अपने ही क्षत्रपों से पस्त कांग्रेस, पतन में अंतर्कलह की बड़ी भूमिका ?
अपने ही क्षत्रपों से पस्त कांग्रेस, पतन में अंतर्कलह की बड़ी भूमिका
ज्योतिरादित्य सिंधिया के संभावनाशील चेहरे पर दांव लगाने के बजाय दिग्विजय सिंह और कमलनाथ सरीखे पुराने क्षत्रपों के चंगुल में फंसे रहने का परिणाम यह हुआ कि बगावत के चलते 2020 में ही मध्य प्रदेश में कांग्रेस सरकार गिर गई। सचिन पायलट को बगावत से रोक कर कांग्रेस आलाकमान राजस्थान में तब तो सरकार बचाने में सफल रहा पर पिछले साल विधानसभा चुनाव में उसकी विदाई हो गई।
….हरियाणा की हार से हतप्रभ राहुल गांधी गुस्से में बताए जाते हैं। समीक्षा बैठक में उनकी इस टिप्पणी की बहुत चर्चा है कि नेताओं ने ‘अपने हितों को पार्टी हित से बड़ा समझा’, पर क्या ऐसा पहली बार हुआ? राहुल गांधी 2004 में चुनावी राजनीति में आए। संयोगवश उसी साल कांग्रेस का केंद्रीय सत्ता से दस साल का वनवास समाप्त हुआ। ‘शाइनिंग इंडिया’ की चकाचौंध में डूबी भाजपा की अगुआई वाले राजग को मतदाताओं ने सत्ता से बेदखल कर दिया। सत्ता परिवर्तन इस मायने में चौंकाने वाला रहा कि तब भाजपा और राजग के नेतृत्व शीर्ष पर अटल बिहारी वाजपेयी सरीखा विराट व्यक्तित्व था, जबकि कांग्रेस की कमान सोनिया गांधी के हाथ थी, जिन्हें अपनी पार्टी में भी लंबे सत्ता संघर्ष का सामना करना पड़ा था। तब भी केंद्रीय सत्ता में वापसी के लिए कांग्रेस ने जमीन पर कुछ ठोस नहीं किया था, पर सोनिया ने चुनावी गठबंधन की गजब बिसात बिछाई। सक्रिय राजनीति का पहला दशक राहुल गांधी के लिए ‘आल इज वेल’ वाला रहा, पर उसके बाद तो कांग्रेस और कांग्रेसियों की तमाम कमजोरियां बेनकाब होती गईं। ऐसे में स्वाभाविक सवाल है कि स्वयं राहुल ने उन्हें दूर करने के लिए क्या किया है?
यदि राहुल गांधी को हरियाणा विधानसभा चुनाव में अप्रत्याशित हार से ही यह ज्ञान प्राप्त हुआ है कि नेता अपने हितों को पार्टी हित से बड़ा समझते हैं, तब तो सवाल उनकी राजनीतिक समझ पर भी उठ सकता है। मंडल-कमंडल के राजनीतिक ध्रुवीकरण के बाद से देश के दो बड़े राज्यों उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस हाशिये पर है। देश के सबसे पुराने और दशकों तक शासन करने वाले दल की ऐसी दुर्गति कई सवाल खड़े करती है। एक एक क्षण के लिए मान लेते हैं कि उत्तर प्रदेश और बिहार में सामाजिक न्याय के पैरोकार क्षेत्रीय दलों और हिंदुत्ववादी भाजपा के बीच हुए ध्रुवीकरण से कांग्रेस अप्रासंगिक होती गई, लेकिन आखिर अन्य राज्यों में अपनी पराजय कथा के लिए वह किसे दोष देगी? राज्य दर राज्य कांग्रेस अपने ही क्षत्रपों की कठपुतली बन गई है, जो हमेशा अपने हितों को पार्टी हित से ऊपर रखते हैं और आलाकमान को आंखें दिखाने में भी संकोच नहीं करते।
गुटबाजी कांग्रेस का चरित्र रहा है। जब तक आलाकमान सर्वशक्तिमान था, गुटों की नियंत्रित सक्रियता से अंतत: पार्टी मजबूत होती थी, लेकिन 2014 में कांग्रेस के ऐतिहासिक पराभव के बाद क्षत्रप अपनी मनमानी करने लगे। अपने और परिवार के अलावा किसी का पनपना इन्हें गवारा नहीं। चाहे इस कवायद से विरोधी दल की मदद ही क्यों न हो। कांग्रेस के पतन में अंतर्कलह की एक बड़ी भूमिका रही है, पर यदि पिछले एक दशक पर ही फोकस करें तो पाएंगे दिल्ली अपूर्ण राज्य ही सही, पर वहां कांग्रेस बेहाल है। 70 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस की उपस्थिति शून्य है। यह हाल वहां है, जहां 2013 से पहले कांग्रेस लगातार 15 साल सत्ता में रही। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित रहीं, जो उससे पहले उत्तर प्रदेश में राजनीति करती थीं। 15 साल की सरकार के कामकाज के बल पर कांग्रेस को बहुत मजबूत होना चाहिए था, फिर ऐसा क्यों हुआ कि वह संगठन और जनाधार, दोनों स्तर पर खोखली होती गई? सत्ताकाल में दिल्ली कांग्रेस का अंतर्कलह राहुल गांधी को याद होगा ही। तब दूरदृष्टि से काम लेते हुए जमीन से जुड़े नेताओं की अगली पीढ़ी को आगे लाया गया होता तो आज चुनाव जीतने लायक चेहरों का अकाल दिल्ली कांग्रेस में नहीं होता। 2018 में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में चुनाव जीतकर राहुल गांधी ने सबको चौंका दिया था, पर उसके बावजूद वहां कांग्रेस मजबूत हुई या कमजोर? तीनों राज्यों में सरकार बनने के साथ ही अंतर्कलह के जो बीज पडे, उनकी फसल कांग्रेस को विधानसभा और लोकसभा चुनावों में काटनी पड़ी।
ज्योतिरादित्य सिंधिया के संभावनाशील चेहरे पर दांव लगाने के बजाय दिग्विजय सिंह और कमलनाथ सरीखे पुराने क्षत्रपों के चंगुल में फंसे रहने का परिणाम यह हुआ कि बगावत के चलते 2020 में ही मध्य प्रदेश में कांग्रेस सरकार गिर गई। सचिन पायलट को बगावत से रोक कर कांग्रेस आलाकमान राजस्थान में तब तो सरकार बचाने में सफल रहा, पर पिछले साल विधानसभा चुनाव में उसकी विदाई हो गई। सत्ता में वापसी की उम्मीद तो कांग्रेस मध्य प्रदेश में भी कर रही थी, पर छत्तीसगढ़ भी गंवा बैठी, जहां उसे तमाम चुनावी पंडित जिता रहे थे। खुला रहस्य है कि तीनों राज्यों में कांग्रेस के पराभव का कारण क्षत्रपों का आपसी टकराव रहा, जिसके लिए आलाकमान भी कम जिम्मेदार नहीं। आखिर आलाकमान सिंधिया, पायलट और टीएस सिंहदेव से किए वायदे क्यों पूरे नहीं कर पाया? लगता है कि राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में क्रमश: अशोक गहलोत, दिग्विजय-कमलनाथ की जोड़ी और भूपेश बघेल को उसी तरह कांग्रेस की ‘फ्रेंचाइजी’ दे दी गई है, जैसे कभी दिल्ली में शीला दीक्षित को दी गई थी।
हरियाणा का हाल भी वैसा ही है। दस साल मुख्यमंत्री रहने के बाद भूपेंद्र सिंह हुड्डा हरियाणा में कांग्रेस के सबसे बड़े जनाधारवाले नेता बन गए, लेकिन उनकी चुनावी सीमाएं बार-बार उजागर भी होती रहीं। इसके बावजूद आलाकमान ने हरियाणा के क्षत्रपों में समन्वय बिठाने या उन्हें अनुशासित करने की कोई गंभीर पहल नहीं की। नतीजतन कुलदीप बिश्नोई और किरण चौधरी सरीखे नेता पार्टी छोड़ गए। एक दशक से भी ज्यादा समय से हरियाणा में कांग्रेस संगठनविहीन है। 2019 में विधानसभा चुनाव के बाद सफाई दी गई कि गुटबाजी और गलत टिकट वितरण की वजह से कांग्रेस हारी, पर 2024 के चुनाव में तो हुड्डा को ‘फ्री हैंड’ था। उन्हीं की पसंद उदयभान प्रदेश अध्यक्ष थे तो 90 में से 72 टिकट भी उन्हीं के कहने पर दिए गए। फिर कांग्रेस क्यों हार गई? स्पष्ट है कि भारत जैसे बहुलतावादी देश में किसी एक नेता या वर्ग पर दांव लगा कर चुनावी रण नहीं जीता जा सकता, बल्कि ऐसा करने से क्षत्रपों में निजी हितों को पार्टी हित से ऊपर रखने की मानसिकता मजबूत होने लगती है। कर्नाटक, हिमाचल और तेलंगाना बताते हैं कि क्षत्रपों पर नियंत्रण और सामूहिक नेतृत्व ही जीत की कुंजी है। अब जबकि राहुल गांधी यह समझ भी चुके हैं, देखना होगा कि वह कांग्रेसी क्षत्रपों के इस चक्रव्यूह को तोड़ पाने का साहस जुटा पाते हैं या नहीं?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)
………………………………..
कांग्रेस बहुत तेजी से अपने राजनीतिक पतन की ओर अग्रसर
इंदिरा गांधी ने कांग्रेस का बौद्धिक पक्ष वामदलों को आउटसोर्स कर दिया था। अब राहुल गांधी पूरी पार्टी को ही वामपंथ के हवाले कर रहे हैं। यदि यह काम एक सुविचारित नीति के तहत होता तो ठीक था लेकिन क्यों हो रहा है किसी को पता नहीं।
…….कांग्रेस बहुत तेजी से अपने राजनीतिक पतन की ओर अग्रसर है। इस प्रक्रिया को रोक पाना अब कठिन दिखाई देता है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस का क्षरण परमाणु विखंडन की प्रक्रिया जैसा हो गया है। जो एक बार शुरू हो गई तो रुकेगी नहीं। नेहरू-गांधी परिवार इस प्रक्रिया में उत्प्रेरक का काम कर रहा है। यानी बाड़ खेत खाने लगी है। परिवार हर वह फैसला ले रहा है जो उसे नहीं लेना चाहिए। इसकी सूची इतनी लंबी है कि गिनती कराना भी कठिन है। परिवार के फैसलों में राजनीतिक अपरिपक्वता, अदूरदर्शिता, अहंकार और एनटाइटलमेंट की भावना सब एक साथ नजर आती हैं।
कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया तो था प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने, पर लगता है कि इसे पूरा करने का संकल्प राहुल और प्रियंका ने लिया है। अपने हर फैसले से राहुल गांधी साबित कर रहे हैं कि पार्टी चलाना शायद उनके बस की बात नहीं है। इसमें किसी सुधार की कोई गुंजाइश भी नहीं दिख रही, क्योंकि सुधार के लिए पहली शर्त यह है कि आपको गलती स्वीकार करनी पड़ती है। गलती स्वीकार करना राहुल गांधी के या कहें कि नेहरू-गांधी परिवार के स्वभाव में ही नहीं है। इसे यों भी कह सकते हैं कि ऐसा करना परिवार के लोग अपनी हेठी मानते हैं, क्योंकि मान्यता तो यही है कि राजा कभी कुछ गलत कर ही नहीं सकता।
पंजाब में कांग्रेस छह महीने पहले जीतती हुई लग रही थी। तीन महीने पहले लगने लगा कि शायद अब भी जीत सकती है। अब लग रहा है कि पहले नंबर पर तो नहीं ही रहेगी। इतनी तेजी से पार्टी की स्थिति बिगाड़ने के लिए विशेष प्रयास की जरूरत थी। इसलिए पार्टी हाईकमान ने नवजोत सिंह सिद्धू को मैदान में उतारा। सिद्धू ने काम पूरा कर दिया है, पर वह वहीं नहीं रुके। सिद्धू ने अब सीधे हाईकमान को ही चुनौती दे दी है। हाईकमान के हाथ-पैर फूल गए हैं। मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी से कहा जा रहा है कि वह मामले को हल करें। सिद्धू को समझ में आ गया है कि उनका खेल खत्म हो गया है। चन्नी के मुख्यमंत्री बनने के बाद उनके मुख्यमंत्री बनने का रास्ता बंद हो गया है। जो बात सिद्धू को बर्दाश्त नहीं हुई, वह यह कि चन्नी रबर स्टैंप बनने को तैयार नहीं हैं। इससे भी बुरी बात यह कि गांधी परिवार चन्नी के साथ खड़ा हो गया है। सिद्धू के अंदर की असुरक्षा कुलांचे मार रही है। सो उन्हें लगा कि इससे निकलने का एक ही रास्ता है, हाईकमान की सत्ता को ही चुनौती दी जाए। सवाल है कि अब गांधी परिवार सिद्धू का क्या करेगा? उनसे न निगला जा रहा है और न उगला। सिद्धू का इस्तीफा मंजूर करना नहीं चाहते और सिद्धू के सामने झुकने को तैयार नहीं दिखते।
सिद्धू ने अपनी हरकत से दो और काम किए हैं। एक मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी का कद बढ़ा दिया है। दूसरे राहुल और प्रियंका का आभामंडल क्षीण कर दिया है। यह गतिरोध तोड़ने के लिए अब सिद्धू को गांधी परिवार से नहीं मुख्यमंत्री चन्नी से बात करनी होगी। समय का फेर देखिए कि कुछ दिन पहले तक चन्नी, सुनील जाखड़ और सुखजिंदर सिंह रंधावा जैसे नेता कैप्टन के खिलाफ सिद्धू के साथ थे, पर अब वे सब सिद्धू के विरोध में खड़े हैं।
उधर पंजाब में आग लगी थी और इधर दिल्ली में कन्हैया कुमार और जिग्नेश मेवाणी के आगमन की पार्टी चल रही थी। हालांकि जिग्नेश अपनी विधानसभा सदस्यता बचाने के लिए औपचारिक रूप से कांग्रेस में शामिल नहीं हुए, परंतु संख्या कितनी भी बड़ी हो उसमें जीरो जोड़ने से कुछ बढ़ता नहीं है। कन्हैया कुमार की पहचान क्या है? आतंकी अफजल गुरु के समर्थन और देश विरोधी नारों के मामले में कन्हैया पर देशद्रोह का मुकदमा चल रहा है। जिग्नेश कांग्रेस के समर्थन से विधानसभा चुनाव जीते थे। इसके अलावा उनकी और कोई उपलब्धि नहीं। तो क्या कांग्रेस उधार के सिंदूर से अपनी मांग भरना चाहती है?
सभी पार्टियों में बाहर से लोग आते हैं। यह कोई नई बात नहीं है, लेकिन सवाल है कि जिसे ले रहे हैं, उसकी अपनी कोई जमीन है कि नहीं? बिना जमीन वाला नेता सिर्फ बोझ बनता है। बोझ उठाने वाला नहीं। कांग्रेस को इस समय ऐसे नेताओं की जरूरत है जो उसका जनाधार बढ़ाने में मदद करें। कन्हैया बेगूसराय से लोकसभा चुनाव लड़े। देश भर से उनके समर्थन में लोग जुटे। उसके बावजूद साढ़े चार लाख वोट से हारे। चुनाव में हार-जीत होती रहती है। सवाल है कि हारने के बाद क्या किया? राहुल गांधी ने गलती की थी, जब कन्हैया और उनके साथियों के समर्थन में जेएनयू गए। उसका खामियाजा लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को उठाना पड़ा। उससे बड़ी गलती की है कन्हैया को पार्टी में लेकर। क्या जो भारत के विरोध में खड़े हैं, कांग्रेस में उनका स्वागत है? जिग्नेश ने विधायक बनने के बाद से चार साल में ऐसा कुछ नहीं किया, जिसके आधार पर कहा जा सके कि उनके कांग्रेस में आने से पार्टी को कोई फायदा होगा।
गुजरात में दलितों की आबादी कुल आबादी का सात फीसद है। उसमें भी जिग्नेश का कोई प्रभाव नहीं है। वह कांग्रेस समर्थन के बिना अपनी सीट तक नहीं जीत सकते। कांग्रेस से जुड़ने पर कन्हैया और जिग्नेश को तो फायदा हुआ है, लेकिन कांग्रेस को क्या फायदा हुआ है, यह समझना कठिन है। हां, नुकसान होता हुआ जरूर दिख रहा है। दरअसल ये फ्रीलांसर टाइप नेता हमेशा संगठन के लिए बोझ होते हैं। हार्दिक पटेल को देखिए। हार्दिक को कांग्रेस में आए ढाई साल हो गए। उसके बाद से गुजरात में कांग्रेस की हार का सिलसिला रुकने के बजाय और तेज हुआ है। गुजरात कांग्रेस के नेताओं ने अभी तक हार्दिक को स्वीकार नहीं किया है। गुजरात में कांग्रेस चुनाव तो छोड़िए अपनी पार्टी की राज्य इकाई का पुनर्गठन पिछले ढाई साल से नहीं कर पाई। पार्टी का कोई प्रदेश प्रभारी, अध्यक्ष या विधायक दल का नेता नहीं है।
इंदिरा गांधी ने 1967 के बाद कांग्रेस का बौद्धिक पक्ष वामदलों को आउटसोर्स कर दिया था। अब राहुल गांधी पूरी पार्टी को ही वामपंथ के हवाले कर रहे हैं। इसमें भी कोई समस्या नहीं होती, यदि यह काम एक सुविचारित नीति के तहत होता। बस ऐसा हो रहा है। क्यों हो रहा है, किसी को पता नहीं। जानने में किसी की दिलचस्पी भी नहीं दिखती।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)