सतर्क भारतीय माता-पिता अपने कानों से भी बच्चों को देखते हैं!
सतर्क भारतीय माता-पिता अपने कानों से भी बच्चों को देखते हैं!
अगर आप फिक्रमंद हैं कि जब आपके बच्चे कुछ चुनिंदा किताबें पढ़ते हैं, तो उनके विचार डगमगा जाते हैं और वे वैचारिक रूप से एक तरफ झुक जाते हैं या दूसरी तरफ। चूंकि आप जानते हैं कि ये अति-संवेदनशील मन है, उन्हें संदेह का लाभ देना चाहते हैं, बच्चों की बुद्धि पर भरोसा है, फिर भी आप आश्वस्त नहीं है कि अगर वे बातें बहुत ठोस हों, तो वे इसे कितनी अच्छी तरह से प्रोसेस करेंगे।
आप वैसे अभिभावक हैं, जो तब यकीनन चिंतित हो उठते हैं, जब यह नैरेटिव एकदम वाम या दक्षिण की ओर मुड़ जाता है। कई बार आपको लगता है, उनके लिए किसी भी निर्णय पर पहुंचना जल्दबाजी होगी। इसलिए अभिभावक होने के नाते बच्चों की बुकशेल्फ पर नजर रखना आम बात है।
अगर आप भी ऐसे अभिभावकों में हैं तो ये बिल्कुल सामान्य है, क्योंकि हमारे देश में ऐसे कई माता-पिता हैं, जो बच्चों की बुकशेल्फ पर कई घंटे खर्च करते हैं, ऐसी किताबें रखते हैं, जो उनमें सकारात्मक मूल्य, समावेशिता और इमोशनल इंटेलिजेंस को बढ़ावा दे, जबकि उनकी उम्र के हिसाब से हानिकारक जानकारी वाली किताबें हटा दें।
हम जैसे आमलोग व माता-पिता ही नहीं बल्कि चुनाव लड़ रहे राजनीतिक उम्मीदवारों ने भी लाखों परिवारों को प्रभावित करने वाले रोजमर्रा के जीवन में बदलाव पर ध्यान देने की कसम खाई है। ब्रिटेन में कंजर्वेटिव पार्टी के ऋषि सुनक के स्थान पर काबिज होने की रेस में शामिल चार नेताओं में से एक टॉम टुगेनधाट कहते हैं, सरकार को ये तय नहीं करना चाहिए कि बच्चे किस उम्र में सोशल मीडिया या स्मार्टफोन इस्तेमाल करें।
जब उनसे पूछा कि अपनी 7 साल की बेटी व 10 साल के बेटे के लिए वे कब मोबाइल लेने की योजना बना रहे हैं, तो उन्होंने कहा, “ये निर्णय मुझे करना है, चूंकि मुझे पता है कि 16 साल के बच्चे भी हैं, जो इसका सही इस्तेमाल करने के लिए मैच्योर हैं, दूसरी ओर 50 साल के बुजुर्ग भी इस मामले में मैच्योर नहीं हैं।’ पूर्व पीएम ऋषि सुनक की सरकार ने ऑनलाइन सुरक्षा एक्ट पेश किया था, और मौजूदा सत्ताधारी पार्टी 16 साल से छोटे बच्चों के लिए स्मार्टफोन और सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगाने की योजना बना रही है।
इससे इतर सच्चाई ये है कि अभिभावक के रूप में आप और मैं बच्चों को स्कूल के गेट तक छोड़ सकते हैं और शाम को उन्हें स्कूल से ले सकते हैं, पर ऑनलाइन गतिविधि से कोई भी उनके बेडरूम में दाखिल हो सकता है और उन्हें नुकसान पहुंचा सकता है।
यही कारण है कि जब बेंगलुुरु में इस रविवार को समाप्त हुए दो दिवसीय नींव लिटरेचर फेस्टिवल में इस परिचर्चा में लोगों की सक्रिय भागीदारी रही कि कैसे बच्चों को उनके सामने आ रहे कंटेंट के प्रभाव से बचाएं, तो मुझे अच्छा लगा। इसमें शामिल ब्रिटेन के एक प्रकाशक ने कहा, हालिया दौर में बाल साहित्य भी आत्महत्या, अवसाद, मृत्यु जैसे विषय टटोलने लगा है, जो कभी टैबू माने जाते थे।
चूंकि समाज विकसित हो रहा है और बच्चे टीवी से ऐसे विषय पहले ही जान चुके होते हैं, ऐसे में आधुनिक लेखक इन विषयों पर बड़े आराम से, विचारपूर्ण कहानियां गढ़ रहे हैं, जो बच्चों को मुश्किल भावनाएं समझने व प्रोसेस करने में मदद करे और असली दुनिया की चुनौतियों से पार पाने की राह दिखाए। पर खूबसूरती ये है कि भारतीय माता-पिता को लगता है कि कुछ ऐसे शब्द, जो ब्रिटेन या दूसरे विकसित देशों में परवरिश के दौरान यूं ही इस्तेमाल होते हैं, वो यहां असर डाल सकते हैं।
जैसे अपनी भावनाओं को कैजुअली बयां करने वाला एक शब्द कहीं और चल जाता है, पर जब बच्चे हमारे यहां दोस्तों या कजिन के साथ दरवाजा पटकते हुए इस्तेमाल करते हैं, तो यह भद्दा लगता है। इसलिए भारतीय माता-पिता न केवल पहले बच्चों की किताब पढ़ते हैं और उनकी लाइब्रेरी संभालते हैं, बल्कि ये भी सुनिश्चित करते हैं कि वे अपने कमरे के दरवाजे खुले रखें, ताकि बच्चों की बातचीत में इस्तेमाल शब्द सुन (देख) सकें।
….भारतीय माता-पिता न केवल अपनी आंखों का उपयोग यह देखने के लिए कर रहे हैं कि बच्चे क्या पढ़ते हैं और क्या करते हैं, बल्कि अपने कान भी लगाए रखते हैं कि वे उन पढ़े गए शब्दों का उपयोग कैसे करते हैं।