जम्मू कश्मीर: विकास की राजनीति असर दिखा रही है !

जम्मू कश्मीर: विकास की राजनीति असर दिखा रही है, जम्हूरियत के जश्न में बढ़-चढ़कर ले रही जनता
इंदिरा गांधी के वक्त से ही दिल्ली और श्रीनगर के बीच कड़वाहट का दौर शुरू हो गया था। लेकिन मौजूदा सरकार ने पर्यटन और आर्थिक विकास की रणनीति पर काम किया, जो बहुत जरूरी था। आज अगर जम्मू-कश्मीर में शांतिपूर्ण चुनाव हो रहे हैं, तो यह विकास की राजनीति का ही नतीजा है।

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Jammu and Kashmir Election 
जम्मू-कश्मीर में दस साल बाद लोकतांत्रिक प्रक्रिया देखने को मिल रही है, जहां पहले चरण में कई निर्वाचन क्षेत्रों में चुनाव हुए हैं, तो कई क्षेत्रों में बाकी दो चरण में चुनाव होने वाले हैं। पहले चरण के मतदान में स्थानीय लोगों में जो उत्साह दिखा है, उससे लगता है कि इस केंद्रशासित प्रदेश के लोग अब विकास के रास्ते पर तेजी से आगे बढ़ना चाहते हैं।

अनुच्छेद 370 के हटने और प्रमुख राजनीतिक दलों के विरोध के बावजूद केंद्रशासित प्रदेश बनने के बाद यह जम्मू-कश्मीर के इतिहास में एक महत्वपूर्ण क्षण है। कश्मीर का अशांत राजनीतिक इतिहास कुछ ऐसा है, जिसे भुलाया नहीं जा सका है और इसलिए जम्मू-कश्मीर के स्थानीय लोगों में थोड़ा संदेह है कि मौजूदा चुनाव कराने के पीछे नई दिल्ली की क्या रणनीति हो सकती है। चूंकि 1977 को छोड़कर चुनाव परिणामों में धांधली के कई उदाहरण देखे जा चुके हैं, इसलिए कई प्रमुख राजनीतिक दल इसका फायदा उठाकर यह दिखाना चाहेंगे कि दिल्ली एक दिखावटी चुनाव कराना चाहती है, ताकि एक ऐसी सरकार बने, जो सत्तारूढ़ भाजपा के सुर में सुर मिलाए, लेकिन जम्मू-कश्मीर के अशांत इतिहास को याद करना महत्वपूर्ण है, जो हमें बताता है कि लोकतंत्र स्थापित करने के प्रयास में इसने कई चुनाव देखे हैं, लेकिन 1977 के चुनावों को छोड़कर अधिकांश चुनावों के नतीजे संदिग्ध रहे हैं। इसमें शेख अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस ने स्पष्ट रूप से जीत हासिल की थी, जिसने इंदिरा गांधी की कांग्रेस पार्टी को स्पष्ट रूप से हराया था। उनके पहले के शासन में दिल्ली के दबंगों ने हस्तक्षेप किया, जिसके कारण उन्हें 1977 में पुनः निर्वाचित होने तक लंबे समय तक गिरफ्तार रखा गया। लेकिन 1982 में उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र फारूक ने सत्ता संभाली और श्रीमती गांधी के साथ उनका टकराव हुआ। इसके कारण वहां की चुनी हुई सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। नतीजतन दिल्ली और श्रीनगर के बीच बहुत कड़वाहट पैदा हो गई। राजनीतिक सौदेबाजी और खरीद-फरोख्त के कारण प्रतिद्वंद्वी दलों और उनके मुख्यमंत्रियों द्वारा उम्मीदवारों को खरीदकर लोगों पर थोपा गया। इससे जम्मू-कश्मीर के लोगों ने खुद को ठगा हुआ महसूस किया और नई दिल्ली द्वारा प्रेरित चुनाव प्रक्रिया में भाग लेने के बजाय अन्य विकल्पों की तलाश शुरू कर दी। इससे पाकिस्तान को भारत विरोधी भावना भड़काने का मौका मिल गया, और जम्मू-कश्मीर में अलगाववाद की भावना पनपने लगी और पाकिस्तान के एजेंडे के लिए उपजाऊ मैदान तैयार हो गई।

वर्ष 1987 का चुनाव एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जिसके बारे में अधिकांश लोगों का मानना था कि धांधली हुई थी। जमात के कई उम्मीदवार भारतीय लोकतंत्र से निराश होकर पाकिस्तान चले गए, जहां उन्होंने सैन्य आयाम वाले राजनीतिक आंदोलन की शुरुआत की, जिसने आगे चलकर चरमपंथी रूप ले लिया, जो जम्मू-कश्मीर और उसके स्थानीय लोगों, खासकर युवाओं के लिए परेशानी का सबब बना हुआ है। बाद में उनमें से सैकड़ों पाकिस्तान से वापस लौट आए, लेकिन पाकिस्तान में उन्हें सैन्य प्रशिक्षण दिया गया और अलग जम्मू एवं कश्मीर बनाने के लिए उकसाया गया था, जो भारत के विचार के विपरीत था। इसने सैयद सलाउद्दीन के नेतृत्व में कट्टरपंथी हिजबुल मुजाहिदीन जैसे दलों को जन्म दिया, जो 1980 के दशक के चुनावों में बड़े पैमाने पर राजनीतिक धांधली का शिकार बना था, और यासीन मलिक की जेकेएलएफ ने भारत विरोधी कश्मीर आंदोलन को जन्म दिया। इसके बाद पाकिस्तान और आईएसआई ने तीन दशकों तक हिंसक विद्रोह को बढ़ावा दिया, जिससे जम्मू-कश्मीर के आम लोगों का जीवन मुश्किल हो गया और सहिष्णुता की संस्कृति पूरी तरह से खत्म हो गई, जो पहले वहां की पहचान थी। शांति और सद्भाव के साथ समझौता करने के किसी भी प्रयास को अलगाववाद और ‘आजादी’ के आह्वान से चुनौती दी गई। स्थानीय राजनीतिक नेताओं ने इस भावना का इस्तेमाल अपने समर्थकों को बढ़ाने के लिए किया, ताकि ‘भारत के विचार’ को चुनौती दी जा सके और वे नई दिल्ली से सौदा कर सकें।

उनकी सौदेबाजी की रणनीति का मुख्य आधार था अनुच्छेद 370 और स्वायत्तता। कश्मीरी नेताओं को लगता था कि उन्हें भारतीय संघ के भीतर स्वायत्तता मिली हुई है। उन्होंने स्थानीय लोगों की परेशानियों को दूर करने के लिए कुछ भी नहीं किया। और जब मोदी सरकार ने अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के लिए संसदीय प्रस्ताव पेश किया, तो कश्मीर के राजनेता भारत के साथ संबंध तोड़ने की धमकी देते रहे, क्योंकि जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को अलग-अलग केंद्रशासित प्रदेश बना दिया गया। इससे जम्मू-कश्मीर के अलगाववादी पूरी तरह से हैरान रह गए और पाकिस्तान में बैठे उनके संरक्षक भी बहुत नाराज हो गए। और इसी माहौल में विधानसभा के मौजूदा चुनाव हो रहे हैं। परिसीमन के कारण इस बार कई नए क्षेत्र अस्तित्व में आए हैं। हालांकि इनमें से कोई भी निर्वाचन क्षेत्र दो जिलों में नहीं फैला है। इससे नए प्रत्याशियों को अधिक अवसर मिलेंगे, क्योंकि स्थानीय आबादी फारूक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती के नेतृत्व वाली दो प्रमुख पार्टियों द्वारा लागू व्यवस्था का शिकार हो गई थी।

इससे पहले शांतिपूर्ण समाधान खोजने के प्रयासों में चुनौतियों का सामना करना पड़ा था, जो बुरहान वानी जैसे आतंकियों की मौत के बाद हुए आंदोलनों में अचानक उभरे जनाक्रोश के कारण दिखीं। लेकिन केंद्र की मौजूदा सरकार ने पर्यटन और आर्थिक विकास को वापस लाने की रणनीति पर काम किया, जो लोगों के लिए बहुत जरूरी था। आज अगर जम्मू-कश्मीर में शांतिपूर्ण चुनाव हो रहे हैं और बहिष्कार की बात नहीं हो रही है, तो यह विकास की राजनीति का ही नतीजा है। तथ्य है कि पाकिस्तान पिछले कुछ समय से घरेलू राजनीतिक उथल-पुथल में फंसा है, जिसके चलते भारत को अपने प्रयासों में मदद मिली। पाकिस्तानी नेता आपस में ही लड़ रहे थे, इसलिए उनके पास भारत से जम्मू-कश्मीर को अलग करने की रणनीति को आगे बढ़ाने के लिए बहुत कम समय था। ऐसे में, भारत ने विधानसभा चुनावों की पहल करने का फैसला किया, जिसमें वहां के लोग बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं।

अनुच्छेद 370 के हटने और प्रमुख राजनीतिक दलों के विरोध के बावजूद केंद्रशासित प्रदेश बनने के बाद यह जम्मू-कश्मीर के इतिहास में एक महत्वपूर्ण क्षण है। कश्मीर का अशांत राजनीतिक इतिहास कुछ ऐसा है, जिसे भुलाया नहीं जा सका है और इसलिए जम्मू-कश्मीर के स्थानीय लोगों में थोड़ा संदेह है कि मौजूदा चुनाव कराने के पीछे नई दिल्ली की क्या रणनीति हो सकती है। चूंकि 1977 को छोड़कर चुनाव परिणामों में धांधली के कई उदाहरण देखे जा चुके हैं, इसलिए कई प्रमुख राजनीतिक दल इसका फायदा उठाकर यह दिखाना चाहेंगे कि दिल्ली एक दिखावटी चुनाव कराना चाहती है, ताकि एक ऐसी सरकार बने, जो सत्तारूढ़ भाजपा के सुर में सुर मिलाए, लेकिन जम्मू-कश्मीर के अशांत इतिहास को याद करना महत्वपूर्ण है, जो हमें बताता है कि लोकतंत्र स्थापित करने के प्रयास में इसने कई चुनाव देखे हैं, लेकिन 1977 के चुनावों को छोड़कर अधिकांश चुनावों के नतीजे संदिग्ध रहे हैं। इसमें शेख अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस ने स्पष्ट रूप से जीत हासिल की थी, जिसने इंदिरा गांधी की कांग्रेस पार्टी को स्पष्ट रूप से हराया था। उनके पहले के शासन में दिल्ली के दबंगों ने हस्तक्षेप किया, जिसके कारण उन्हें 1977 में पुनः निर्वाचित होने तक लंबे समय तक गिरफ्तार रखा गया। लेकिन 1982 में उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र फारूक ने सत्ता संभाली और श्रीमती गांधी के साथ उनका टकराव हुआ। इसके कारण वहां की चुनी हुई सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। नतीजतन दिल्ली और श्रीनगर के बीच बहुत कड़वाहट पैदा हो गई। राजनीतिक सौदेबाजी और खरीद-फरोख्त के कारण प्रतिद्वंद्वी दलों और उनके मुख्यमंत्रियों द्वारा उम्मीदवारों को खरीदकर लोगों पर थोपा गया। इससे जम्मू-कश्मीर के लोगों ने खुद को ठगा हुआ महसूस किया और नई दिल्ली द्वारा प्रेरित चुनाव प्रक्रिया में भाग लेने के बजाय अन्य विकल्पों की तलाश शुरू कर दी। इससे पाकिस्तान को भारत विरोधी भावना भड़काने का मौका मिल गया, और जम्मू-कश्मीर में अलगाववाद की भावना पनपने लगी और पाकिस्तान के एजेंडे के लिए उपजाऊ मैदान तैयार हो गई।

वर्ष 1987 का चुनाव एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जिसके बारे में अधिकांश लोगों का मानना था कि धांधली हुई थी। जमात के कई उम्मीदवार भारतीय लोकतंत्र से निराश होकर पाकिस्तान चले गए, जहां उन्होंने सैन्य आयाम वाले राजनीतिक आंदोलन की शुरुआत की, जिसने आगे चलकर चरमपंथी रूप ले लिया, जो जम्मू-कश्मीर और उसके स्थानीय लोगों, खासकर युवाओं के लिए परेशानी का सबब बना हुआ है। बाद में उनमें से सैकड़ों पाकिस्तान से वापस लौट आए, लेकिन पाकिस्तान में उन्हें सैन्य प्रशिक्षण दिया गया और अलग जम्मू एवं कश्मीर बनाने के लिए उकसाया गया था, जो भारत के विचार के विपरीत था। इसने सैयद सलाउद्दीन के नेतृत्व में कट्टरपंथी हिजबुल मुजाहिदीन जैसे दलों को जन्म दिया, जो 1980 के दशक के चुनावों में बड़े पैमाने पर राजनीतिक धांधली का शिकार बना था, और यासीन मलिक की जेकेएलएफ ने भारत विरोधी कश्मीर आंदोलन को जन्म दिया। इसके बाद पाकिस्तान और आईएसआई ने तीन दशकों तक हिंसक विद्रोह को बढ़ावा दिया, जिससे जम्मू-कश्मीर के आम लोगों का जीवन मुश्किल हो गया और सहिष्णुता की संस्कृति पूरी तरह से खत्म हो गई, जो पहले वहां की पहचान थी। शांति और सद्भाव के साथ समझौता करने के किसी भी प्रयास को अलगाववाद और ‘आजादी’ के आह्वान से चुनौती दी गई। स्थानीय राजनीतिक नेताओं ने इस भावना का इस्तेमाल अपने समर्थकों को बढ़ाने के लिए किया, ताकि ‘भारत के विचार’ को चुनौती दी जा सके और वे नई दिल्ली से सौदा कर सकें।

उनकी सौदेबाजी की रणनीति का मुख्य आधार था अनुच्छेद 370 और स्वायत्तता। कश्मीरी नेताओं को लगता था कि उन्हें भारतीय संघ के भीतर स्वायत्तता मिली हुई है। उन्होंने स्थानीय लोगों की परेशानियों को दूर करने के लिए कुछ भी नहीं किया। और जब मोदी सरकार ने अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के लिए संसदीय प्रस्ताव पेश किया, तो कश्मीर के राजनेता भारत के साथ संबंध तोड़ने की धमकी देते रहे, क्योंकि जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को अलग-अलग केंद्रशासित प्रदेश बना दिया गया। इससे जम्मू-कश्मीर के अलगाववादी पूरी तरह से हैरान रह गए और पाकिस्तान में बैठे उनके संरक्षक भी बहुत नाराज हो गए। और इसी माहौल में विधानसभा के मौजूदा चुनाव हो रहे हैं। परिसीमन के कारण इस बार कई नए क्षेत्र अस्तित्व में आए हैं। हालांकि इनमें से कोई भी निर्वाचन क्षेत्र दो जिलों में नहीं फैला है। इससे नए प्रत्याशियों को अधिक अवसर मिलेंगे, क्योंकि स्थानीय आबादी फारूक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती के नेतृत्व वाली दो प्रमुख पार्टियों द्वारा लागू व्यवस्था का शिकार हो गई थी।

इससे पहले शांतिपूर्ण समाधान खोजने के प्रयासों में चुनौतियों का सामना करना पड़ा था, जो बुरहान वानी जैसे आतंकियों की मौत के बाद हुए आंदोलनों में अचानक उभरे जनाक्रोश के कारण दिखीं। लेकिन केंद्र की मौजूदा सरकार ने पर्यटन और आर्थिक विकास को वापस लाने की रणनीति पर काम किया, जो लोगों के लिए बहुत जरूरी था। आज अगर जम्मू-कश्मीर में शांतिपूर्ण चुनाव हो रहे हैं और बहिष्कार की बात नहीं हो रही है, तो यह विकास की राजनीति का ही नतीजा है। तथ्य है कि पाकिस्तान पिछले कुछ समय से घरेलू राजनीतिक उथल-पुथल में फंसा है, जिसके चलते भारत को अपने प्रयासों में मदद मिली। पाकिस्तानी नेता आपस में ही लड़ रहे थे, इसलिए उनके पास भारत से जम्मू-कश्मीर को अलग करने की रणनीति को आगे बढ़ाने के लिए बहुत कम समय था। ऐसे में, भारत ने विधानसभा चुनावों की पहल करने का फैसला किया, जिसमें वहां के लोग बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं।

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