जम्मू कश्मीर : वो नियम जो अब नए सीएम को हर हाल में मानना होगा !
जम्मू कश्मीर में पहली बार: वो नियम जो अब नए सीएम को हर हाल में मानना होगा
जम्मू कश्मीर के नए मुख्यमंत्री के पास कितनी शक्तियां होंगी इसका आकलन केंद्र शासित प्रदेश के राजनीतिक ढांचे और संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों के आधार पर किया जा सकता है.
जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव के नतीजे के बाद नए मुख्यमंत्री की नियुक्ति का रास्ता साफ हो गया है. साल 2019 में संविधान के अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को हटाने के बाद यहां पहली बार चुनाव हुए थे और अब नतीजे के बाद पहली बार मुख्यमंत्री भी बनेंगे. 2019 में राज्य का दर्जा खोने के बाद जम्मू कश्मीर अब केंद्र शासित प्रदेश है इस लिहाज से अब यहां का विधानमंडल भी काफी अलग होने वाला है.
ऐसे में एक सवाल ये उठता है कि क्या यहां के नए सीएम की शक्तियां पहले जैसी ही होगा या सीमित हो जाएगी. मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार उमर अब्दुल्ला आज सीएम पद की शपथ भी ले सकते हैं. ऐसे में इस रिपोर्ट में विस्तार से जानते हैं कि वो कौन से नियम जो जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री को हर हालल में मानना होगा.
10 साल बाद हुआ चुनाव
जम्मू कश्मीर में साल 2024 से पहले 2014 में विधानसभा चुनाव लड़ा गया था. उस वक्त पीडीपी और बीजेपी ने गठबंधन में सरकार बनाई थी, हालांकि चार साल बाद यानी 2018 में भाजपा ने समर्थन वापस ले लिया और महबूबा मुफ्ती को सीएम पद छोड़ना पड़ा था.
मुफ्ती की सरकार गिरने के बाद राज्य संविधान की धारा 92 के अनुसार, जम्मू-कश्मीर में छह महीने के लिए राज्यपाल शासन लगाया गया था. राज्यपाल शासन की 6 महीने का समय खत्म होने के बाद केंद्र सरकार ने राष्ट्रपति शासन लगा दिया, जिसे बाद में और आगे बढ़ाया गया.
370 हटने के बाद फिर राष्ट्रपति शासन
केंद्र सरकार ने बड़ा और ऐतिहासिक फैसला लेते हुए 5 अगस्त 2019 को कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाली धारा 370 को लगभग पूरी तरह से खत्म कर दिया था. जिसके 2 महीने बाद यानी 31 अक्टूबर, 2019 को जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लगाया गया. गृह मंत्रालय ने जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 की धारा 73 के तहत राष्ट्रपति शासन का आदेश जारी किया था.
वो नियम जो मुख्यमंत्री को मानना होगा
जम्मू-कश्मीर के नए मुख्यमंत्री को कुछ महत्वपूर्ण नियमों का पालन करना होगा, जिनका आधार केंद्र शासित प्रदेश के राजनीतिक ढांचे और संविधान द्वारा दिए गए अधिकार हैं.
कार्यकारी अधिकार: मुख्यमंत्री जम्मू-कश्मीर का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी होगा और राज्य सरकार के विभिन्न मामलों का नेतृत्व करेगा. उसकी सहमति सभी सरकारी फैसलों में अनिवार्य होगी.
विधानसभा में भूमिका: मुख्यमंत्री विधानसभा में बहुमत दल का नेता होगा और कानून बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा. विधायी प्रस्ताव मुख्यमंत्री की सिफारिश पर ही पारित होंगे.
गवर्नर से सलाह: जम्मू-कश्मीर एक केंद्र शासित प्रदेश होने के कारण गवर्नर की भूमिका भी महत्वपूर्ण रहेगी. मुख्यमंत्री को कई मामलों में गवर्नर से सलाह लेनी होगी, खासकर राष्ट्रीय सुरक्षा या संवैधानिक मुद्दों पर.
वित्तीय प्रस्ताव: कोई भी वित्तीय प्रस्ताव LG की मंजूरी के बिना विधानसभा में पेश नहीं किया जा सकता.
गवर्नर की भूमिका महत्वपूर्ण
जम्मू कश्मीर के बाद दिल्ली एकमात्र ऐसा केंद्र शासित प्रदेश है जिसके पास विधानमंडल है. दिल्ली की विधानसभा में तीन मुख्य विषय—भूमि, सार्वजनिक व्यवस्था, और पुलिस—सीधे लेफ्टिनेंट गवर्नर (LG) के अधिकार में आते हैं. इसका मतलब है कि इन मुद्दों पर निर्णय लेने की शक्ति LG के पास है.
इसके अलावा, सेवाओं (ब्यूरोक्रेसी) को लेकर केंद्र और राज्य सरकार के बीच अक्सर मतभेद होते हैं कि कौन इसे नियंत्रित करेगा. ठीक इसी तरह, जम्मू-कश्मीर की नई विधानसभा को भी शक्तियां सीमित मिलेंगी. आसान भाषा में कहें तो राज्य को कुछ मामलों में फैसले लेने की पूरी स्वतंत्रता नहीं होगी, बल्कि कुछ शक्तियां गवर्नर या केंद्र सरकार के पास रहेंगी.
जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 की धारा 32 के अनुसार, जम्मू-कश्मीर की सरकार राज्य सूची में शामिल विषयों पर कानून तो बना सकती है, लेकिन “सार्वजनिक व्यवस्था” और “पुलिस” जैसे महत्वपूर्ण मामले पर विधानमंडल का अधिकार नहीं होगा. इसका मतलब है कि ये मामले लेफ्टिनेंट गवर्नर या केंद्र सरकार के नियंत्रण में रहेंगे.
इसके अलावा LG की मंजूरी के बिना कोई भी वित्तीय प्रस्ताव विधानसभा में नहीं लाया जा सकता. धारा 53 कहती है गवर्नर कुछ विषयों पर अपने विवेक से फैसले ले सकते हैं, जैसे कि वे विषय जो विधानसभा के अधिकार क्षेत्र में नहीं आते हैं, ऑल इंडिया सर्विसेज और एंटी-करप्शन ब्यूरो से जुड़े मुद्दे.
केंद्र शासित प्रदेश और पूर्ण राज्य में क्या होता है फर्क
1. प्रशासनिक ढांचा
पूर्ण राज्य का अपना विधानसभा और मंत्रिपरिषद होती है. राज्य सरकार को अलग अलग विषयों पर निर्णय लेने का अधिकार होता है. जबकि केंद्र शासित प्रदेशों में आमतौर पर एक लेफ्टिनेंट गवर्नर (LG) होता है जिसे केंद्र सरकार नियुक्त करते हैं. इन प्रदेशों में विधानसभा हो सकती है, लेकिन उसकी शक्तियां सीमित होती हैं.
2. विधायी शक्तियां
राज्य विधानमंडल को राज्य सूची, समवर्ती सूची और यहां तक कि कुछ मामलों में केंद्र की सूची पर कानून बनाने का अधिकार होता है. इन प्रदेशों में विधानमंडल की शक्तियां सीमित होती हैं. कई मामलों में, गवर्नर या केंद्र सरकार को निर्णय लेने का अधिक अधिकार होता है.
3. वित्तीय स्वतंत्रता
राज्यों को अपनी आय और व्यय का प्रबंधन करने की पूरी स्वतंत्रता होती है. वे अपने बजट में बदलाव कर सकते हैं. वित्तीय मामलों में, केंद्र शासित प्रदेशों को अधिकतर केंद्र सरकार पर निर्भर रहना पड़ता है. वित्तीय विधेयक पेश करने के लिए LG की सिफारिश अनिवार्य होती है.
4. राजनीतिक प्रतिनिधित्व
पूर्ण राज्यों के पास अपने मुख्यमंत्री और मंत्रियों का एक स्वतंत्र चयन होता है। वे अपनी सरकार के लिए पूर्ण रूप से जिम्मेदार होते हैं. कई केंद्र शासित प्रदेशों में सरकार की जिम्मेदारी केंद्र सरकार के प्रति होती है, और उनके पास स्वतंत्र रूप से चुनने की पूरी प्रक्रिया नहीं होती.
5. संवैधानिक प्रावधान
ये राज्य भारतीय संविधान के तहत पूर्ण अधिकार प्राप्त करते हैं और संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों द्वारा संरक्षित होते हैं. इनका प्रशासन केंद्र सरकार द्वारा नियंत्रित होता है, और इनकी व्यवस्था संविधान में विशेष प्रावधानों के तहत की जाती है.