चुनिंदा प्रतिभागियों को न केवल आर्थिक बल्कि सामाजिक और पर्यावरणीय लक्ष्यों के लिए भी काम करने के लिए सूचीबद्ध किया जाएगा।

पुरानी औद्योगिक नीति की ही तरह, यह दृष्टिकोण प्रतिस्पर्धा को कमजोर करता है और इस पर जोर देता है कि कॉर्पोरेट्स के प्रदर्शन को मुनाफे के बजाय अन्य चीजों के आधार पर जज किया जाए, जिनमें राष्ट्रीय हित भी शामिल हैं।

यही कारण है कि औद्योगिक रणनीति- भले ही उसके इरादे नेक हों- निजी आर्थिक प्रयासों को क्षति पहुंचाती है। लॉबीइंग, क्रोनीज्म और भ्रष्टाचार को भी अगर इसमें जोड़ दें- जो कि अरबों डॉलर की पेशकश करने वाली तमाम सरकारी पहलों में अमूमन पाए जाते हैं- तो यह विश्वास करना कठिन हो जाता है कि यह दृष्टिकोण दुनिया की बड़ी चुनौतियों के लिए आदर्श समाधान हो सकता है।

चूंकि औद्योगिक रणनीति किसी सरकार द्वारा लागू की जाती है, इसलिए उसकी रुचि वैश्विक या व्यक्तिगत जरूरतों नहीं बल्कि राष्ट्रीय हितों में होगी। यह समझने के लिए कि यह एक समस्या क्यों है, चिप-मैन्युफैक्चरिंग पर नजर डालें।

थोड़ी-बहुत आर्थिक क्षमता वाला दुनिया का हर देश आज वैश्विक किल्लत से बचने और युद्ध की स्थिति में सैन्य-उत्पादन जारी रखने के लिए चिप्स का घरेलू प्लांट चाहता है। लेकिन चूंकि कोई भी देश अपनी जरूरत के सभी चिप्स नहीं बना सकता, इसलिए घरेलू निर्माता इसकी किल्लत से सुरक्षा का आश्वासन नहीं दे सकते। अगर किल्लत वैश्विक है, तो कारण भी वैश्विक ही होना चाहिए, जैसे कि महामारी। तब घरेलू चिप निर्माता भी इससे कैसे बचेंगे?

राष्ट्रीय-सुरक्षा का तर्क भी इसी समस्या का सामना करता है। चिप-निर्माता देशों द्वारा रूस पर कठोर पाबंदियां लगाई गई हैं, लेकिन इसके बावजूद वह चिप्स से सुसज्जित आधुनिक अस्त्रों के माध्यम से एक जोरदार युद्ध छेड़े हुए है। और यह स्थिति तब है, जब रूस के पास अपना कोई चिप-निर्माता तक नहीं है।

सबसे उन्नत चिप्स बनाने वाली मशीनें नीदरलैंड में एएसएमएल द्वारा निर्मित की जाती हैं, जो उन्हें किसी ‘किल’ स्विच की मदद से दूर से भी बंद कर सकती हैं। यदि वास्तविक सुरक्षा प्राप्त करने के लिए डिजाइन, मशीनें और प्रमुख केमिकल्स सभी को एक ही देश में उत्पादित करना जरूरी हो तो केवल अमेरिका जैसी विशाल अर्थव्यवस्था- और शायद चीन और ईयू- ही इसकी मैन्युफैक्चरिंग की स्वतंत्रता प्राप्त कर सकते हैं, और वह भी बहुत अधिक लागत पर।

जब कोई बड़ा देश किसी उद्योग को सब्सिडी देने को तैयार होता है, तो वह पूरा उद्योग सरकारी-समर्थन पर निर्भर हो जाता है। निवेश मुनाफे और प्रतिस्पर्धा से नहीं, बल्कि सब्सिडी, राष्ट्रीय-सुरक्षा नीतियों और नौकरशाहों द्वारा संचालित होने लगता है। रिसर्च में सब्सिडी के बावजूद, इनोवेशन पर भी इसका असर पड़ सकता है, क्योंकि सब्सिडी पाने वाले पिछड़े उद्योग पूरे उद्योग में मुनाफे को कम कर देंगे, जिससे मार्केट-लीडर्स के पास आरएंडडी में निवेश के लिए पैसा ही नहीं बचेगा।

ऐसे में भारत जैसी मध्यम-आकार की अर्थव्यवस्थाओं के लिए इस उन्माद से दूर रहना ही समझदारी होगी। लेकिन औद्योगिक रणनीति उन नेताओं के लिए बहुत लुभावनी है, जो चमकदार नए उद्योग बनाने का श्रेय लेना चाहते हैं। चिप सब्सिडी के लिए 10 अरब डॉलर का वादा करने के बाद भारत भी इसके लिए 15 अरब डॉलर की और सब्सिडी देने की बात कर रहा है, जिसे वह वहन नहीं कर सकता। क्या यह पैसा हजारों उच्च-गुणवत्ता वाले प्राथमिक विद्यालय, हाई स्कूल और सैकड़ों शीर्ष-स्तरीय विश्वविद्यालय खोलने में बेहतर खर्च नहीं किया जा सकता?

दूसरी तरफ चीन की औद्योगिक रणनीति ने इलेक्ट्रिक वाहनों, सौर सेल और बैटरियों में भी इन्हीं ट्रेंड्स को प्रभावित किया है। प्रतिस्पर्धी बाजारों के लिए ग्रीनटेक इनोवेशन और सस्ते उत्पादन को बढ़ावा देने के बजाय हम टैरिफ, सब्सिडी और सरकारों द्वारा समर्थित जॉम्बी-कंपनियों के चलते इन महत्वपूर्ण क्षेत्रों को कमजोर कर रहे हैं। सच तो यह है हमें औद्योगिक रणनीति पर उचित वैश्विक संवाद की जरूरत है।

निजी आर्थिक हितों को क्षति नई औद्योगिक रणनीति का दृष्टिकोण प्रतिस्पर्धा को कमजोर करता है और इस पर जोर देता है कि कॉर्पोरेट्स के प्रदर्शन को मुनाफे के बजाय अन्य चीजों के आधार पर जज किया जाए, जिनमें राष्ट्रीय हित भी शामिल हैं। यह निजी आर्थिक प्रयासों को क्षति पहुंचाता है। (© प्रोजेक्ट सिंडिकेट)

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