इन दिनों पक्ष-विपक्ष के नेता देश की जनता को यह समझाने में लगे हुए हैं कि भारत का संविधान खतरे में है और प्रतिपक्षी दल आरक्षण खत्म करने की भी तैयारी में हैं। एक तरह से लोगों को यह यकीन दिलाया जा रहा है कि कौआ उनका कान ले गया है और उन्हें बिना यह देखे-समझे कौए के पीछे दौड़ना चाहिए कि उनका कान सलामत है या नहीं?

संविधान और आरक्षण के खतरे में होने का शिगूफा लोकसभा चुनाव के समय छेड़ा गया था। बहुत से लोग इस शिगूफे का शिकार भी हुए। पता नहीं अब उन्हें भान हुआ या नहीं कि उनके सामने भय का भूत खड़ा किया गया था, लेकिन राजनीतिक दलों की लोगों को बहकाने की राजनीति अब भी जारी है।

लोकसभा चुनाव के समय संविधान और आरक्षण के लिए खतरा पैदा होने का हौवा कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों ने खड़ा किया था। इस दुष्प्रचार के चलते राजनीतिक नुकसान उठाने के बाद से भाजपा भी यह कहने में लगी हुई कि संविधान और आरक्षण को असली खतरा कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों से है।

विडंबना यह है कि इस झूठे प्रचार पर अंध विरोधी और अंध समर्थक किस्म के कुछ लोग यकीन भी कर रहे हैं, जबकि सच यह है कि न तो संविधान खत्म किया जा सकता है और न ही आरक्षण समाप्त किया जा सकता है। कम से कम वर्तमान परिस्थितियों में तो यह संभव नहीं और किसी की ओर से ऐसी कोई कोशिश करने का मतलब है जानबूझकर राजनीतिक आत्मघात करना।

देश का कोई भी दल इतना नादान नहीं हो सकता कि वह संविधान खत्म करने या फिर आरक्षण को समाप्त करने का सोचे और फिर भी यह समझे कि वह राजनीतिक रूप से प्रासंगिक बना रह सकता है। निःसंदेह संविधान में संशोधन किया जा सकता है और देश, काल एवं परिस्थितियों को देखते हुए किया भी जाना चाहिए।

ऐसा किया भी गया है और चूंकि कांग्रेस लंबे समय तक सत्ता में रही है, इसलिए उसने ही सबसे अधिक संविधान संशोधन किए हैं। आपातकाल के जरिये संविधान को धता बताने का कलंक भी उसके माथे पर है, लेकिन दुष्प्रचार की राजनीति के जरिये वही यह प्रचारित कर रही है कि भाजपा संविधान के लिए खतरा बन गई है।

संविधान के किसी प्रविधान की समीक्षा की मांग करने में कोई हर्ज नहीं, लेकिन आज जैसा राजनीतिक माहौल है, उसमें यदि कोई ऐसी मांग करे तो उसके विरोधी तत्काल उसे संविधान विरोधी करार देंगे। इसी तरह यदि किसी ने भूले से भी कह दिया कि आरक्षण की समीक्षा होनी चाहिए, ताकि वह अधिकाधिक पात्र लोगों को मिल सके तो उसे आरक्षण विरोधी करार देने में क्षण भर की भी देर नहीं की जाएगी। आखिर यह क्यों नहीं देखा जाना चाहिए कि आरक्षण का लाभ पात्र लोगों को सही तरह से कैसे मिले?

यह देखना दुखद है कि एससी-एसटी आरक्षण के उपवर्गीकरण की उचित मांग का जो भी समर्थन कर रहे हैं, उन्हें संविधान और सामाजिक न्याय विरोधी करार देने में संकोच नहीं किया जा रहा है। आखिर यह कैसा सामाजिक न्याय है कि एससी-एसटी समाज की जिन सबसे अधिक पिछड़ी जातियों को आरक्षण का लाभ देना सुनिश्चित किया जाना सभी दलों का साझा ध्येय होना चाहिए, उन्हें उससे वंचित करने को ही संविधानसम्मत बताया जा रहा है।

वास्तव में यह सामाजिक अन्याय की ही मिसाल है। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति इसीलिए बनी है, क्योंकि आरक्षण पर क्षुद्र राजनीति की जा रही है। जैसे आरक्षण के समक्ष नकली खतरा खड़ा कर दिया गया है, उसी तरह संविधान के समक्ष भी।

आज पक्ष-विपक्ष में से यदि कोई संविधान के किसी प्रविधान में संशोधन की न्यायसंगत मांग भी करे तो उसे फौरन ही संविधान का शत्रु करार दिया जाएगा। इतना ही नहीं, ऐसा करने वाले यह हल्ला मचाते हुए भीमराव आंबेडकर की फोटो के साथ सड़कों पर उतर आएंगे कि बाबा साहेब के बनाए संविधान को खत्म करने की साजिश रची जा रही है।

2014 में जब मोदी सरकार ने सत्ता में आने पर जजों की नियुक्ति की मौजूदा गैर-संवैधानिक व्यवस्था को खत्म कर न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाने की पहल की थी तो सभी विपक्षी दलों ने उसका समर्थन किया था। संबंधित संविधान संशोधन विधेयक पर संसद और विधानसभाओं ने खुशी-खुशी मुहर भी लगा दी थी, लेकिन जैसी आशंका थी, सुप्रीम कोर्ट ने उसे असंवैधानिक करार दिया और जजों के द्वारा जजों की नियुक्ति की गैर-लोकतांत्रिक व्यवस्था बनाए रखी।

यह किसी भी दृष्टि से संविधानसम्मत नहीं है, लेकिन आज कोई सोच भी नहीं सकता कि जजों की नियुक्ति की कलेजियम व्यवस्था में बदलाव की कोई पहल हो सकती है। यदि इसका कोई निष्कर्ष निकलता है तो यही कि जब पक्ष-विपक्ष के दल क्षुद्रता भरी राजनीति करने लगते हैं, तब आवश्यक सुधार करना और भी कठिन हो जाता है।

हमारे राजनीतिक दल इन दिनों जनता को जानबूझकर बहकाने और सीधे शब्दों में कहें तो बेवकूफ बनाने वाली जैसी राजनीति करने में लगे हैं, उसे देखते हुए इसके आसार नहीं कि विभिन्न क्षेत्रों में जरूरी सुधारों की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है।

आसार इसलिए कम हैं, क्योंकि दोनों ही पक्ष के शीर्ष नेता भी इसी राजनीति का परिचय देने में लगे हुए हैं। इससे भी खराब बात यह है कि मीडिया का एक हिस्सा और विशेषकर यूट्यूब के जरिये पत्रकारिता करने वाले इसमें सहायक बने हुए हैं।

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राजनीति के बहाने…..राजनीति जीवन का थर्मामीटर है, राजनीति बुरी हो तो जीवन का हर पहलू बुरा होने लगता है

बुरा आदमी बुरा सिर्फ इसलिए है, क्योंकि वह अपने स्वार्थ के अतिरिक्त कुछ नहीं देखता। कुछ नहीं सोचता। अच्छा आदमी इसलिए अच्छा है, क्योंकि वह अपने स्वार्थ की बजाय दूसरों के स्वार्थ को प्राथमिकता देता है। फिलहाल राजनीति में केवल अपना स्वार्थ देखा जा रहा है। वह व्यक्तियों, नेताओं का निहित स्वार्थ बनकर रह गई है।

अब देखते हैं कि राजनीति जीवन का थर्मामीटर कैसे है? बुरा आदमी सत्ता में जाने के लिए तमाम बुरे साधनों का उपयोग करता है।…और सत्ता में जाने के लिए एक बार अगर बुरे साधनों का इस्तेमाल होने लगे तो जीवन की सभी दिशाओं में बुरे साधन प्रयुक्त होने लगते हैं।

फिर जब एक राजनेता बुरे साधनों का प्रयोग करके मंत्री बन जाए, तो एक गरीब आदमी बुरे साधनों का प्रयोग करके अमीर क्यों नहीं हो सकता? तर्क यह हो जाता है। जब एक नेता बुरे साधनों का प्रयोग करके चुनाव जीत सकता है तो एक शिक्षक के ऐसे ही रास्ते पर चलकर वाइस चांसलर होने में क्या बुराई है?

एक दुकानदार का बुरे साधनों के जरिए करोड़पति या उद्योगपति बनना क्या बुरा है? ऐसे में तर्क बुरे को अच्छा साबित कर देते हैं। कर भी रहे हैं।

तुलनाएं बेशक जीवन को ऊर्जा देती होंगी, लेकिन अधिक बुरा और कम बुरा कुछ नहीं होता। बुरा आखिर बुरा ही होता है। कुल मिलाकर राजनीति में अगर बुरा व्यक्ति है तो जीवन के सभी क्षेत्रों में बुरा होने लगता है। ऐसे में बुरा आदमी सफल होने लगता है और अच्छा व्यक्ति असफल होता जाता है।

किसी देश, समाज, शहर, कस्बे या गांव के लिए सबसे बुरी बात यही होती है कि वहां का अच्छा व्यक्ति असफल होने लग जाए। आज राजनीति की हालत यह है कि बुरा आदमी सफल हो या न हो, लेकिन भला होना असफलता की पक्की गारंटी है।

यही स्थिति बदलनी है। बदलनी ही होगी, क्योंकि राजनीति जितनी स्वस्थ होगी, जीवन के सारे पहलू उतने ही स्वस्थ और शुभ होंगे, क्योंकि राजनीति सबसे ताकतवर होती है। ताकत अगर अशुभ हो जाए तो फिर कमजोरों को अशुभ होने से रोका नहीं जा सकता।

जैसे अंग्रेज अगर हम पर राज नहीं करते, उनकी जगह चीनी हम पर राज करते तो हम अंग्रेजों की बजाय चीनियों की नकल करने लगते। सत्ता में जो होता है उसकी सब नकल करने लगते हैं। अंग्रेज हमारे यहां सत्ता में थे इसलिए हमने उनके कपड़े पहनने शुरू कर दिए। यह सत्ता की नकल थी।

सत्ता जैसी होती है, लोग वैसे होने लगते हैं। किसी अनुयायी को एक बार पता लग जाए कि उसका मार्गदर्शक या नेता बेईमान है तो अनुयायी खुद को कब तक ईमानदार रख सकता है?

कुल मिलाकर, राजनीति का शुभ और ईमानदार होना अत्यावश्यक है। …और इसे हम सब मिलकर संभव बना सकते हैं, क्योंकि वोट हमारे हाथ में है। हम ही व्यक्ति को नेता, नेता को मंत्री बनाते हैं। अपनी ताकत को पहचानना ही बुद्धिमानी है। इसके बिना आप शुद्धता नहीं ला सकते। न राजनीति में, न ही सार्वजनिक जीवन में।

तरह-तरह के लोग लगे हुए हैं राजनीति का सिरमौर बनने में। वे चाहे खुद को भावी किंगमेकर समझें या किंग, लेकिन तय हमें करना है कि कौन क्या बनेगा और क्यों बनेगा!