धार्मिक दीवारों के पार दुनिया ?

धार्मिक दीवारों के पार दुनिया: इस्लाम बहुल पाकिस्तान और बौद्ध बहुल श्रीलंका नजीर… राजनेता-जनता को सीखना होगा
इस्लाम बहुल होने के बाद भी पाकिस्तान के लोग उसे प्रगति की राह पर आगे नहीं बढ़ा सके। बौद्ध बहुल श्रीलंका भी ऐसा नहीं कर पाया। इसलिए धार्मिक सीमाओं के पार की दोस्ती गणतंत्र के स्वास्थ्य के लिए शुभ साबित हो सकती है।
 World Beyond Religious Boundary at a glance pluralism and various faiths and healthy republic
पाकिस्तान और श्रीलंका में जन-आक्रोश

आधुनिक दुनिया की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक यह है कि विभिन्न धर्मों के लोगों को एक साथ शांतिपूर्वक रहने के लिए कैसे प्रेरित किया जाए। धार्मिक बहुसंख्यकवाद के सिद्धांत पर राष्ट्रों का निर्माण और गैर-ईसाई आबादी के यूरोप तथा उत्तरी अमेरिका में प्रवास ने मध्य पूर्व एवं दक्षिण एशिया में धर्म के आधार पर अक्सर हिंसक संघर्षों को जन्म दिया है। अहंकार एवं श्रेष्ठताबोद्ध की भावना आमतौर पर सहिष्णुता और आपसी समझ पर हावी हो जाती है।

अमेरिकी विद्वान थॉमस अल्बर्ट हॉवर्ड ने अपनी पुस्तक ‘द फेथ ऑफ अदर्स : ए हिस्ट्री ऑफ इंटररिलीजियस डायलॉग’ (न्यू हेवन : येल यूनिवर्सिटी प्रेस, 2021) में विभिन्न धर्मों के बीच की आपसी समझ के मुद्दे को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है। अल्बर्ट हॉवर्ड की अधिकांश किताबें ईसाई धर्म पर केंद्रित हैं, जिस धर्म से वह स्वयं सबसे अधिक परिचित हैं। ईसाई धर्म के विद्वान एक समय में पूरी तरह से आश्वस्त थे कि धर्म के प्रति उनका विश्वास एकदम सच है। बीसवीं शताब्दी में इसमें बदलाव आना शुरू हुआ। एक समय अपने आध्यात्मिक अहंकार के लिए मशहूर कैथोलिक चर्च ने 1960 के दशक में अन्य धर्मों को स्वीकार करने की धीमी प्रक्रिया शुरू की। अगस्त 1964 में पोप ने कहा कि “उनका चर्च विभिन्न गैर-ईसाई धर्मों के नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की पहचान करेगा और उनका सम्मान करेगा।” पच्चीस साल बाद एक अन्य पोप ने आगे बढ़कर टिप्पणी की कि “संवाद सामरिक चिंताओं या स्वार्थ से उत्पन्न नहीं होता है, बल्कि यह अपने मार्गदर्शक सिद्धांतों, आवश्यकताओं और गरिमा के साथ एक गतिविधि है।”

अल्बर्ट हॉवर्ड के अध्ययन में अलग-अलग धर्मों के बीच संवाद के दो भारतीय चरित्र शामिल हैं, जिनमें से एक मुगल सम्राट अकबर है, जिसके बारे में लिखने के लिए वह काफी हद तक माखनलाल रॉय चौधरी द्वारा 1952 में प्रकाशित पुस्तक ‘द दीन ए इलाही’ या ‘द रिलीजन ऑफ अकबर’ पर निर्भर हैं। मैं विशेष रूप से अकबर द्वारा अपने समकालीन स्पेन के राजा फिलिप द्वितीय को लिखे गए एक पत्र से प्रभावित हुआ था। यहूदियों और मुसलमानों के निष्कासन के बाद स्पेन में कैथोलिक धर्म का प्रभुत्व तेजी से बढ़ता जा रहा था। अकबर ने राजा फिलिप को भारत से सीख लेने के लिए कहा, “जहां हर कोई अपने तर्कों और कारणों की जांच किए बिना उसी धर्म को मानना जारी रखता है, जिसमें वह पैदा और शिक्षित हुआ। इसलिए हम भारतीय सुविधाजनक ढंग से सभी धर्मों के विद्वानों के साथ जुड़ते हैं और उनके ज्ञान से लाभान्वित होते हैं।”

अल्बर्ट हॉवर्ड जिस दूसरे भारतीय विद्वान को आदर्श मानते हैं, वह स्वामी विवेकानंद हैं। वह स्वामी जी द्वारा 1893 में शिकागो में हुए विश्व धर्म संसद में दिए गए भाषण का उदाहरण देते हैं। उन्होंने पहली बार हमें इस संसद के घोषित आदर्शों से परिचित कराया, जिनमें आपसी समझ विकसित करते हुए विभिन्न धर्मों के लोगों के साथ मित्रतापूर्वक रहना, आपसी भाईचारे को मजबूत करना और धरती के सभी राष्ट्रों को स्थायी अंतरराष्ट्रीय शांति प्राप्त करने के लिए मैत्रीपूर्ण वातावरण में रहना शामिल है।

अल्बर्ट हॉवर्ड ने गांधी जी का उल्लेख दूसरे संदर्भों में तो किया है, लेकिन उनके धार्मिक विचारों पर गंभीरता से विचार नहीं किया। वास्तव में गांधी, अकबर या विवेकानंद की तुलना में अधिक धार्मिक बहुलवादी थे। उन्होंने अंतरधार्मिक संवाद को आगे बढ़ाने के साथ अंतरधार्मिक सामाजिक कार्रवाई का अभ्यास भी किया। उनके द्वारा चलाया गया सत्याग्रह चाहे दक्षिण अफ्रीका में हो या भारत में, दुनिया के सभी धर्मों के लोगों को साथ लाने का प्रयास करता है। उनके आश्रम में अलग-अलग धर्मों के लोग एक साथ रहते थे, जिससे आपसी समझ और एक-दूसरे के प्रति सम्मान बढ़ता था। उनकी अंतरधार्मिक प्रार्थना सभा में विभिन्न धर्मों के पाठ पढ़े जाते थे और भजन गाए जाते थे, जो हमारे संघर्ष के दिनों को याद करने के लिए नवाचार था। नास्तिकों के विपरीत गांधी यह स्वीकार करने के लिए तैयार थे कि मानव समझ से परे एक शक्ति या आत्मा है। आस्थावान लोगों के विपरीत उन्हें विश्वास नहीं था कि उनका धर्म ईश्वर तक पहुंचने का कोई विशेष और श्रेष्ठ मार्ग प्रदान करता है। सितंबर 1924 में उन्होंने ‘ईश्वर एक है’ शीर्षक से एक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने कहा- “हिंदुओं के लिए यह उम्मीद करना कि इस्लाम, ईसाई या पारसी धर्म को भारत से बाहर निकाला जाएगा, यह उतनी ही बेकार बातें हैं, जितना कि मुसलमानों की यह सोच कि केवल उनकी कल्पना वाला इस्लाम ही दुनिया पर राज करेगा।…सत्य किसी एक धर्मग्रंथ की विशिष्ट संपत्ति नहीं है।” गांधी जी ने यह भी कहा था कि “आध्यात्मिक श्रेष्ठता महसूस करना काफी खतरनाक है।”

अपने अलावा अन्य धर्मों के प्रति सम्मान, अन्य धर्मों के लोगों से दोस्ती की इच्छा, गांधी के लिए केवल एक व्यक्तिगत पसंद नहीं थी, बल्कि यह एक राजनीतिक अनिवार्यता भी थी। 1941 में गांधी ने ‘रचनात्मक कार्यक्रम’ की रूपरेखा तीन पन्ने का एक मसौदा प्रकाशित किया। उन्हें उम्मीद थी कि कांग्रेस पार्टी का हर सदस्य इसका पालन करेगा। इस पुस्तिका में शामिल विषयों में अस्पृश्यता का उन्मूलन, खादी को बढ़ावा देना, महिला उत्थान और आर्थिक समानता शामिल हैं।

इस कार्यक्रम का पहला बिंदु ‘सांप्रदायिक एकता’ था। गांधी ने लिखा कि सांप्रदायिक एकता हासिल करने के लिए हर कांग्रेसी को चाहे उसका धर्म कुछ भी हो, उसे प्रत्येक हिंदू और गैर-हिंदू का प्रतिनिधित्व करना है। उसे करोड़ों हिंदुस्तानियों के बीच अपनी पहचान बनानी है। इस बात को मानते हुए हर कांग्रेसी दूसरे धर्मों को मानने वाले लोगों के साथ मित्रता बढ़ाएगा और अपने धर्म के समान ही दूसरे धर्मों का सम्मान करेगा। यह एक ऐसा सिद्धांत था, जिसे गांधी ने अपना बनाया। गांधी के गैर-हिंदू मित्रों की एक संक्षप्ति सूची..
मुसलमान- अब्दुल कादर बावाजीर, एएम कछालिया, अबुल कलाम आजाद, जाकिर हुसैन, आसिफ अली और रेहाना तैयबजी,
ईसाई- जोशिया ओल्डफील्ड, जोसेफ डोके, सीएफ एंड्रूज, जेसी कुमारप्पा, म्यूरियल लेस्टर और राजकुमारी अमृत कौर,
पारसी- दादाभाई नौरोजी, जीवनजी गोरकूडू रुस्तमजी और खुर्शीद नौरोजी,
यहूदी- हरमन कालेनबाख, सोनजा स्लेसिन, हेनरी पोलाक और एलडब्लू रिच,
जैन- प्राणजीवन मेहता और रायचंद,
नास्तिक- जी रामचंद्र राव ‘गोरा’।

इस सूची में सिख मित्र की कमी है, संभवतः इसलिए कि पंजाब से उनका बहुत कम संबंध था(हालांकि अमृत कौर का परिवार मूल रूप से सिख था)। फिर भी यह एक मामूली दोष था, खासकर तब जब गांधी की तुलना उनके महान पश्चिमी समकालीनों- चर्चिल, रूजवेल्ट, डी गॉल आदि की जाती है, जिनके सभी नहीं तो ज्यादातर मित्र ईसाई धर्म से थे। पहली नजर में ऐसा लगता है कि गांधी धार्मिक बहुलवाद के लक्ष्य को प्राप्त करने में असफल रहे। वह इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान को बनने से नहीं पाए और भारत में गांधी के उत्तराधिकारी जवाहरलाल नेहरू ने जो अंतरधार्मिक सहिष्णुता अपनाई, वह भी अब बीती बात हो चुकी है। हिंदुत्व की सोच रखने वाले ‘हिंदू पाकिस्तान’ बनाना चाहते हैं, यह भावना प्रभावी न सही, लेकिन प्रबल जरूर है। लेकिन इस्लाम बहुल होने के बाद भी पाकिस्तान के लोग उसे प्रगति की राह पर आगे नहीं बढ़ा सके, न ही बौद्ध बहुल श्रीलंका ही ऐसा कर पाया। इसलिए राजनेताओं के साथ-साथ आम आदमी के लिए धार्मिक सीमाओं के पार दोस्ती बढ़ाना गणतंत्र के स्वास्थ्य को बहाल करने की दिशा में एक पहला कदम हो सकता है।

अमेरिकी विद्वान थॉमस अल्बर्ट हॉवर्ड ने अपनी पुस्तक ‘द फेथ ऑफ अदर्स : ए हिस्ट्री ऑफ इंटररिलीजियस डायलॉग’ (न्यू हेवन : येल यूनिवर्सिटी प्रेस, 2021) में विभिन्न धर्मों के बीच की आपसी समझ के मुद्दे को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है। अल्बर्ट हॉवर्ड की अधिकांश किताबें ईसाई धर्म पर केंद्रित हैं, जिस धर्म से वह स्वयं सबसे अधिक परिचित हैं। ईसाई धर्म के विद्वान एक समय में पूरी तरह से आश्वस्त थे कि धर्म के प्रति उनका विश्वास एकदम सच है। बीसवीं शताब्दी में इसमें बदलाव आना शुरू हुआ। एक समय अपने आध्यात्मिक अहंकार के लिए मशहूर कैथोलिक चर्च ने 1960 के दशक में अन्य धर्मों को स्वीकार करने की धीमी प्रक्रिया शुरू की। अगस्त 1964 में पोप ने कहा कि “उनका चर्च विभिन्न गैर-ईसाई धर्मों के नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की पहचान करेगा और उनका सम्मान करेगा।” पच्चीस साल बाद एक अन्य पोप ने आगे बढ़कर टिप्पणी की कि “संवाद सामरिक चिंताओं या स्वार्थ से उत्पन्न नहीं होता है, बल्कि यह अपने मार्गदर्शक सिद्धांतों, आवश्यकताओं और गरिमा के साथ एक गतिविधि है।”

अल्बर्ट हॉवर्ड के अध्ययन में अलग-अलग धर्मों के बीच संवाद के दो भारतीय चरित्र शामिल हैं, जिनमें से एक मुगल सम्राट अकबर है, जिसके बारे में लिखने के लिए वह काफी हद तक माखनलाल रॉय चौधरी द्वारा 1952 में प्रकाशित पुस्तक ‘द दीन ए इलाही’ या ‘द रिलीजन ऑफ अकबर’ पर निर्भर हैं। मैं विशेष रूप से अकबर द्वारा अपने समकालीन स्पेन के राजा फिलिप द्वितीय को लिखे गए एक पत्र से प्रभावित हुआ था। यहूदियों और मुसलमानों के निष्कासन के बाद स्पेन में कैथोलिक धर्म का प्रभुत्व तेजी से बढ़ता जा रहा था। अकबर ने राजा फिलिप को भारत से सीख लेने के लिए कहा, “जहां हर कोई अपने तर्कों और कारणों की जांच किए बिना उसी धर्म को मानना जारी रखता है, जिसमें वह पैदा और शिक्षित हुआ। इसलिए हम भारतीय सुविधाजनक ढंग से सभी धर्मों के विद्वानों के साथ जुड़ते हैं और उनके ज्ञान से लाभान्वित होते हैं।”

अल्बर्ट हॉवर्ड जिस दूसरे भारतीय विद्वान को आदर्श मानते हैं, वह स्वामी विवेकानंद हैं। वह स्वामी जी द्वारा 1893 में शिकागो में हुए विश्व धर्म संसद में दिए गए भाषण का उदाहरण देते हैं। उन्होंने पहली बार हमें इस संसद के घोषित आदर्शों से परिचित कराया, जिनमें आपसी समझ विकसित करते हुए विभिन्न धर्मों के लोगों के साथ मित्रतापूर्वक रहना, आपसी भाईचारे को मजबूत करना और धरती के सभी राष्ट्रों को स्थायी अंतरराष्ट्रीय शांति प्राप्त करने के लिए मैत्रीपूर्ण वातावरण में रहना शामिल है।

अल्बर्ट हॉवर्ड ने गांधी जी का उल्लेख दूसरे संदर्भों में तो किया है, लेकिन उनके धार्मिक विचारों पर गंभीरता से विचार नहीं किया। वास्तव में गांधी, अकबर या विवेकानंद की तुलना में अधिक धार्मिक बहुलवादी थे। उन्होंने अंतरधार्मिक संवाद को आगे बढ़ाने के साथ अंतरधार्मिक सामाजिक कार्रवाई का अभ्यास भी किया। उनके द्वारा चलाया गया सत्याग्रह चाहे दक्षिण अफ्रीका में हो या भारत में, दुनिया के सभी धर्मों के लोगों को साथ लाने का प्रयास करता है। उनके आश्रम में अलग-अलग धर्मों के लोग एक साथ रहते थे, जिससे आपसी समझ और एक-दूसरे के प्रति सम्मान बढ़ता था। उनकी अंतरधार्मिक प्रार्थना सभा में विभिन्न धर्मों के पाठ पढ़े जाते थे और भजन गाए जाते थे, जो हमारे संघर्ष के दिनों को याद करने के लिए नवाचार था। नास्तिकों के विपरीत गांधी यह स्वीकार करने के लिए तैयार थे कि मानव समझ से परे एक शक्ति या आत्मा है। आस्थावान लोगों के विपरीत उन्हें विश्वास नहीं था कि उनका धर्म ईश्वर तक पहुंचने का कोई विशेष और श्रेष्ठ मार्ग प्रदान करता है। सितंबर 1924 में उन्होंने ‘ईश्वर एक है’ शीर्षक से एक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने कहा- “हिंदुओं के लिए यह उम्मीद करना कि इस्लाम, ईसाई या पारसी धर्म को भारत से बाहर निकाला जाएगा, यह उतनी ही बेकार बातें हैं, जितना कि मुसलमानों की यह सोच कि केवल उनकी कल्पना वाला इस्लाम ही दुनिया पर राज करेगा।…सत्य किसी एक धर्मग्रंथ की विशिष्ट संपत्ति नहीं है।” गांधी जी ने यह भी कहा था कि “आध्यात्मिक श्रेष्ठता महसूस करना काफी खतरनाक है।”

अपने अलावा अन्य धर्मों के प्रति सम्मान, अन्य धर्मों के लोगों से दोस्ती की इच्छा, गांधी के लिए केवल एक व्यक्तिगत पसंद नहीं थी, बल्कि यह एक राजनीतिक अनिवार्यता भी थी। 1941 में गांधी ने ‘रचनात्मक कार्यक्रम’ की रूपरेखा तीन पन्ने का एक मसौदा प्रकाशित किया। उन्हें उम्मीद थी कि कांग्रेस पार्टी का हर सदस्य इसका पालन करेगा। इस पुस्तिका में शामिल विषयों में अस्पृश्यता का उन्मूलन, खादी को बढ़ावा देना, महिला उत्थान और आर्थिक समानता शामिल हैं।

इस कार्यक्रम का पहला बिंदु ‘सांप्रदायिक एकता’ था। गांधी ने लिखा कि सांप्रदायिक एकता हासिल करने के लिए हर कांग्रेसी को चाहे उसका धर्म कुछ भी हो, उसे प्रत्येक हिंदू और गैर-हिंदू का प्रतिनिधित्व करना है। उसे करोड़ों हिंदुस्तानियों के बीच अपनी पहचान बनानी है। इस बात को मानते हुए हर कांग्रेसी दूसरे धर्मों को मानने वाले लोगों के साथ मित्रता बढ़ाएगा और अपने धर्म के समान ही दूसरे धर्मों का सम्मान करेगा। यह एक ऐसा सिद्धांत था, जिसे गांधी ने अपना बनाया। गांधी के गैर-हिंदू मित्रों की एक संक्षप्ति सूची..
मुसलमान- अब्दुल कादर बावाजीर, एएम कछालिया, अबुल कलाम आजाद, जाकिर हुसैन, आसिफ अली और रेहाना तैयबजी,
ईसाई- जोशिया ओल्डफील्ड, जोसेफ डोके, सीएफ एंड्रूज, जेसी कुमारप्पा, म्यूरियल लेस्टर और राजकुमारी अमृत कौर,
पारसी- दादाभाई नौरोजी, जीवनजी गोरकूडू रुस्तमजी और खुर्शीद नौरोजी,
यहूदी- हरमन कालेनबाख, सोनजा स्लेसिन, हेनरी पोलाक और एलडब्लू रिच,
जैन- प्राणजीवन मेहता और रायचंद,
नास्तिक- जी रामचंद्र राव ‘गोरा’।

इस सूची में सिख मित्र की कमी है, संभवतः इसलिए कि पंजाब से उनका बहुत कम संबंध था(हालांकि अमृत कौर का परिवार मूल रूप से सिख था)। फिर भी यह एक मामूली दोष था, खासकर तब जब गांधी की तुलना उनके महान पश्चिमी समकालीनों- चर्चिल, रूजवेल्ट, डी गॉल आदि की जाती है, जिनके सभी नहीं तो ज्यादातर मित्र ईसाई धर्म से थे। पहली नजर में ऐसा लगता है कि गांधी धार्मिक बहुलवाद के लक्ष्य को प्राप्त करने में असफल रहे। वह इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान को बनने से नहीं पाए और भारत में गांधी के उत्तराधिकारी जवाहरलाल नेहरू ने जो अंतरधार्मिक सहिष्णुता अपनाई, वह भी अब बीती बात हो चुकी है। हिंदुत्व की सोच रखने वाले ‘हिंदू पाकिस्तान’ बनाना चाहते हैं, यह भावना प्रभावी न सही, लेकिन प्रबल जरूर है। लेकिन इस्लाम बहुल होने के बाद भी पाकिस्तान के लोग उसे प्रगति की राह पर आगे नहीं बढ़ा सके, न ही बौद्ध बहुल श्रीलंका ही ऐसा कर पाया। इसलिए राजनेताओं के साथ-साथ आम आदमी के लिए धार्मिक सीमाओं के पार दोस्ती बढ़ाना गणतंत्र के स्वास्थ्य को बहाल करने की दिशा में एक पहला कदम हो सकता है।

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