खरगे ने जिस तरह सार्वजनिक रूप से शिवकुमार को निशाने पर लिया, उससे कांग्रेस असहज हुई। खरगे के बयान पर शिवकुमार ने सफाई दी कि उन्होंने शक्ति योजना की समीक्षा की बात की थी, न कि उसे खत्म करने की। चूंकि खरगे भी कर्नाटक से आते हैं इसलिए हैरानी नहीं कि शिवकुमार को नापसंद करने के कारण उन्होंने उन्हें निशाने पर लिया हो। ध्यान रहे कि खरगे के बेटे कर्नाटक सरकार में मंत्री हैं और शिवकुमार मुख्यमंत्री बनना चाह रहे हैं। जो भी हो, पांच गारंटियों पर खरगे और शिवकुमार के बयानों से भाजपा को कांग्रेस पर हमला करने का मौका मिल गया। प्रधानमंत्री मोदी ने यह कहकर उसे निशाने पर लिया कि अब उसे यह अहसास हो रहा है कि झूठे वादे करना तो आसान है, लेकिन उन्हें पूरा करना कठिन। ज्ञात हो कि वह पहले से ही रेवड़ी संस्कृति से बचने की बात कहते चले आ रहे हैं।

इसमें संदेह है कि कर्नाटक की शक्ति योजना को लेकर विवाद खड़ा हो जाने से कांग्रेस भविष्य में चुनाव जीतने के लिए लोक-लुभावन घोषणाओं का सहारा नहीं लेगी। इसके आसार इसलिए नहीं, क्योंकि लोकसभा में कांग्रेस के नेता राहुल गांधी अपनी लोक-लुभावन घोषणाओं को खटाखट पूरा करने पर जोर देते रहते हैं। लोकसभा चुनाव में उन्होंने कांग्रेस की लोक-लुभावन घोषणाओं को खटाखटा यानी आनन-फानन पूरा करने का भरोसा दिया था। चूंकि वह खुद रेवड़ी संस्कृति को बढ़ावा देते हैं, इसलिए हिमाचल प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस ने लोक-लुभावन घोषणाएं की थीं। उसने यहां पांच के बजाय दस गारंटियां दी थीं। यह बात और है कि दो वर्ष बाद भी हिमाचल की कांग्रेस सरकार दस में से पांच गारंटियां ही पूरी कर सकी है। इन्हें पूरा करने में भी उसे कठिनाई आ रही है और इसके चलते कर्मचारियों को समय पर वेतन देना मुश्किल हो रहा है। हैरानी नहीं कि इस सबसे बेपरवाह कांग्रेस महाराष्ट्र और झारखंड के विधानसभा चुनाव में भी लोगों को लुभाने के लिए रेवड़ी संस्कृति का सहारा ले।

आज देश में कुछ ही राज्‍य हैं, जो आर्थिक रूप से अच्छी स्थिति में हैं। समस्या यह है कि उनके साथ-साथ कमजोर आर्थिक स्थिति वाले राज्य भी लोक-लुभावन घोषणाएं करते रहते हैं। स्थिति यह है कि जो राजनीतिक दल दूसरे दलों की लोक-लुभावन घोषणाओं की आलोचना करते हैं, वे भी चुनाव जीतने के लिए वैसी ही घोषणाएं कर देते हैं। यह ठीक है कि आर्थिक रूप से संपन्न राज्यों को लोक-लुभावन घोषणाएं करने और उन्हें पूरा करने में आसानी होती है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे खुद को आर्थिक रूप से बेहतर कर रहे हैं। सच तो यह है कि वे भी अपनी आर्थिक सेहत से खिलवाड़ कर रहे हैं और साथ ही अन्य राज्यों में रेवड़ी संस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं। आज तो कुछ राजनीतिक दल रेवड़ी संस्कृति के सहारे ही अपनी राजनीति कर रहे हैं। वे रेवड़ी संस्कृति का बचाव भी करते हैं। यह किसी से छिपा नहीं कि आम आदमी पार्टी किस तरह मुफ्त बिजली-पानी देने का वादा करके अपनी राजनीति करती है। दिल्ली कम आबादी वाला राज्य है और उसकी आर्थिक स्थिति अन्य राज्यों से बेहतर है, लेकिन यदि दिल्ली माडल अन्य राज्यों ने अपनाया तो उनकी आर्थिकी का बेड़ा गर्क होना तय है। इससे इन्कार नहीं कि लोक-लुभावन घोषणाएं चुनाव जिताने में सहायक साबित होती हैं, लेकिन क्‍या वे प्रदेश और देश को आर्थिक तौर पर मजबूत बना रही हैं? यह वह प्रश्न है, जिस पर सार्थक बहस होनी चाहिए, क्योंकि यदि लोक-लुभावन घोषणाओं के कारण एक के बाद एक राज्यों की आर्थिक हालत खराब होती जाएगी तो फिर भारत को विकसित राष्ट्र बनाना संभव नहीं होगा। यह समझा जाना चाहिए कि आर्थिक नियमों की अनदेखी करने और मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने वाली लोक-लुभावन घोषणाओं को पूरा करने की कीमत अंततः जनता को ही चुकानी पड़ती है। कई बार तो जनता के उस वर्ग को भी, जिनके लिए ये लोक-लुभावन घोषणाएं की जाती हैं। यदि आम लोगों को यह बात समझ आ जाए तो राजनीतिक दल रेवड़ी संस्कृति अपनाने से परहेज कर सकते हैं। विडंबना यह है कि लोग लोक-लुभावन घोषणाओं के दुष्परिणाम समझने से इन्‍कार कर रहे हैं। अक्‍सर यह देखने में आता है कि प्रलोभन में आकर वे अपने वोट की अहमियत ही नहीं समझते।

अभी अपने देश में ऐसा कोई तंत्र विकसित नहीं हुआ है कि राजनीतिक दलों की लोक-लुभावन घोषणाओं का आर्थिक दृष्टि से आकलन किया जा सके। इसके विपरीत कई विकसित देशों में ऐसा तंत्र बन चुका है और इसी कारण वहां राजनीतिक दल रेवड़ी संस्कृति चाहकर भी नहीं अपना सकते, क्योंकि मीडिया, थिंक टैंक, वित्तीय संस्थान आदि लोक-लुभावन घोषणाओं की कठोर समीक्षा करते हैं। भारत में भी ऐसा होना चाहिए और जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक चुनाव आयोग को अपने स्तर पर राजनीतिक दलों को अनाप-शनाप लोक-लुभावन घोषणाएं करने से रोकने का अधिकार मिलना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता तो रेवड़ी संस्कृति और फले-फूलेगी। इससे न केवल अर्थव्यवस्था कमजोर होगी, बल्कि लोकतंत्र भी।

[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]