कुछ लोगों के हाथ में ही सारी दौलत न हो ….संविधान दिवस पर पूरी कहानी ?
कुछ लोगों के हाथ में ही सारी दौलत न हो …
सबके लिए एक कानून हो; सरकार को क्या जिम्मेदारियां दी गई, संविधान दिवस पर पूरी कहानी
- दीपिका पादुकोण ने अपनी एक फिल्म इसलिए करने से मना कर दी, क्योंकि उन्हें फिल्म के अभिनेता के बराबर फीस देने से मना कर दिया गया।
- मोदी सरकार लगातार यूनिफॉर्म सिविल कोड को पुश कर रही है, ताकि सभी के लिए एक जैसे सिविल कानून हों।
- मध्य प्रदेश के बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व में 10 हाथियों की मौत पर सरकार कठघरे में आ गई। ताबड़तोड़ एक्शन लिए गए।
ऊपर लिखी तीनों बातें बेमेल लग रही होंगी, लेकिन इनमें एक बात कॉमन है। तीनों बातों के लिए सरकार को हमारे संविधान के भाग-4 में निर्देश दिए गए हैं। संविधान में सरकार की ऐसी तमाम जिम्मेदारियां तय की गई हैं, जिन्हें राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत कहते हैं।
आज संविधान दिवस है। 26 नवंबर 1949 को देश का संविधान एडॉप्ट किया गया था। ……में जानेंगे कि संविधान में लिखी सरकार की जिम्मेदारियां क्या हैं और पिछले 75 सालों में इनमें कितनी प्रोग्रेस हुई है…
सवाल-1: राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत क्या हैं, इन्हें सरकार की जिम्मेदारी क्यों कहा जाता है?
जवाबः राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत के नाम में ही इसका मतलब छुपा है। ये सरकार को दिशा दिखाने वाली ऐसी बातें हैं, जिन्हें पॉलिसी बनाते वक्त ध्यान रखना चाहिए। संविधान के भाग-4 में आर्टिकल 36 से 51 तक डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स के प्रावधान हैं। भारत ने DPSP को आयरलैंड के संविधान से अपनाया है।
सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता के मुताबिक, यह सरकार की जिम्मेदारी है कि योजनाएं और कानून बनाते समय इन सिद्धांतों को ध्यान में रखे। इसलिए DPSP को सरकार की जिम्मेदारियां भी माना जाता है। इनके पालन के लिए सरकार पर जनता वोट के माध्यम से दबाव बना सकती है, लेकिन इसके लिए संवैधानिक बाध्यता नहीं है।
सवाल-2: DPSP में क्या-क्या बातें रखी गई हैं?
जवाबः वैचारिक स्रोत और उद्देश्यों के आधार पर डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स यानी सरकार की जिम्मेदारियों को 3 भागों में बांटा जा सकता है। हम कुछ प्रमुख बातें पेश कर रहे हैं…
1. समाजवादी सिद्धांतों पर आधारित प्रावधान
अनुच्छेद 38: राज्य आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित करेगा और सभी को कमाई के बराबर मौके देने का प्रयास करेगा।
अनुच्छेद 39: सभी नागरिकों को आजीविका के पर्याप्त साधन का अधिकार। कुछ लोगों के हाथ में ही सारी दौलत न हो। पुरुषों और महिलाओं को समान काम के लिए समान वेतन मिले। बाल मजदूरी न हो… राज्य ऐसा करने का प्रयास करेगा।
अनुच्छेद 41: पढ़ाई, काम, बेरोजगारी, बुढ़ापा, बीमारी और विकलांगता के मामले में सार्वजनिक सहायता के अधिकार के अधिकार सुनिश्चित हों।
अनुच्छेद 42: काम के लिए उचित मानवीय स्थितियों और मैटरनिटी लीव के लिए प्रावधान का प्रयास।
अनुच्छेद 43: राज्य सभी श्रमिकों को एक जीवन निर्वाह योग्य मजदूरी और उचित जीवन स्तर सुरक्षित करने का प्रयास करेगा।
अनुच्छेद 47: सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार के लिए पोषण के स्तर और लोगों के जीवन स्तर को ऊपर उठाना
2. गांधीवादी सिद्धांतों पर आधारित प्रावधान
अनुच्छेद 40: राज्य ग्राम पंचायतों को स्वशासन की इकाइयों के रूप में संगठित करने के लिए कदम उठाएगा।
अनुच्छेद 43: राज्य ग्रामीण क्षेत्रों में व्यक्तिगत या सहकारी आधार पर कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने का प्रयास करेगा।
अनुच्छेद 46: जनता के कमजोर वर्गों, विशेष रूप से अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) के शैक्षिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा देगा।
अनुच्छेद 47: राज्य सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार के लिए कदम उठाएगा और इस दौरान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक नशीले पेय और दवाओं के सेवन पर रोक लगाएगा।
अनुच्छेद 48: गायों, बछड़ों और अन्य दुधारू पशुओं के वध पर रोक लगाने और उनकी नस्लों में सुधार करने के लिए प्रयास करेगा।
3. उदार बौद्धिक सिद्धांतों पर आधारित प्रावधान
अनुच्छेद 44: राज्य भारत के क्षेत्र के माध्यम से नागरिकों के लिए एक यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने का प्रयास करेगा।
अनुच्छेद 45: छह वर्ष की आयु पूरी करने तक सभी बच्चों के लिए बचपन की देखभाल और शिक्षा प्रदान करने का प्रयास करेगा।
अनुच्छेद 48: आधुनिक और वैज्ञानिक तर्ज पर कृषि और पशुपालन को व्यवस्थित करने का प्रयास करेगा।
अनुच्छेद 48A: पर्यावरण की रक्षा, देश के वन और वन्य जीवन की रक्षा करने का प्रयास।
अनुच्छेद 49: राज्य हर स्मारक, कलात्मक रूप से महत्वपूर्ण या ऐतिहासिक स्थान की रक्षा करेगा।
अनुच्छेद 50: राज्य की लोक सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने के लिए कदम उठाएगा।
अनुच्छेद 51: राज्य अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा स्थापित करने का प्रयास करेगा।
सवाल-3: नागरिकों के मूल अधिकार और नीति निर्देशक तत्वों में क्या फर्क है?
जवाब: अधिकार कई तरह के होते हैं। हमारे संविधान बनाने वालों ने तय कर दिया कि हमारे कुछ हक ऐसे होंगे जो हर चीज से ऊपर होंगे। जो संसद से भी ऊपर होंगे। उसे एक पुलिस वाले से लेकर प्रधानमंत्री तक कोई नहीं छीन सकता।
सरकार इन मौलिक अधिकारों का यदि हनन करे या इनके खिलाफ संसद कोई कानून बनाए तो उन्हें अनुच्छेद-226 के तहत हाईकोर्ट में और अनुच्छेद-32 के तहत सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है।
जैसे- मान लीजिए आपके भाई या बेटे को बिना वजह पुलिस पकड़कर ले गई तो आप सीधे सुप्रीम कोर्ट जा सकते हैं। आप कह सकते हैं कि ये मेरे भाई के मूल अधिकार ‘Protection of life and personal liberty’ का उल्लंघन है। सुप्रीम कोर्ट इस पर परमादेश जारी कर सकती है।
भारतीय संविधान के मौलिक अधिकार जैसे समानता, स्वतंत्रता, शिक्षा, धार्मिक स्वतंत्रता, शोषण के विरुद्ध अधिकार, लोगों के व्यक्तिगत हितों का संरक्षण करते हैं। ये संविधान के तीसरे भाग में आर्टिकल 12 से आर्टिकल 35 के बीच बताए गए हैं।
अध्याय-4 में नीति निदेशक सिद्धांतों का विवरण है। इनमें ऐसी अनेक आदर्श वाली बातें कहीं गई हैं जो सरकार और संसद के लिए गाइड के तौर पर काम करती हैं। इनका उल्लंघन होने पर कोर्ट में अपील नहीं की जा सकती। ऐसे अधिकारों की पूर्ति सरकार की जिम्मेदारी है। हालांकि सरकार कभी भी कानून पास करके इन गैर-न्यायसंगत अधिकारों को न्यायसंगत की श्रेणी में ला सकती है।
भारत में वर्तमान में चर्चित यूनिफॉर्म सिविल कोड भी DPSP के आर्टिकल 44 में शामिल है। वहीं 1992 में संविधान में 73वें संशोधन के बाद आया पंचायती राज एक्ट DPSP के 40वें आर्टिकल में दिया हुआ था।
सवाल-4: DPSP को मौलिक अधिकार क्यों नहीं बनाया गया?
जवाब: 1947 में जब देश आजाद हुआ था, तब भारत के सामने नए सिरे से पूरा देश चलाने की जिम्मेदारी थी। आजाद हुए देश के लोगों को उनकी आजादी के अधिकार देने थे। ऐसे में डॉ. अंबेडकर का मानना था कि अभी भारतवासियों को बहुत से अधिकार देने हैं।
संविधान सभा की डिबेट में पाया गया कि आर्थिक रूप से अभी भारत अपने नागरिकों को बहुत से अधिकार देने के लिए तैयार नहीं है। जो बहुत जरूरी अधिकार हैं उन्हें मौलिक अधिकार में शामिल किया गया। फिर भी कई जरूरी अधिकार बच रहे थे, जिन्हें DPSP में शामिल किया गया।
इसे ऐसे समझ सकते हैं कि 1950 में जब संविधान तैयार हुआ तो इसमें शिक्षा का अधिकार मौलिक अधिकार के तौर पर शामिल नहीं था। यह DPSP का भाग था। ऐसा इसलिए क्योंकि उस समय देशभर में इतने स्कूल ही नहीं थे कि 14 साल तक के सभी बच्चों को मुफ्त शिक्षा की सुविधा दी जा सके।
देश के पास इतना पैसा भी नहीं था कि आजादी के तुरंत बाद ही इतने स्कूलों का निर्माण हो जाए और ये कानून लागू कर दिया जाए। इसलिए 1950 में शिक्षा के अधिकार को DPSP में शामिल किया गया।
साथ ही यह निर्णय लिया गया कि DPSP में जो भी आर्टिकल हैं उन्हें उचित व्यवस्था होने पर मौलिक अधिकार या कानून के रूप में लागू किया जाएगा। यानी जब देश आर्थिक रूप से और देशवासी सामाजिक रूप से इन अधिकारों के लिए तैयार होंगे तब उस समय की सरकार इसे लागू कर देगी। जो हुआ भी। 2009 में शिक्षा के अधिकार को एक मौलिक अधिकार बना दिया गया जो कि आर्टिकल 21ए में आता है।
सवाल-5: अब तक DPSP के कितने आर्टिकल मौलिक अधिकार बन गए हैं?
जवाब: अभी तक DPSP के 3 अनुच्छेद मौलिक अधिकारों की श्रेणी में शामिल हो गए, जबकि कई अन्य के संबंध में विशेष एक्ट पास किए गए हैं या योजनाएं बनाई गई हैं।
- DPSP के आर्टिकल 45 में 14 साल तक की उम्र के सभी बच्चों को मुफ्त शिक्षा की सुविधा देने का प्रावधान था। यह लक्ष्य 10 संविधान लागू होने के 10 साल में पूरा करना था। हालांकि इसे मौलिक अधिकार बनते हुए 59 साल लग गए।
- साल 2009 में संविधान के 86वें संशोधन के साथ 6 से 14 साल तक के सभी बच्चों को फ्री और कंपल्सरी एजुकेशन का अधिकार प्राप्त हुआ। संविधान के आर्टिकल 21ए में शामिल कर शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाया गया।
- DPSP के आर्टिकल 46 में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य कमजोर वर्गों के शैक्षिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा देने का प्रावधान है। इसे तीन अलग-अलग अनुच्छेदों के जरिए मौलिक अधिकारों में जोड़ा गया। सबसे पहले संविधान में पहले संशोधन के साथ आर्टिकल 15(4) में पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने के लिए विशेष प्रावधान किए गए।
1995 में भारत के संविधान में 77वां संशोधन किया गया। इसके अंतर्गत पब्लिक एम्प्लॉयमेंट में पिछड़े वर्गों को आरक्षण दिया गया। आर्टिकल 16(4) के तहत इसे भी मौलिक अधिकार बनाया गया।
इसके बाद 2005 में संविधान में 93वां संशोधन किया गया। आर्टिकल 15(5) के तहत निजी शैक्षणिक संस्थानों में भी एसटी, एससी और ओबीसी के लिए आरक्षण का मौलिक अधिकार दिया गया।
- DPSP का आर्टिकल 47 पोषण स्तर और जीवन स्तर को ऊपर उठाना और सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार करना राज्य का कर्तव्य बताता है। 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में आर्टिकल 21 जो कि राइट टु लाइफ की बात करता है, उसी में राइट टु फूड के शामिल होने की बात कही थी। इसके अलावा देश में नेशनल फूड सिक्योरिटी एक्ट भी 2013 में पास किया गया था।
सवाल 6: DPSP के कौन से आर्टिकल पर अभी तक कोई कानून नहीं आया?
जवाब: अभी भी कई आर्टिकल हैं जिन पर ज्यादा काम नहीं हुआ। इन पर लंबे समय से बात चल रही है, लेकिन कानून लागू नहीं किया गया।
- इसमें सबसे पहले आता है यूनिफॉर्म सिविल कोड, जो कि DPSP के आर्टिकल 44 में शामिल है। इसका उद्देश्य शादी, तलाक, विरासत और गोद लेने जैसे मुद्दों पर सभी धर्मों के अपने व्यक्तिगत कानूनों के बदले एक समान कानून का होना है। यूसीसी पर लंबे समय से भारत में डिबेट चल रही है। सत्ताधारी एनडीए अपने इस कार्यकाल में यूसीसी लागू करने का वादा कर चुकी है। वहीं उत्तराखंड में फरवरी 2024 में इसे लागू किया गया।
- आर्टिकल 50 के अंतर्गत राज्य की सार्वजनिक सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने के लिए कदम उठाए जाने का प्रावधान है, जिस पर अभी तक कोई कानून नहीं आया है।
- आर्टिकल 43ए राज्य उद्योगों के प्रबंधन में श्रमिकों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाने की मांग करता है। इस आर्टिकल पर भी अभी तक कोई कानून या योजना नहीं लागू हुई है। हालांकि दिसंबर 2023 में प्रबंधन में श्रमिकों की भागीदारी अधिनियम, 2023 (Participation of Workers in Management Act, 2023) इश्यू किया गया था। सदन की सहमति से भविष्य में यह कानून बन पाएगा।
सवाल 7: यूनिफॉर्म सिविल कोड अभी तक लागू क्यों नहीं हो पाया?
जवाब: संविधान सभा की बैठक में समान नागरिक संहिता का मुद्दा पहली बार कांग्रेस की मीनू मसानी ने 1948 में उठाया था। उस समय के ड्राफ्ट में UCC को संविधान के अनुच्छेद 35 में रखा गया था, जो अभी मौलिक अधिकारों का हिस्सा है। उस समय डॉ. बी आर अंबेडकर से लेकर पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी UCC का समर्थन किया था।
लेकिन दूसरी ओर कई मुस्लिम सदस्यों ने UCC लागू करने पर आपत्ति जताई। इसमें ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के मद्रास से सदस्य मोहम्मद इस्माइल साहिब और उर्दू कवि मौलाना हसरत मोहानी भी शामिल थे। उनका मानना था कि अगर मुस्लिम पर्सनल लॉ को बदलकर UCC लागू कर दिया जाएगा तो सालों से पर्सनल लॉ को मानते आ रहे लोगों को समस्या होगी।
ऐसे में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने पर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सका। इसे DPSP के आर्टिकल 44 में शामिल कर लिया गया, यानी जब परिस्थितियां अनुकूल हों, उस समय की सरकार इसे लागू कर सके।
इसके बाद कई मौकों पर UCC लागू करने की मांग उठी। 1985 के शाहबानो केस के बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी UCC लागू करने की वकालत की थी। शाहबानो के पति ने उसे तीन तलाक के जरिए डिवोर्स दे दिया था। अपने और बच्चों के लिए मेंटेनेंस की मांग करने शाहबानो कोर्ट पहुंची थीं।
सुप्रीम कोर्ट ने उनके पक्ष में फैसला सुनाया। साथ ही यूनिफॉर्म सिविल कोड बनाने की सिफारिश भी की, लेकिन इस पर कोई एक्शन नहीं लिया गया। इसके बाद भी कई मौकों पर कोर्ट की तरफ से UCC की वकालत की गई, लेकिन कोई एक्शन नहीं लिया गया।
सत्ताधारी BJP 1998 से 2024 तक लगातार अपने चुनावी मेनिफेस्टो में UCC को शामिल करती आई है। राज्यों के चुनावों में भी UCC को शामिल किया गया है। 2018 में लॉ कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में UCC लागू करने की जरूरत को नकारा था। 2024 लोकसभा चुनावों से पहले BJP ने इस पर खासा जोर दिया था।
पार्टी ने इस टर्म में UCC लागू करने का आश्वासन भी दिया है। हालांकि, जिस तरह संविधान सभा में इसका विरोध हुआ था, वैसा विरोध अभी भी है। माइनॉरिटी को इस बात का डर है कि UCC से उनके अधिकार छिन जाएंगे। इसी कारण अब तक ये लागू नहीं हो पाया है।
सवाल 8: DPSP से कानून बनाने में सरकारें इतना समय क्यों लेती हैं?
जवाब: DPSP में शिक्षा का अधिकार संविधान लागू होने से 10 साल के अंदर लाने की बात कही गई थी। इसके बाद भी 2002 में जाकर यह एक मौलिक अधिकार बना। राइट टु एजुकेशन एक्ट तो 2009 में आया। आर्टिकल 47 के अंतर्गत पोषण स्तर बेहतर करने का जिक्र था, लेकिन नेशनल फूड सिक्योरिटी एक्ट 2013 में आया। यूसीसी अभी तक नहीं आ पाया है। सरकारें DPSP के आर्टिकल लागू करने में खासा समय ले रही हैं।
सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता कहते हैं कि सांसदों का अधिकांश फोकस चुनाव जीतने में रहता है। DPSP की जिम्मेदारी निभाने में उनकी उतनी रुचि नहीं है। अधिकांश कानून समवर्ती सूची में हैं। डबल इंजन सरकार के नैरेटिव के दौर में विपक्ष शासित राज्यों के साथ सहमति बनाना भी बड़ी चुनौती है।