भारत के आहार मॉडल की चर्चा क्यों?

भारत के आहार मॉडल की चर्चा क्यों? 2050 तक अनाज उगाने के लिए धरती का .84 भाग ही काफी
ये तो हम सब जानते हैं कि हमारी प्रकृति मुश्किल में है. जंगल कट रहे हैं, नदियां सूख रही हैं और जानवर गायब होते जा रहे हैं. लेकिन क्या हम वाकई इस खतरे को समझ रहे हैं?

जंगल, जानवर, पहाड़, नदिया ये सब मिलकर हमारी दुनिया को चलाते हैं. लेकिन ये प्रकृति धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है और इसका असर हर इंसान पर भी पड़ेगा. दुनियाभर में आधी से ज्यादा जीडीपी (55%) प्रकृति पर निर्भर है. अगर प्रकृति को नुकसान होगा, तो समझ लीजिए कि हमारी इकोनॉमी भी डूब जाएगी. रोटी, कपड़ा, मकान ये सब प्रकृति से ही तो मिलता है. 

वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर (WWF) की  ‘लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट 2024’ में बताया गया है कि साल 1970 से 2020 तक पिछले 50 सालों में दुनियाभर के जंगली जानवरों की संख्या में 73% की गिरावट आई है. दो साल पहले ये गिरावट 69% थी, मतलब हालात और भी बदतर होते जा रहे हैं. पहले जितने जानवर हुआ करते थे, अब उनमें से सिर्फ 27% ही बचे हैं. ये  35000 से ज्यादा जानवरों और 5495 तरह के  मेंढक, पक्षी, मछली,  सरीसृप  पर  की गई  रिसर्च  से पता चला है.

WWF की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि नदियों, झीलों और तालाबों में रहने वाले जीवों की संख्या में सबसे ज्यादा (85%) कमी आई है. इसके बाद जमीन पर रहने वाले जानवरों की संख्या में 69% और समुद्र के जीवों में 56% की गिरावट देखी गई है. 

प्रकृति की सेहत पर पड़ रहा असर
अफ्रीका (76%), एशिया-प्रशांत (60%), लैटिन अमेरिका और कैरेबियन (95%) में जानवरों की संख्या में बहुत तेजी से गिरावट आई है. नदियों और झीलों में रहने वाले जानवरों की हालत तो और भी खराब है. जानवरों की घटती संख्या इस बात का संकेत है कि बहुत से जानवर हमेशा के लिए खत्म हो सकते हैं और हमारी प्रकृति बीमार पड़ रही है.

ब्राजील के जंगलों में हुए एक रिसर्च से पता चला है कि फल खाने वाले बड़े जानवरों की कमी की वजह से बड़े बीज वाले पेड़ कम हो रहे हैं. इस कारण कार्बन स्टोरेज पर असर पड़ रहा है. WWF का कहना है कि अगर ऐसा ही चलता रहा, तो अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और एशिया के जंगल 2-12% तक कम कार्बन स्टोर कर पाएंगे. 

रिपोर्ट में साफ-साफ कहा गया है कि जानवरों के रहने की जगह खत्म होती जा रही है और प्रदूषण बढ़ रहा है, जिसकी सबसे बड़ी वजह है हमारा खाना उगाने और बनाने का तरीका. इसके अलावा, जानवरों का जरूरत से ज्यादा शिकार, नई-नई  बीमारियां और जलवायु परिवर्तन भी जानवरों को तबाह कर रहे हैं.

भारत के आहार मॉडल की चर्चा क्यों? 2050 तक अनाज उगाने के लिए धरती का .84 भाग ही काफी

जानवरों की संख्या कम होने की क्या-क्या वजह
जंगल काटे जा रहे हैं, शहर बढ़ते जा रहे हैं और खेती के लिए जमीन चाहिए. इस चक्कर में जानवरों के रहने की जगह ही नहीं बच रही. सैक्रामेंटो नदी में रहने वाली एक खास तरह की सैल्मन मछली की संख्या 1950 से 2020 के बीच 88% तक कम हो गई. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि बांध बनने से उनके रास्ते में रुकावट आ गई.

पैसे कमाने के लिए जानवरों का शिकार, मछलियों को पकड़ना और पेड़ों को काटना इतना बढ़ गया है कि प्रकृति को संभलने का मौका ही नहीं मिल रहा. कई जानवर तो इस वजह से खत्म होने की कगार पर हैं. अफ्रीका में हाथी दांत के लिए हाथियों का इतना शिकार हुआ है कि 2004 से 2014 के बीच मिन्केबे नेशनल पार्क में उनकी संख्या 78-81% तक कम हो गई.

प्रकृति को नुकसान पहुंचा रहा खाने का सिस्टम
रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया का खाने का सिस्टम बहुत खराब है. ये सिस्टम प्रकृति को बर्बाद कर रहा है, दुनिया का पानी खत्म कर रहा है और जलवायु परिवर्तन का कारण बन रहा है. लेकिन इसके बावजूद, लोगों को पौष्टिक खाना नहीं मिल पा रहा है. इतना अनाज उगाने के बाद भी लगभग 73.5 करोड़ लोग हर रात भूखे सोते हैं. एक तरफ मोटापा बढ़ रहा है, तो दूसरी तरफ दुनिया की एक तिहाई आबादी को नियमित रूप से पौष्टिक भोजन नहीं मिलता.

खाना उगाना प्रकृति के लिए सबसे बड़ा खतरा है. इसके लिए 40% रहने लायक जमीन का इस्तेमाल होता है, ये जंगलों को खत्म करने का सबसे बड़ा कारण है. इससे 70% पानी की खपत होती है और एक चौथाई से ज्यादा ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए भी जिम्मेदार है. 

इस खाने के सिस्टम की वजह से लोगों की सेहत खराब हो रही है और पर्यावरण को नुकसान हो रहा है, जिसका खर्चा हर साल 10-15 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर आता है. ये 2020 की ग्लोबल जीडीपी का 12% है. मतलब, हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं. ये सिस्टम आज और भविष्य में लोगों को खाना खिलाने की हमारी क्षमता को कमजोर कर रहा है.

40% रहने लायक जमीन पर उगाया जाता है खाना
आज दुनिया की 40% रहने लायक जमीन पर सिर्फ इंसानों के लिए खाना उगाया जाता है. इस 40% में से 71% जमीन जानवरों के चरागाह के लिए और बाकी जमीन फसल उगाने के लिए इस्तेमाल होती है. इतना ही नहीं 460 मिलियन हेक्टेयर जमीन पर जानवरों के लिए चारा उगाया जाता है. मतलब 82% खेती की जमीन जानवरों के पेट भरने में चली जाती है.

90% से ज्यादा फसलों की किस्में खत्म हो गई हैं और कई पालतू जानवरों की आधी नस्लें गायब हो गई हैं. आज दुनिया में सिर्फ 10 मुख्य फसलें जौ, कसावा, मक्का, पाम ऑयल, रेपसीड, चावल, ज्वार, सोयाबीन, गन्ना और गेहूं उगाई जाती हैं, जो हमारे खाने का 83% हिस्सा हैं.

मछली पकड़ने का काम भी आधे से ज्यादा समुद्र में होता है. ज्यादातर मछलियां समुद्र के किनारे वाले इलाकों में पकड़ी जाती हैं, जिससे वहां के जीवों के रहने की जगह खराब हो रही है और कई जानवरों पर खतरा मंडरा रहा है. 

जंगल कट रहे हैं, पानी की बर्बादी
खाना उगाने के चक्कर में हम जंगलों को बड़ी बेरहमी से काटे जा रहे हैं. यही सबसे बड़ी वजह है कि जानवरों के घर उजड़ रहे हैं और ग्रीनहाउस गैसें बढ़ रही हैं. लगभग 90% जंगल इसलिए काटे जाते हैं ताकि वहां खेती की जा सके, खासकर उन इलाकों में जहां तरह-तरह के जीव-जंतु पाए जाते हैं. लैटिन अमेरिका, अफ्रीका और एशिया फैसिपिक में जानवरों की संख्या में भारी गिरावट इसी वजह से है.

दुनिया भर में 70% मीठा पानी सिर्फ खेती के लिए इस्तेमाल होता है. कई जगहों पर तो इतना ज्यादा पानी खींचा जा रहा है कि जमीन के अंदर का पानी भी खत्म होता जा रहा है. नदियों और झीलों का पानी भी कम होता जा रहा है. दुनिया की आधी से ज़्यादा झीलों में पानी का स्तर गिर गया है.

खेती के लिए इतना ज्यादा पानी इस्तेमाल करने के साथ-साथ, हम नदियों को भी बदल रहे हैं. बांध बनाए जा रहे हैं, नदियों के किनारे मिट्टी के बांध बनाए जा रहे हैं और दलदली जमीनों को खेती के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. इस सब से नदियों में रहने वाले जीव-जंतु भी मर रहे हैं. अमेरिका के पश्चिमी हिस्सों में 80% पानी खेती के लिए इस्तेमाल होता है, जिसमें से 55% पानी तो सिर्फ जानवरों का चारा उगाने में ही चला जाता है. अगर ऐसे ही चलता रहा, तो इस सदी के बीच तक नदी का 30% पानी और सदी के अंत तक 55% पानी सूख जाएगा.

भारत के खाने के सिस्टम की चर्चा क्यों?
इस रिपोर्ट में भारत में खाने के सिस्टम की चर्चा भी हुई है. रिपोर्ट में कहा गया है कि अमीर देशों में लोगों को शाकाहारी खाना ज्यादा खाना होगा और मांसाहार कम. अगर पूरी दुनिया भारत की तरह शाकाहारी खाना शुरू कर दे, तो 2050 तक हमें अपनी जरूरत का सारा अनाज उगाने के लिए पूरी पृथ्वी की भी जरूरत नहीं पड़ेगी, सिर्फ धरती का .84 भाग ही काफी होगा.

भारत के आहार मॉडल की चर्चा क्यों? 2050 तक अनाज उगाने के लिए धरती का .84 भाग ही काफी

रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि कुछ देशों में तो पुराने जमाने का खाना ही सेहत के लिए बेहतर होता है. जैसे, भारत में National Millett Campaign चलाया जा रहा है ताकि लोग मिलेट्स (मोटा अनाज) ज्यादा खाएं. मिलेट्स सेहत के लिए अच्छे होते हैं और जलवायु परिवर्तन का भी इन पर ज्यादा असर नहीं पड़ता. कुछ दूसरे देशों में प्रोटीन के नए स्रोत ढूंढे जा रहे हैं. जैसे दालें, अनाज. लेकिन हमें ये भी देखना होगा कि पौष्टिक खाना सबको सस्ते में मिले. इसके लिए सरकार को कुछ ऐसी योजनाएं बनानी होंगी जिससे पौष्टिक खाना उगाने, बेचने और खरीदने में मदद मिले. जिन देशों में अपना खाना उगाना मुश्किल है, वहां दूसरे देशों से अच्छा खाना मंगवाने की भी जरूरत पड़ेगी.

आंध्र प्रदेश में अच्छी खेती से प्रकृति को कम नुकसान
आंध्र प्रदेश ने दिखा दिया है कि अगर हम प्रकृति का ख्याल रखते हुए खेती करें, तो कितना फायदा हो सकता है. यहां किसानों को ऐसे तरीके से खेती करना सिखाया जा रहा है जिससे प्रकृति को भी फायदा हो. इससे किसानों की कमाई बढ़ रही है, लोगों को अच्छा खाना मिल रहा है और पानी की बचत भी हो रही है.

आंध्र प्रदेश कम्युनिटी मेनेज्ड नेचुरल फार्मिंग (एपीसीएनएफ) दुनिया का सबसे बड़ा प्रोजेक्ट है जिसमें 630,000 किसान शामिल हैं. इसके परिणाम भी बहुत अच्छे रहे हैं. फसलों की किस्में दोगुनी हो गई हैं, मुख्य फसलों की पैदावार औसतन 11% बढ़ गई है, किसानों की कमाई 49% बढ़ गई है. 

प्रकृति बचाने के लिए खाने के सिस्टम में बदलाव की जरूरत
लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट 2024 में कहा गया है कि खाने का सिस्टम प्रकृति को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा रहा है, फिर भी दुनिया की बड़ी-बड़ी पर्यावरण नीतियों में इस पर कोई खास ध्यान नहीं दिया जाता. हमें फसलों की पैदावार, जानवरों का पालन, मछली पालन और खेती को ऐसे तरीके से करना होगा जिससे प्रकृति को भी फायदा हो. इसके लिए हमें अपने खाने की आदतें बदलनी होंगी. ज्यादातर अमीर देशों में लोगों को शाकाहारी खाना ज्यादा और मांसाहार कम खाना चाहिए.

आज 30-40% खाना बर्बाद हो जाता है. मतलब, हम जितनी कैलोरी उगाते हैं, उसका एक चौथाई हिस्सा हम खाते ही नहीं हैं. इतना ही नहीं, इस बर्बादी के लिए जमीन, पानी और मेहनत भी लगती है, जिससे प्रदूषण फैलता है.

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