आदिवासी समाज भगवान बिरसा मुंडा की 150वीं जयंती मनाने की तैयारी कर रहा है। वर्ष 1875 में 15 नवंबर को झारखंड में ‘धरती आबा’ यानी भगवान बिरसा मुंडा का जन्म हुआ था। जनजाति अस्मिता, स्वायत्तता और संस्कृति तथा वैष्णव धर्म की रक्षा के लिए बलिदान होने वाले भगवान बिरसा मुंडा के संघर्ष की सत्यता से जनजाति समाज को अवगत कराने का यह सही अवसर है।

भारत में बर्बर इस्लामिक आक्रांताओं के बारे में जो कुछ लिखा और कहा जाता है, वह विदेश से आयातित इस्लाम, ईसाइयत और वामपंथ का आधा ही सत्य है। यह समझने की आवश्यकता है कि ईसाई मिशनरियां भी हिंदुओं और आदिवासियों के खिलाफ षड्यंत्र करती रही हैं और आज भी कर रही हैं। कुछ समय पहले मिजोरम के मुख्यमंत्री के अमेरिका में दिए गए बयान से ऐसा प्रतीत होता है कि ईसाई मिशनरियां भी देश का विभाजन करना चाहती हैं।

ईस्ट इंडिया कंपनी ने पहले व्यापार और फिर छल-कपट से भारत में राज्य विस्तार के नाम पर यहीं के जमींदारों को आगे रखकर लूट शुरू की। इस लूट का विरोध करने वालों को चौक-चौराहे पर कोड़े मारने, फांसी पर लटकाने और मंदिरों को तोड़ने जैसे कृत्य किए गए। बाबा तिलका मांझी को मीलों घसीटते हुए खून में डूबे उनके शरीर को पेड़ पर लटका कर खुलेआम फांसी देना इसका उदाहरण है।

23 जून, 1757 को प्लासी युद्ध के बाद अंग्रेजों का तत्कालीन बंगाल पर नियंत्रण हो गया, जिसमें आज के बिहार, ओडिशा तथा झारखंड शामिल थे। फिर 1765 में अंग्रेजों ने उसका दीवानी अधिकार प्राप्त कर लिया। ईस्ट इंडिया कंपनी ने तीर्थयात्रियों पर प्रतिबंध लगा दिया। उसके खिलाफ शुरू हुए संघर्ष को ‘संन्यासी विद्रोह’ कहा जाता है।

इसी संघर्ष को ध्यान में रखकर बंकिम चंद्र जी ने ‘आनंदमठ’ नामक उपन्यास लिखा था। इस संघर्ष का केंद्र बिहार का पूर्णिया था। वह आंदोलन लगभग चार दशक तक चला। बाद में 1771 से 1784 तक ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध संघर्ष छेड़ने वाले ‘जबरा पहाड़िया’ उर्फ बाबा तिलका मांझी को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के पहले सेनानी के नाम से जाना जाता है।

आज की पीढ़ी को उनके बारे में बहुत कम जानकारी है। 1857 के पहले 1853 में सिद्धू मुर्मु और कान्हू मुर्मु ने जंगल तराई में ब्रिटिश शासन के दमन और शोषण के खिलाफ ‘करो या मरो- अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो’ महासंग्राम छेड़ा था, जिसे आज संताल परगना कहा जाता है। यह महासंग्राम ईसाई मिशनरियों के खिलाफ भी था, जो आदिवासी समाज की संस्कृति को बदलने का काम कर रही थीं।

अगस्त 1855 में अंग्रेजों ने सिद्धू मुर्मु को बरगद के पेड़ पर लटकाकर फांसी दे दी। अंग्रेज भारतीय समाज को डराने के लिए बर्बर तरीके से फांसी देते थे, ताकि कोई उनके शासन के खिलाफ अपनी आवाज न उठा सके। बाबा तिलका मांझी, भगवान बिरसा मुंडा तथा सिद्धू-कान्हू मुर्मु के बारे में तो कुछ साहित्य उपलब्ध भी है, पर 1790 के तमाड़ विद्रोह, 1800 से 1818 तक चले चेरो आंदोलन तथा 1820-21 के हो विद्रोह, कोल विद्रोह, ताना भगत आंदोलन आदि के बारे में साहित्य न के बराबर उपलब्ध है।

वर्ष 1757 से 1857 के बीच ईस्ट इंडिया कंपनी के दमन और शोषण के खिलाफ देश में चले अनेक संघर्षों से डर कर ईसाई मिशनरियों ने जनजाति बहुल इलाकों में शिक्षा और स्वास्थ्य के नाम पर आदिवासियों के ईसाइकरण का षड्यंत्र शुरू किया और शिक्षा की आड़ में उन पर मानसिक गुलामी थोपना शुरू कर दिया।

देश राजनीतिक रूप से भले आजाद हो गया हो, पर मानसिक रूप से आज भी गुलाम है। इसीलिए जनजाति संघर्ष के बारे में बहुत कम लिखा गया। चिंता की बात यह है कि ईसाई मिशनरियां आज भी वैसे ही सक्रिय हैं, जैसे अंग्रेजी सत्ता के समय थीं। जिस जनजाति समाज ने अंग्रेजी राज के शोषण और दमन के खिलाफ संघर्ष किया, आज वही ईसाई मिशनरियों के चंगुल में है। जनजाति समाज को जंगल और जमीन के अधिकार से बेदखल करने वाले अंग्रेज थे, पर इसका कोई जिक्र नहीं करता।

वर्तमान में झारखंड दोहरे संकट से दो-चार है। एक ओर बांग्लादेश से आने वाले घुसपैठिए बढ़ रहे हैं और इसके चलते आदिवासी इलाकों में मुस्लिम आबादी बढ़ रही है, दूसरी ओर आदिवासियों का ईसाईकरण हो रहा है। झारखंड में भगवान बिरसा मुंडा की संतानों यानी मुंडा की आबादी 12,29,221 है, जिसमें से 4,03,466 यानी 32.82 प्रतिशत ईसाई हो गए हैं।

तिलका मांझी की संतानों यानी संताल की आबादी 27,54,723 है, जिसमें से 2,36,304 यानी 8.57 प्रतिशत ईसाई हो गई है। मुंडा और संताल की ही तरह 26.16 प्रतिशत उरांव भी ईसाई हो गए हैं। अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष करने वाले हो और चेरो भी ईसाई बन रहे हैं। सिमडेगा जिले में 80.71 प्रतिशत, गुमला में 43.79 प्रतिशत, पश्चिमी सिंहभूम में 41.29 प्रतिशत तथा खूंटी में 37.91 प्रतिशत मुंडा आबादी ईसाई बन गई है।

मुंडा समाज की ही तरह सिमडेगा में 95.31 प्रतिशत तथा गुमला में 29.46 प्रतिशत उरांव आबादी भी ईसाई हो गई है। इसी प्रकार झारखंड का सिमडेगा ईसाई बहुल हो गया है। यह साफ दिख रहा है कि पूर्वोत्तर राज्यों की ही तरह ईसाई मिशनरियां झारखंड में भी चुनावों को प्रभावित करने की स्थिति में पहुंच गई हैं।

आज समय की मांग है कि ईसाई मिशनरियों के खिलाफ जनजाति समाज के संघर्ष के इतिहास को नए सिरे से संकलित किया जाए और उसका प्रचार-प्रसार हो। इसके साथ-साथ जनजातियों की मातृभाषा, कला, गीत, नृत्य, संगीत, हस्तकला का संरक्षण और संवर्धन किया जाए। इसी के साथ ईसाई मिशनरियों के छल-छद्म से मतांतरण अभियान पर रोक लगानी होगी। इससे ही झारखंड ईसाई मिशनरियों के षड्यंत्र से झारखंड बच सकेगा।

(लेखक बिहार विधान परिषद के पूर्व सदस्य हैं)