क्या अब न्याय के मंदिरों में होगा बुनियादी ढांचे का सुधार?

न्याय की देवी: कानून अंधा नहीं है, लेकिन क्या अब न्याय के मंदिरों में होगा बुनियादी ढांचे का सुधार?
सजावट के तौर पर रखी गई न्याय-देवी के स्वरूप को न्यायाधीशों की इच्छानुसार बदल दिया गया। लेकिन अंग्रेजी भाषा, सामंती कार्यप्रणाली और आम जनता को तारीखों का रिवाज औपनिवेशिक विरासत से निर्धारित हो रहा है। क्या न्याय-देवी की आंखें खुलने से न्यायिक बुनियादी ढांचे में सुधार होंगे?

गुलामी और औपनिवेशिक प्रतीकों को हटाने की मुहिम आजादी के पहले से ही शुरू हो गई थी। इंडिया गेट से जॉर्ज पंचम की मूर्ति को हटाना, नई संसद का निर्माण, शहरों और सड़कों का नाम बदलना और तीन नए आपराधिक कानून उस दिशा में प्रयासों को दर्शाते हैं। संविधान निर्माण के 75वें साल में सुप्रीम कोर्ट के नए ध्वज और प्रतीक चिह्न का राष्ट्रपति ने अनावरण किया था। सुप्रीम कोर्ट परिसर में डॉ. आंबेडकर की मूर्ति की स्थापना के बाद न्यायिक कामकाज का ब्योरा देने वाली न्याय की घड़ी लगाई गई है। उसी कड़ी में न्याय-देवी के स्वरूप में हुए बदलावों को देखा जाना चाहिए।

पिछले साल संविधान दिवस के अवसर पर नई मूर्ति के निर्माण की संकल्पना को केंद्र सरकार के सीपीडब्ल्यूडी विभाग ने पूरा किया है। फाइबर ग्लास से बनी छह फुट की नई मूर्ति में आंखों की पट्टी और हाथ की तलवार को हटा दिया गया है। अब न्याय देवी की आंखें खुली हैं और दाहिने हाथ में तलवार को हटाकर, संविधान सरीखी किताब लगाई गई है। तराजू को बाएं हाथ के बजाय दाएं हाथ में रखने के साथ ही दोनों पलड़े बराबर हैं। नई मूर्ति में भारतीय परंपरा से वस्त्र विन्यास किया गया है।

प्राचीन रोमन साम्राज्य में जस्टीशिया यानी न्याय की देवी की परंपरा थी। यूनानी साम्राज्य और मध्यकालीन यूरोप में तलवार न्याय का बड़ा प्रतीक थी। न्याय में तराजू के माध्यम से संतुलन की विरासत मिस्र से मिली। न्याय-देवी में हुए बदलावों का कुछ लोग विरोध कर रहे हैं। अनेक लोग आंखों की पट्टी खुलने के बाद अंधा युग और अंधा कानून के दौर का खात्मा होने की संभावनाओं से प्रसन्न हैं। न्याय की देवी के प्रतीकों में बदलावों का मकसद न्यायिक व्यवस्था में सुधार है। इसलिए हकीकत से जुड़े अहम सवालों पर सार्थक चर्चा जरूरी है।  

आजादी के बाद राजशाही खत्म हो गई और भारत के संविधान में भी सभी को बराबरी का दर्जा दिया गया है। परंपरा के तौर पर आंखों में बंद पट्टी को निष्पक्षता से जोड़ा जाता है। इसलिए जजों को छोटे-बड़े, अपने और पराये में भेद नहीं करके केस का कानून के अनुसार फैसला करना चाहिए। लेकिन हकीकत में यह माना जाता है कि वादकारियों के रसूख और वकीलों के रुतबे यानी फेस लॉ के अनुसार लोगों को न्याय मिलता है। बड़े अपराधी कानून की गिरफ्त में आते नहीं हैं। अगर संयोग से वे गिरफ्तार हो जाएं, तो महंगे वकीलों के दम पर उन्हें जमानत मिल जाती है। दूसरी तरफ लाखों गरीब, अनपढ़ और वंचित वर्ग के लोग जेलों में कैद हैं। आंखों की पट्टी खुलने के बाद क्या गरीबों और आम जनता को जल्द न्याय मिलेगा?

तलवार को हिंसा का प्रतीक मानते हुए उसकी जगह संविधान जैसी किताब लगाई गई है। दंड के बजाय न्याय की बात तीन नए आपराधिक कानूनों में भी की गई है। हजारों अपराधी छूट जाएं, लेकिन एक निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए। लेकिन हकीकत में पुलिस और अदालती व्यवस्था हजारों निर्दोष लोगों को गिरफ्त में लेकर, बड़े मुजरिमों को रिहा कर देती है। हाईकोर्ट और जिला अदालतों में पांच करोड़ से ज्यादा मामले लंबित हैं। सुप्रीम कोर्ट में न्याय की देवी के स्वरूप में बदलावों से जिला अदालतों के करोड़ों लंबित मामलों में आम लोगों को कैसे राहत मिलेगी? संविधान में सभी को जल्द न्याय का मौलिक अधिकार हासिल है। क्या नई प्रतिमा के बाद तारीख पे तारीख का रिवाज खत्म हो जाएगा?

संविधान में विकेंद्रीकरण और पंचायती राज पर जोर है। साल 2008 के कानून के अनुसार, देश में ग्राम अदालतों का गठन होना चाहिए। शुरुआत में 2500 अदालतों के गठन की बात थी, जिनमें 500 का गठन हुआ और सिर्फ 314 ही काम कर रही हैं। कर्नाटक में एक मजिस्ट्रेट ने चार वर्षों में सिर्फ 114 मामलों का निपटारा किया। जिला अदालतों और हाईकोर्ट में 25 फीसदी जजों की भर्ती नहीं हो रही, क्योंकि उनके बैठने के लिए कमरे और काम करने के लिए स्टाफ नहीं है। राज्यों की सरकारें जिला अदालतों को समुचित संसाधन और बुनियादी तंत्र नहीं दे रहे। कई वर्षों की चर्चा के बावजूद संसद और सुप्रीम कोर्ट अखिल भारतीय न्यायिक सेवा को शुरू नहीं कर पाए। क्या न्याय-देवी की आंखें खुलने के बाद न्यायिक व्यवस्था का रूपांतरण होगा?

राष्ट्रीय पशु, पक्षी और फूल आदि के बारे में कानून की किताबों में जिक्र है, लेकिन न्याय-देवी की प्रतिमा का जिक्र संविधान और कानून में नहीं है। सजावट के तौर पर रखी गई न्याय-देवी के स्वरूप को न्यायाधीशों की इच्छानुसार बदल दिया गया। लेकिन न्यायिक तंत्र को दुरुस्त करने के लिए कानूनों और प्रक्रियाओं में बदलाव करने के साथ न्यायाधीशों को भी जवाबदेह बनाना जरूरी है। अंग्रेजी भाषा, सामंती कार्यप्रणाली, ग्रीष्मकालीन छुट्टियां और आम जनता को तारीखों का रिवाज औपनिवेशिक विरासत से निर्धारित हो रहा है। क्या न्याय-देवी की आंखें खुलने से न्यायिक अधोसंरचना को मजबूती मिलेगी और कॉलेजियम व्यवस्था में सुधार होगा?

जब औपनिवेशिक प्रतीकों से मुक्ति की बात होती है, तो फिर उनमें घालमेल कर बदलाव करने के बजाय भारतीय प्रतीकों को अंगीकार करने की जरूरत है। शास्त्रों में शनिदेव को न्याय का देवता माना जाता है। रामायण, महाभारत और कौटिल्य के अर्थशास्त्र में न्यायाधीशों के लिए उच्च आदर्शों का विस्तार से विवरण है। भारतीय इतिहास में न्याय के लिए राजा विक्रमादित्य भी सर्वाधिक याद किए जाते हैं। हजारों साल बाद भी उनके सिंहासन पर बैठने वालों के ऊपर सत्य और साहस दोनों की छाप दिखती थी। भारतीय परंपरा में भगवान राम के राजा के तौर पर न्याय को आदर्श माना जाता है। जनता के प्रति उनके समर्पण और राजधर्म के अनुशासन की वजह से राम के चरित्र का भारतीय संविधान में चित्रांकन है। उनके आदर्शों पर जज चलें, तो आम जनता से जुड़ने के साथ परिवारवाद से दूर रहने का संकल्प लेना होगा। इतिहास में गए बगैर आधुनिक काल में प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर के नैतिक आदर्शों से प्रेरणा लेकर जज आम जनता को समय पर और सही न्याय दे सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट के 70 हजार मुकदमों के लिए न्याय की घड़ी की स्थापना के बाद देश भर में पांच करोड़ मुकदमों और विचाराधीन कैदियों का नवीनतम विवरण देने वाली न्याय की घड़ी की स्थापना की जाए, तो न्याय-देवी में हुए सजावटी बदलाव पूरे देश की जनता के लिए सार्थक हो सकते हैं।    

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